धर्म, आरक्षण और धनगर विमर्श

 


बीजेपी अपने पूर्वावतार जनसंघ के रूप में 1977 में केन्द्र की सत्ता में भागीदार हुई । हिंदू धर्म के प्रचार ने तब से सही गति पकड़ी है । 1977 के सत्ता परिवर्तन में ओबीसी जातियों ने बड़ी भूमिका निभाई थी । 1980 के दशक में बहुजन आंदोलन ने जोर पकड़ा, 1990 में ओबीसी आरक्षण घोषित हुआ तो बीजेपी ने रथ यात्रा शुरू कर दी जिसे मंडल विरुद्ध कमंडल आंदोलन के नाम से जाना गया । यह वास्तविकता है कि 1977 से लेकर 2018 तक के इस दौर में हिंदू धर्म बहुत ही आक्रामक रूप धारण कर चुका है । धर्म के रखवाले धर्म के मुद्दे तय कर रहे हैं जिनका पालन छोटी बहुजन जातियाँ कर रहीं हैं ।  


हिंदू भक्त धनगर-गडरिये


अपनी खुद की रोटी, रोजगार व सत्ता की चिन्ता को छोड़कर ये छोटी बहुजन जातियाँ हिंदू-मुस्लिम नारे में फँस गई हैं तथा धर्म-रक्षकों की ऐय्याशी एवं सत्ता का शाश्वत प्रबंध कर रही हैं । इनमें भी धनगर-गड़रिया जाति धर्म की सबसे बड़ी रक्षक बनी नजर आ रही है । जबकि अहीर, जाट, कुर्मी, गूजर, लोधी, कुशवाहा जैसी अपेक्षाकृत अगड़ी जातियाँ धर्म की अंधी भक्ति न करके सत्ता के सुख में साझीदार बन रही हैं । धनगर-गडरिया कोरी भक्ति में लीन है । वह बाबरी का सुरेश बघेल है या फिर उड़ीसा में जाकर रवीन्द्र पाल उर्फ दारा बनता है जो सत्ता का नहीं बल्कि सजा का हकदार बनता है । धनगर-गड़रियों की युवा पीढ़ी जिसे न तो हिंदू धर्म का इतिहास, न भारत का सांस्कृतिक इतिहास मालूम है और न जिसने हिंदू धर्म का जातिवादी स्वरूप देखा है । वह धर्म के रखवालों की गिरफ्त में आ चुकी है । उनके उन अभिभावकों से जिन्होंने जातिवाद को देखा व झेला है, हम आशा करते हैं कि वे भावी पीढ़ी को हिंदू धर्म में अपनी जातिगत हीनत्व की स्थिति से जरूर अवगत कराएं ।


हिंदू सत्ता की नीति-रीति क्या है


मैं बताना चाहता हूँ कि हिंदू धर्म की सत्ता भयंकर रूप से खतरनाक, क्रूर तथा अमानवीय रही है । हिंदू धर्म का एकमात्र आधार वर्णवाद यानी जाति ही है । हिंदू धर्म के सारे के सारे नियम विधान, नीतियां, संस्कार, आचरण, सिद्धांत आदि केवल और केवल जातिवाद को ही पुष्ट करते हैं जहाँ शूद्रों को न शिक्षा का, न संपत्ति का, न भोजन का, न वस्त्र का और न सम्मान का अधिकार दिया गया है । भारत का सामाजिक इतिहास इस बात का गवाह है कि जब-जब हिंदू धर्म प्रबल रहा है इस देश की बहुजन शूद्र जनता का जीवन रौरव नर्क जैसा रहा है । गौतम बुद्ध के चलाए बौद्ध धर्म के समय में ही शूद्र जातियों को सम्मानपूर्वक जीने के अधिकार मिले थे जिसे मौका पाते ही हिंदुत्ववादियों ने समाप्त कर दिया । इसके बाद अंग्रेजों ने शूद्रों को मानवीय अधिकार देना चाहा तो उन्हें इस देश से भगाने का आंदोलन चला दिया गया । मजे की बात ये है कि अंग्रेजों से हिंदू धर्म की रक्षा यही बहुजन कर रहे थे । राजे महाराजे और दलित आजादी के पक्ष में नहीं थे । आजादी सवर्ण ही चाहते थे जिनके हित की लड़ाई बहुजनों ने लड़ी ।  


