बसपा और सामाजिक आंदोलन


राजनीति करने वाले बहुत ही फख के साथ अपने को समाज सेवक बताते हैं, इस दृष्टि से सभी राजनीतिक दल एक सामाजिक आंदोलन ही माने जाएंगे लेकिन राजनीतिक दल जिस तरह से केन्द्र या राज्य में सत्ता प्राप्त करने का जायज या नाजायज तरीके से प्रयास करते रहते हैं और उनके पार्टी फंड में अकूत पैसा इकट्ठा होता रहता है, उससे यह भ्रांति दूर हो जाती है कि ये राजनीतिक दल कोई सामाजिक आंदोलन का लक्ष्य लिये हुए हैं। राजनीति अब पूरी तरह से राजशाही हो गयी है और लोकतंत्र की सबसे मजबूत जंजीर (चुनाव) भी उसके कदम नहीं रोक पा रही है। निरीह जनता पीठ पीछे तो उनकी आलोचना करती है लेकिन उनके सामने उसी तरह हाथ बांधकर खड़ी हो जाती है जैसे राजा-रजवाड़ों के सामने उसकी जुबान बंद हो जाती थी। इस तरह के हालात में बसपा की सुप्रीमों और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री  मायावती ने पिछले दिनों यह कहा कि बसपा एक राजनीतिक पार्टी नहीं बल्कि सामाजिक मूवमेंट भी है तो उधर बरबस ही ध्यान चला गया। बसपा को स्व. कांशीराम ने दलितों के हित की लड़ाई लड़ने के लिए एक राजनीतिक दल के रूप में स्थापित किया था। पहले यह सचमुच एक आंदोलन ही था जिसका लक्ष्य दबे कुचले लोगों को आगे बढ़ाने का था।


 मायावती ने यह बात उस समय कही जब उत्तराखण्ड के सियासी घमासान में बसपा के विधायक वहां की हरीश रावत सरकार अपनी ही पार्टी के विधायकों की बगावत के चलते गहरे संकट में फंस गयी थी। मुख्य विपक्षी दलों को तो ऐसे अवसरों की प्रतीक्षा ही रहती है इसलिए भाजपा ने हरीश रावत की सरकार को गिराने के लिए हर वह प्रयास कर डाला, जो वह कर सकती थी केन्द्र सरकार को इससे लांछन भी सहना पड़ा और राष्ट्रपति शासन लगाने के फैसले को शर्मिन्दगी के साथ वापस लेना पड़ा। बसपा के विधायकों ने हरीश रावत के पक्ष में मतदान किया। इसके बाद यह कहा जाने लगा कि बसपा और कांग्रेस की दोस्ती लम्बे समय तक चल सकती है। अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और पंजाब के विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस-बसपा गठबंधन की बात जब होने लगी तो  मायावती को स्पष्टीकरण देना जरूरी हो गया  मायावती ने कहा कि उनकी बहुजन समाज पार्टी आने वाले किसी भी राज्य के विधानसभा आम चुनाव में किसी भी पार्टी के साथ किसी भी प्रकार का कोई चुनावी गठबंधन या समझौता आदि नहीं करेंगी अर्थात उत्तर प्रदेश के साथ-साथ उत्तराखण्ड व पंजाब राज्य में होने वाले अगले विधानसभा आम चुनाव में बीएसपी अकेले ही अपने बलबूते पर पूरी तैयारी के साथ यह चुनाव लड़कर सत्ता की मास्टर चाबी खुद अपने हाथों में लेने का प्रयास करेगी  मायावती ने यह भी कहा कि चुनाव चाहे लोकसभा का हो या विधानसभा का, बीएसपी (बसपा) के लिए यह मामला पार्टी के सिद्धांत व विचारधारा से जुड़ा हुआ है। उन्होंने कहा बीएसपी एक राजनीतिक पार्टी के साथ-साथ एक सामाजिक मूवमेंट भी है। इसलिए इस चुनावों को केवल हार जीत, चुनावी स्वार्थ या सामाजिक लाभ के लिए लड़ने के बजाय बसपा अपने मूवमेंट को आगे बढ़ाने के मिशनरी लक्ष्य को ध्यान में रखकर ही चुनाव लड़ती हैयही कारण है कि जिन राज्यों में पार्टी का संगठन मजबुत नहीं है और जहां जनाधार भी ज्यादा नहीं बढ़ा है, वहां भी बसपा अकेले ही अपने बलबूते पर चुनाव लड़कर आत्म विश्वास पैदा करके आगे बढ़ने का प्रयास करती है। उन्होंने उदाहरण दिया कि पश्चिम बंगाल, केरल व तमिलनाडु में बसपा का व्यापक जनाधार नहीं है लेकिन बिना किसी पार्टी के साथ समझौता किए हुए अपने बलबूते पर चुनाव लड़ रही है।