सत्ता में सवर्ण ही 


भारत के पूरे इतिहास में धर्म, शिक्षा, धन एवं राजनीति की सत्ता पर सवर्ण जातियों का ही एकाधिकार रहा है । देश की सर्वोच्च सत्ता भले ही शकों, हूणों, तुर्कों, अफगानों, मुगलों या अंग्रेजों के हाथ में रही हो, आम जनता के ऊपर वास्तविक सत्ता सवर्णों के ही हाथ में थी । बहुजनों के हाथ में सत्ता आने के अवसर लोकतंत्र ने दिए जरूर हैं जो सवर्णों को पसंद नहीं हैं । कट्टर हिंदूवाद बहुजनों को सत्ता के किसी भी क्षेत्र में आने से रोकता है । हम जानते भी हैं कि हिंदूवादी बीजेपी सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, व्यवसाय योजनाओं में राशियाँ कम कर दी हैं । इसका असर गरीब ओबीसी जातियों पर ही पड़ेगा । अहीर, कुर्मी, जाट जैसी जातियाँ सत्ता में भागीदारी पा चुकी हैं लेकिन असली खतरा निचली बहुजन जातियों को है जो सत्ता से अभी तक दूर हैं, और भी ज्यादा दूर हो जाएंगीं ।


बीजेपी की सत्ता का कमजोर जातियों पर असर


आज हिंदूवादी पार्टी बीजेपी की सत्ता है जो रोटी रोजी के बजाए हिंदू-मुस्लिम की बात कर रही है । संकेत साफ हैं कि 2019 में अगर फिर से बीजेपी सत्ता में आई तो ओबीसी बहुजन जातियों की आर्थिक हालत बुरी तरह बिगड़ेगी । धार्मिक उन्माद गृह-युद्ध को जन्म देगा जिसमें धनगर-गडरियों को ही सबसे अधिक नुकसान उठाना पड़ेगा । इस समाज में गरीबी, अशिक्षा, आपसी वैमनस्य, व नासमझी सबसे अधिक है । हिंदू–मुस्लिम मुद्दा गृहयुद्ध को खुला आमंत्रण दे रहा है । इसका शिकार भी धनगर-गडरिया समाज होगा, हुआ भी है । इसलिए आवश्यक है कि धर्म की राजनीति में न पड़ा जाए तथा बीजेपी जैसी कट्टर हिंदूवादी पार्टी को सत्ता में आने से रोका जाए ।


मुसलमानों से खतरा


बीजेपी हिंदूओं की रक्षा करेगी यह बात भी निरा झूठ है । देश को मुसलमानों से खतरा है यह बात भी गलत है । इतिहास गवाह है कि हिंदू को हिंदू ने मारा है । महात्मा गांधी को, इंदिरा को, राजीव को, दाभोलकर को, कलबुर्गी को, पानसरे को और गौरी लंकेश को मुसलमानों ने तो नहीं मारा ? अभी बुलंदशहर में पुलिस अधिकारी सुबोध सिंह को तथा अमित सिंह को किसने मारा ? आज भी अछूतों, दलितों को कौन पीटता है ? हिंदू ही न ? गौ हत्या कौन करता है ? गौ की रक्षा तो उसे पालने वाला करता ही है । कोई गाय लूटता तो है नहीं । धनगर-गडरिया तो गोपालक है ही । हमने भी गाय पाली है । हमने कभी मुसलमानों को गाय चुराते या लूटते नहीं देखा । हाँ जबसे बीजेपी ने हंगामा खड़ा किया है तबसे सांड़ और गौ के झुंड खेतों में घूम रहे हैं । किसान परेशान हैं । सांड़ कई आदमियों की जान भी ले चुके हैं ।


क्या हमें यही चाहिए कि धर्म के रखवाले सत्ता भोगें और हम रोटी के बजाए हिंदू-मुस्लिम के झगड़े के लड़ाकू सिपाही बनें, जेल जाएं या मरें । मैं चाहता हूँ कि धनगरों-गडरियों को मेरी बात पर गौर करना चाहिए ।


आरक्षण पर बीजेपी


कौन नहीं जानता कि बीजेपी आरक्षण विरोधी पार्टी है । कई बार बीजेपी नेता बोलकर भी आरक्षण का विरोध करते रहे हैं । इस बात में किसी को भी, तनिक भी शंका नहीं होनी चाहिए कि बीजेपी आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था के रहते हुए भी आरक्षण को खत्म कर रही है । भले ही बीजेपी धनगरों के कुछ व्यक्तियों के प्रमाणपत्र बनवा कर उन्हें मंत्रीपद या अन्य पद प्रदान कर दे लेकिन बीजेपी से वास्तविक लाभ की आशा करना निरर्थक है । संविधान की ऐसी हर व्यवस्था को जिसमें दलित, आदिवासी, ओबीसी व अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा की बात है, बीजेपी सरकार उसे बेअसर कर रही है । अब तो संघ लोक सेवा आयोग की संवैधानिकता को ध्वस्त करते हुए वरिष्ठ आईएएस स्तर के अफसर भी बिना आरक्षण के नियुक्त किए जा रहे है । बीजेपी की किसी भी सरकार ने धनगरों को मिलने वाले आरक्षण को भी जानबूझकर लागू नहीं किया है । उ. प्र. में आशा की जा रही थी कि धनगरों के प्रमाणपत्र बनाने में रुकावटें समाप्त हो जाएंगी लेकिन हालत सपा सरकार से भी अधिक खराब हो गई है । महाराष्ट्र में बीजेपी सरकार धनगरों को पिछले साढ़े चार साल से लगातार मूर्ख बनाती आ रही है । मुंबई हाई कोर्ट में धनगर आरक्षण के लिए जो याचिका चल रही है उसमें बीजेपी सरकार अडंगे डाल रही है ।


देश के 14 राज्यों में धनगरों को आरक्षण प्राप्त है, उन अधिकांश राज्यों में बीजेपी की ही सरकार भी हैं, लेकिन किसा भी राज्य में बीजेपी सरकार ने धनगरों को न्याय नहीं दिया है । धनगर-गडरिया समाज यदि यह सोचता है कि बीजेपी हमें न्याय देगी तो यह पूरा भ्रम है ।


धनगर विरोधियों को हराना होगा


उत्तर प्रदेश के धनगर समाज ने पिछले चुनावों में धनगर विरोधी सरकारों को हराने में निर्णायक भूमिका निभाई है । बसपा, सपा को हराकर बदला लिया है । महाराष्ट्र के धनगरों का आरक्षण लागू करने के लिखित वादे और मोदी जी के भावनात्मक भाषणों के सम्मोहन में धनगरों ने बीजेपी को इस उम्मीद के साथ वोट दिये कि उत्तर प्रदेश में भी प्रमाण-पत्र बनने में उनको बीजेपी का सहयोग मिलेगा । लेकिन बीजेपी का जो असली रूप सामने आया है वह भयंकर रूप से धनगर विरोधी है । इसका बदला धनगर 2019 के चुनावों में बीजेपी को हराकर लेंगे इसमें मुझे संदेह नहीं है ।  


न्याय और संवैधानिक अधिकारों को पाने के लिए धनगर समाज ने आपसी मतभेदों को दरकिनार करते हुए एकजुट होकर प्रयत्न करने होंगे अन्यथा प्रमाण-पत्र बनने में अड़चनें आती ही रहेंगी । इस बारे में समाज का नेतृत्व करने की विश्वसनीय योग्यता श्री जे पी धनगर में है जिसका उपयोग धनगर समाज के लोगों ने करना चाहिए ।                 


उ. प्र. में आरक्षण आखिर है किसके लिए ?