मायावती जब कहती हैं बसपा राजनीतिक पार्टी के साथ-साथ सामाजिक मूवमेंट भी है जिसका उद्देश्य यहां व्याप्त गैर बराबरी वाली जातिवादी सामाजिक व्यवस्था को बदलकर समता मूलक समाज व्यवस्था स्थापित करना है, बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने यहां की जातिवादी व्यवस्था के शिकार लोगों को अपने पैरों पर खड़े होकर आत्म सम्मान व स्वाभिमान का जीवन व्यतीत करने के लिए संवैधानिक व कानूनी अधिकार दिये। डा. भीमराव अम्बेडकर चाहते थे कि इस व्यवस्था के पीड़ित लोगों को सत्ता की मास्टर चाबी अपने हाथ में लेकर अपना उद्धार स्वयं करना होगा इसी सोच को ध्यान में रखकर 14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की स्थापना भी  कांशीराम ने की थी।


इस पार्टी की स्थापना एक राजनीतिक पार्टी के रूप में की गयी, इसमें कोई संदेह नहीं लेकिन  मायावती ने इसकी विचारधारा सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय बनाकर पहली बार उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी की सरकार बनाने में सफलता प्राप्त की थीसन् 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा को वोट तो पर्याप्त मिले लेकिन सांसद एक भी नहीं मिल सका।  मायावती कहती हैं कि केन्द्र की वर्तमान भाजपा सरकार उच्च शिक्षण संस्थानों में आरएसएस के विभाजनकारी, जातिवादी व द्वेषपूर्ण एजेण्डे को थोपने की कोशिश कर रही है। वह हैदराबाद विश्वविद्यालय, दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और इलाहाबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी का उदाहरण भी देती है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आनलाइन और आफ लाइन दाखिला विवाद का विषय बन गया हैकुलपति ने केन्द्र सरकार की दखल के कारण ही इस्तीफे तक की चेतावनी दी थी। उत्तराखण्ड में कांग्रेस का साथ देने के पक्ष में मतदान के बारे में  मायावती ने कहा कि साम्प्रदायिक ताकतों को कमजोर करने के लिए ऐसा किया गया।


इस प्रकार मायावती ने बसपा के उद्देश्यों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया और बताया कि पार्टी को जातिवादी रूप देने की एक साजिश है वस्तुतः पार्टी समाज के दबे-कुचले लोगों जिनमें विशेष रूप से दलित हैं को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए आंदोलन चला रही हैआंदोलन के केन्द्र बिन्दु दलित हैं इसलिए योजनाएं भी उनको फोकस करके ही बनायी जाती हैं। उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार के दौरान अम्बेडकर ग्राम योजना और दलितों के आरक्षण पर बसपा इसीलिए विशेष जोर देती है। बसपा की सरकार के दौरान ही प्रोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था लागू की गयी थी जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अवैध बताया और प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार ने प्रोन्नति में आरक्षण व्यवस्था को न सिर्फ रोक दिया बल्कि ऐसे प्रोन्नत अफसरों को पुनः उनके पूर्व पद पर तैनात कर दिया।  मायावती चाहती है कि केन्द्र की सरकार ऐसा कानून बनाए जिससे प्रोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था फिर से लागू हो सके।


इस प्रकार बसपा का यह सामाजिक मूवमेंट कुछ भटकता हुआ दिख रहा हैयह ठीक है कि समाज में दलितों को सामाजिक-आर्थिक रूप से ऊपर उठाने का उनकी पार्टी प्रयास कर रही है लेकिन जो लोग सामाजिक, आर्थिक रूप से सम्पन्न हो चुके हैं उनके बारे में स्पष्ट रणनीति का अभाव दिख रहा है। समाज में सिर्फ दलित वर्ग के लोग ही नहीं हैं बल्कि अन्य जातियों के लोग भी पिछड़े हुए हैं उनको भी आगे बढ़ाने का आंदोलन सुश्री मायावती को चलाना पड़ेगा। बसपा सामाजिक मूवमेंट तभी बन सकेगी जब उसके दायरे में दलित ही नहीं अन्य जातियों के लोगों को भी शामिल किया जाये और उनकी वकालत उसी तरह की जाए जैसी दलितों की की जा रही है।


धनगर चेतना , अप्रैल-मई 2016