इस प्रश्न पर चर्चा इसलिए जरूरी है, ताकि उन लोगों के तर्क का उत्तर दिया जा सके जो कहते हैं कि हैं कि धनगर आरक्षण किसी जिले विशेष के धनगरों के लिए है न कि गडरिया की उपजाति के धनगरों के लिए । कई लोग यह भी कहते हैं कि आरक्षण धांगड़ के लिए है । जो लोग धांगड़ का तर्क देते हैं उनका तर्क न्यायालय में गलत सिद्ध हो चुका है । उ. प्र. तथा उत्तराखंड की अनुसूचित जाति की सूची में 27 क्रमांक पर जिस आरक्षण की हम यहाँ बात कर रहे हैं, वह अनुसूचित जाति धनगर को 1923 से ही प्राप्त है । 1923 से लेकर आज तक धनगर पूरे उत्तर प्रदेश के लिए डिप्रैस्ड क्लास या अनुसूचित जाति की सूची में लगातार चला आ रहा है ।


केन्द्र की सूची में धांगड़ की जगह धनगर किया जाना 2012 से ही लंबित पड़ा हुआ है । धनगर लोगों ने केन्द्र की सूची में धांगड़ की जगह धनगर कराने पर ध्यान देना चाहिए था, सो उन्होंने दिया नहीं । यही वजह थी कि कठेरिया ने अड़चन डालने की कोशिश कर दी । कठेरिया का यह काम कानूनी तौर पर पूरी तरह गलत था, जिसे कोर्ट में भी चुनौती दी जा सकती थी । धनगर समाज में यदि समझदारी व मजबूती होती तो इसी बात पर कठेरिया को कुर्सी से हाथ धोना पड़ सकता था । यह केवल समाज की कमजोरी ही है कि मामला आज तक लंबित पड़ा है अन्यथा सरकार खुद ही इसे कब का हल कर देती ।


धनगर और गडरिया का विवाद


अब बात धनगर गडरिया के बीच की आती है । जैसा हमने पहले ही कहा है कि सूची में जो नाम है उसी को आरक्षण पाने का हक है । सूची में नाम धनगर दर्ज है तो आरक्षण धनगर को ही मिल सकता है । महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि धनगर है कौन । लोगों को मालूम होना चाहिए कि न्यायालय के रिकॉर्ड में भी स्पष्टता के साथ दर्ज है कि धनगर गडरिया की एक उपजाति है और संविधान उपजाति को आरक्षण का हक देता है । अर्थात गडरिया की उपजाति धनगर को जो आरक्षण का हक मिला है वह उसको मिलना चाहिए । उत्तर प्रदेश में गडरिया मुख्य पेशागत जाति है जिसके अंतर्गत कई अन्य उपजातियाँ भी हो सकती हैं, तथा हैं, लेकिन वे इस आरक्षण की हकदार नहीं हैं । गडरिया जाति का जो व्यक्ति अपने आपको धनगर कहेगा व सिद्ध कर देगा वह धनगर है, उसको ही अनुसूचित जाति माना जाएगा ।


गडरिया को लिस्ट में जुड़वाना संभव नहीं है


कई लोगों का सोचना यह है कि धनगर के साथ सूची में गडरिया भी जुड़वा लेना चाहिए । यदि यह समाज बौद्धिक रूप से जागरूक होता तो गडरिया शब्द 1950 के बाद के दस-बीस वर्षों में सूची में जुड़ भी सकता था । एससी एसटी की लिस्ट में नाम जुड़वाने के नए नियम 1999 में तथा 2002 में आए । इनके अनुसार अब  धनगर के साथ गडरिया को अब जुड़वा पाना पूरी तरह असंभव है हो गया है । अब बात यही बचती है कि जो अपनी पहचान धनगर सिद्ध कर पाएगा केवल उसको ही आरक्षण का लाभ मिल पाएगा । आरक्षण के लाभ के लिए धनगरों ने अपने आपको धनगर ही कहना होगा, धनगर ही लिखना होगा और धनगर ही प्रचारित भी करना होगा । बाकी तो, किसी काम को करने के लिए साम, दाम, दंड और भेद यही चार तरीके अपनाए जाते रहे हैं ।    


पाल बघेल शब्दों का मोह


धनगर समाज के अधिकांश लोगों की मानसिकता बनी हुई है कि आरक्षण का लाभ तो चाहिए लेकिन अपनी पहचान बघेल, पाल या गडरिया नहीं छोड़ेंगे । ऐसे लोग अगर धनगर अनुसूचित जाति के आरक्षण का लाभ ले भी लेंगे तो बाद में उनको समस्या झेलनी पड़ेगी । धनगर के अलावा जातीय पहचान वाले अन्य सभी नाम तुरंत प्रभाव से बोलचाल में, व लिखने लिखाने में त्यागने होंगे । जो लोग धनगर नीखर की चर्चा कर रहे हैं वे लोग वास्तव में समाजद्रोही माने जाने चाहिए । वास्तविकता यह है कि हिंदुत्ववादी ताकतों के चंगुल में आकर सन 1935 के बाद से पाल बघेल जैसे निराधार नाम अपना लिए गए तथा धनगर नाम विलुप्त-सा कर दिया गया । पाल या बघेल उपनाम हो सकते हैं जाति नहीं । अब जरूरत है कि फिर से धनगर नाम को व्यवहार में लाया जाए और अनुसूचित जाति को मिलने वाले लाभ प्राप्त किए जाएं ।


महाराष्ट्र में धनगर आरक्षण की स्थिति


Dhangad महाराष्ट्र में अनुसूचित जनजाति की सूची में है जिसे राज्य सरकार ने धनगड तथा केन्द्र ने धांगड़ लिख रखा है । Dhangar ओबीसी की लिस्ट में है जिसे राज्य ने धनगर व केन्द्र ने धांगर लिख रखा है । Dhangad नाम की कोई जाति या जनजाति भारत में अस्तित्व में नहीं है । सब कुछ गड़बड़ है । मोदीजी ने तथा बीजेपी के वर्तमान मुख्यमंत्री ने 2014 में धनगरों को अनुसूचित जनजाति का आरक्षण सत्ता में आने के केवल 15 दिन के भीतर ही लागू करने का बादा किया था । सत्ता में गुजारे अबतक के चार साढ़े चार सालों में बीजेपी सरकार आरक्षण लागू करने के बजाए उसे रोकने का काम ज्यादा चालाकी से कर रही है । धनगर युवक बीजेपी से अब नाराज हैं ।


मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की स्थिति


म. प्र. एवं छत्तीसगढ़ में महाराष्ट्र की ही तरह, राज्य में धनगड तथा केन्द्र में धांगड़, अनुसूचित जनजाति की सूची में दर्ज है । म. प्र. के धनगर-गडरिया समुदाय के अखिल भारतीय स्तर के अगुआ सामाजिक नेता हद दर्जे के अज्ञानी तो हैं ही, नितांत मूर्ख भी है । उनके रहते इस विषय पर किसी ने कोई काम आज तक नहीं किया है । जमीनी स्तर के कुछ लोग अब इस विषय पर जरूर सोचने लगे हैं । मध्य प्रदेश में धनगर घुमक्कड़ जनजाति की लिस्ट में शामिल था । राज्य सरकार ने श्री कचरूलाल चड़ावत जी की कोशिशों पर एवं ओबीसी आयोग के अध्यक्ष श्री राधेलाल बघेल के सहयोग से अभी कुछ समय पहले घुमक्कड़ जनजाति की सूचीं में धनगर की उपजातियों यथा गडरिया, गायरी आदि को भी इस लिस्ट में शामिल कर लिया है । कई लोगों को भ्रम है कि इससे गडरिया समाज को ओबीसी आरक्षण से वंचित होना पड़ेगा तो कई लोग यह मान रहे हैं कि उनको अनुसूचित जनजाति में शामिल कर लिया गया है । यो दोनों की बातें गलत हैं । घुमक्कड़ जनजातियों को राज्य की योजनाओं में ओबीसी की अपेक्षा कुछ अधिक आर्थिक लाभ मिलेंगे । यदि प्रयत्न किए जाएं तो महाराष्ट्र की तरह मध्य प्रदेश सरकार भी इनको ओबीसी आरक्षण कोटे में से अलग स्वतंत्र हिस्सा दे सकती है ।


बिहार और झारखंड


बिहार एवं झारखंड दोनों राज्यों में Dhangad अनुसूचित जाति की सूची में दर्ज है तो Dhangar(Oraon) अनुसूचित जनजाति की सूची में है । 2015 तक इनकी हिंदी सूची नहीं थी । हम 2015 में बिहार की धनगर महासभा के लोगों को लेकर मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार से मिले तो उन्होंने अनुसूचित जनजाति की सूची में Dhangar को धनगर/धांगर कर दिया लेकिन दिल्ली की बीजेपी सरकार के आदेश पर अगले ही साल इसे धांगड़ कर दिया गया । हम फिर उनसे मिले लेकिन कुछ नहीं हुआ । आज बिहार में धांगड़ अनुसूचित जाति भी है, तथा धांगड़ ही अनुसूचित जनजाति भी है । क्या एक ही जाति एक ही राज्य में दो दो वर्गों में आरक्षित हो सकती है । अंग्रेजी में एक सूची में  Dhangad है जो अस्तित्वहीन है, तो दूसरी सूची में Dhangar है जो हमारे पास उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार सन 1838 से ही सरकार के दस्तावेजों में दर्ज है । धनगरों के साथ सरासर अन्याय होता आ रहा है और आज भी सरकारों में धनगरों की कोई सुनने वाला नहीं है ।


बंगाल और उड़ीसा


बंगाल में Dhangad धांगड़ अनुसूचित जाति की सूची में दर्ज है तो उड़ीसा में Dhangar अनुसूचित जनजाति की सूची में हैं । इनका हिंदी रूपांतर उपलब्ध नहीं है । हम यहाँ बताना चाहेंगे कि बंगाल के लिए 1955 में Dhangar को अनुसूचित जाति में शामिल करने की सिफारिश की गई थी लेकिन Dhangar की जगह सूची में शामिल हुआ Dhangad । जबकि Dhangad  नाम की जाति या जनजाति भारत में कहीं भी अस्तित्व में नहीं पाई गई थी । इसे साजिश कहें या कुछ और ।


अन्य राज्य


दिल्ली, गुजरात, गोवा, कर्नाटक, दमनदीव आदि में धनगर (Dhangar) ओबीसी में शामिल हैं । इस तरह हम देखते हैं कि देश के 14 राज्यों में धनगर (Dhangar) समाज आरक्षण की किसी न किसी सूची में शामिल है । धनगरों की अच्छी खासी आबादी राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, चंडीगड, तेलांगना और आंध्र में भी उपलब्ध है । एक ही नाम से शायद ही कोई समाज इतने राज्यों में जाना जाता होगा । आवश्यकता है सामाजिक जुडाव की ताकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनसंख्या के महत्व को रेखांकित कराते हुए संवैधानिक अधिकारों को प्राप्त किया जा सके ।


सरकारों की भूमिका


राज्यों में और केन्द्र में सरकारें बनी और बदलीं हैं । हम नहीं कह सकते कि अमुक सरकार धनगरों की हितैषी थी व अमुक हितैषी नहीं रही । थोड़ा बहुत फर्क जरूर रहा । आरक्षण के मामले में बीएसपी खुले तौर पर धनगरों की विरोधी रही है, ऐसा हम सब जानते हैं । उ. प्र. की सपा सरकार ने धनगरों के हित में जितने आदेश जारी किए सब मजबूरी में ही किए, अपने आप खुशीखुशी एक भी आदेश जारी नहीं हुआ । यदि सपा सरकार धनगर प्रमाणपत्र बनवाने में रुचि दिखाती तो धनगर उससे नाराज नहीं होता । 2014 और 2017 के चुनाव में धनगर वोट सपा से दूर हो गया । आज केन्द्र में भी, उ. प्र. में भी, और महाराष्ट्र में भी बीजेपी की सरकार है, लेकिन न तो महाराष्ट्र में बीजेपी ने अपना, लिखित वादा तक, पूरा नहीं किया है और न उ. प्र. में धनगरों के प्रमाणपत्र बनवाने में कोई ठोस भूमिका निभाई है ।


क्रांति दृष्टा जे पी धनगर


1990 के दशक में पाल महासभा के लिए काम कर रहे श्री जे पी धनगर को मैंने धनगर मुद्दे पर काम करने के लिए कहा । तब से लेकर आज तक जे पी धनगर ने उत्तर प्रदेश में आंदोलनों का अनवरत दौर चालू किया हुआ है । निरंजन सिंह धनगर(मथुरा) ने भी इस मुद्दे पर काम किया परंतु जे पी धनगर आज भी लगातार काम कर रहे हैं । वे धनगर आंदोलन का पर्याय बन चुके हैं । उनकी सफलताओं की गूँज उ. प्र. में ही नहीं बल्कि पूरे देश में सुनी जा रही है । उनकी इस बढ़ती हुई लोकप्रियता के कारण कुछ लोगों को उनसे ईर्ष्या होने लगी है । दर्जनों नए संगठन पैदा हो गए हैं । जिस गड़रिया शब्द के उच्चारण को सुनकर गड़रिया लोग सहम व सिकुड़ जाते थे, और जिस शब्द को त्यागने की सौ साल से कोशिश हो रही थी, बहुत से लोग आज उसी गड़रिया शब्द पर अचानक मोहित हो उठे हैं । कुछ लोग अंग्रेजी का ज्ञान जताते हुए शैफर्ड नाम के संगठन बना बैठे हैं । इतना ही नहीं, भेड़ जैसे निरीह, दब्बू जानवर के पालक लोग टाइगर बनने की कोशिश कर रहे हैं । यह सब किसलिए हो रहा है । केवल नाम कमाने के लिए और समाज को धनगर आंदोलन से तोड़ने के लिए । इनमें गैर-धनगर गडरिये ही नहीं, बल्कि धनगर भी शामिल हैं ।  


पत्रिकाओं की भूमिका


किसी भी समाज की जागरूकता, बौद्धिक विकास, आर्थिक सामाजिक प्रगति और राजनीतिक चेतना के लिए सामाजिक पत्रिकाओं की अपरिहार्य आवश्यकता होती है । सोशियल मीडिया के व्यापक उपयोग के समय में लिखित पत्रिकाओं की भूमिका और भी अधिक जरूरी हो गई है क्योंकि फेसबुक, वाट्सैप और टीवी की खबरों की विश्वसनीयता संदेहजनक होने लगी है । लेखकों, विचारकों व कवियों की लिखित सामग्री विश्वसनीय, प्रामाणिक तथा संग्रहणीय होती है जिसकी बराबरी दूसरा कोई माध्यम नहीं कर सकता ।


जहाँ तक धनगर समाज की प्रकाशित हो रही पत्रिकाओं का प्रश्न है, कोई भी पत्रिका सामाजिक उपयोगिता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती । खेद है कि संपादकों की पूरी निष्ठा के बावजूद सामाजिक पत्रिकाओं में बौद्धिकता, क्रांतिकारी विचारधारा, तार्किकता व वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने वाली सामग्री का अभाव रहता है । कई पत्रिकाएं तो धनगर मुद्दे के विरोध में खड़ी हुई भी दिखाई देती हैं । एकाध ऐसी भी है जो दैनिक अखबारों से उठाकर सामग्री छाप रही है । इसका मतलब यह भी हो सकता है कि या तो समाज में लेखकों, विचारकों की कमी है या संपादक लोग उनसे लिखवाना नहीं चाहते ।


हो सकता है कि हर पत्रिका मेरी नजर में नहीं आई हो, लेकिन मेरा विश्वास है कि पत्रिकाओं के संपादक अपने सामाजिक दायित्व से अनभिज्ञ हैं, इसीलिए धनगर समाज की पत्रिकाएं अपने सामाजिक उद्देश्य को पूरा नहीं पा रही हैं ।


डॉ जे पी बघेल, पीएच.डी.


ईमेल – drjpbaghel@gmail.com