अमीरी-गरीबी की खाई को पाटने का मंथन हो 

 



भारत के अमीर और ज्यादा अमीर होते जा रहे हैं, गरीब और ज्यादा गरीब। इस बढ़ती असमानता से उपजी चिंताओं के बीच देश में करोड़पतियों की तादाद तेजी से बढ़ रही है। एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक साल में भारत में मिलियनेयर क्लब यानी करोड़पतियों के क्लब में 7,300 नए जुुड़े हैं। इस तरह देश में करोड़पतियों की तादाद 3.43 लाख हो चुकी है, जिनके पास सामूहिक रूप से करीब करीब 441 लाख करोड़ रुपये की दौलत है। इस रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि भारत के मात्र नौ अमीरों के पास जितनी संपत्ति है वह देश की आधी आबादी के पास मौजूदा कुल संपत्ति के बराबर है। इस तरह धन एवं संपदा पर कुछ ही लोगों का कब्जा होना, अनेक समस्याओं का कारक हैं, जिनमें बेरोजगारी, भूख, अभाव जैसी समस्याएं हिंसा, युद्ध एवं आतंकवाद का कारण बनी है। अराजकता, भ्रष्टाचार, अनैतिकता को बढ़ावा मिल रहा है।


चिंताजनक तथ्य यह है कि गरीब की गरीबी दूर नहीं हो रही। गरीब और अमीर के बीच खाई लगातार चैड़ी होती जा रही है। इस बढ़ती खाई की त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थिति और भी भयावह बनती जा रही है। वास्तव में यह स्थिति है कि करोड़ों लोगों को भरपेट खाने को नहीं मिलता। वे अभाव एवं परेशानियों में जीवन निर्वाह करते हैं। प्राचीन समय में आदमी गरीबी एवं भूख से मर जाता था। आज उसे मरने भी नहीं दिया जाता, दुःख, अभाव, पीड़ा एवं भूख भोगने के लिये जिन्दा रखा जाता है। क्योंकि कोई मरता है तो सरकार के लिये खतरा पैदा होता है, उसकी सफलताओं पर बदनुमा दाग लगता है, उसकी निन्दा-आलोचना होता है। वह तो मरने के लिये भी स्वतंत्र नहीं है और गरीबी भोगते हुए जिन्दा रहने के लिये अभिशप्त है। यह कैसा सुशासन है? यह कैसी समाज-व्यवस्था है? इस स्थिति को तब तक नहीं बदला जा सकता, जब तक स्वामित्व के सीमाकरण को स्वीकार नहीं किया जाता। 


कह तो सभी यही रहे हैं--”बाकी सब झूठ है, सच केवल रोटी है।“ रोटी केवल शब्द नहीं है, बल्कि बहुत बड़ी परिभाषा समेटे हुए है अपने भीतर। जिसे आज का मनुष्य अपनी सुविधानुसार परिभाषित कर लेता है। रोटी कह रही है-”मैं महंगी हूँ तू सस्ता है।“ यह मनुष्य का घोर अपमान है। रोटी कीमती, जीवन सस्ता। मनुष्य सस्ता, मनुष्यता सस्ती। और मनुष्य अपमानित नहीं महसूस कर रहा है। यह सबसे बड़ा खतरा है। जीवन मूल्यहीन और दिशाहीन हो रहा है। हमारी सोच जड़ हो रही है। इन्हीं विषम एवं विसंगतिपूर्ण स्थितियों के बीच अमीरों को ही महिमामंडित किया जा रहा है। ऐसा ही एक अमीरों का आयोजन स्विट्जरलैंड के शहर दावोस में होने जा रहा है, यह विश्व आर्थिक मंच का सम्मेलन है जिसमें दुनिया के प्रमुख नेता, उद्योगपति और अर्थशास्त्री समूचे विश्व की आर्थिक हालत और भविष्य की चुनौतियों पर चर्चा करेंगे। अमीरों की जमात का यह सम्मेलन हर साल इसी शहर में होता है और तभी पता भी लगता है कि दुनिया के अमीर-गरीब का हाल क्या है। इस सम्मेलन से ठीक पहले दुनिया से गरीबी दूर करने का बीड़ा उठाने वाले संगठन आॅक्सफेम ने अपनी रिपोर्ट जारी की है। जिसमें अमीरों की वैभव-संपत्ति, रुपए-पैसे में और इजाफा होने की बात कही गयी है। यह खबर चैंकाने वाली नहीं है कि अमीर पहले के मुकाबले और बड़े धनपति हो रहे हैं। चैंकाने वाली बात यह है कि पिछले साल भारत के अरबपतियों की संपत्ति में रोजाना बाईस अरब रुपया इजाफा हुआ और एक फीसद अमीरी की संपत्ति तो साल भर के भीतर उनतालीस फीसद तक बढ़ गई और नौ अमीरों ने देश की आधी आबादी के पास मौजूद कुल संपत्ति के बराबर अपना खजाना भर लिया। दूसरी ओर गरीबों की संपत्ति का ग्राफ मात्र तीन फीसद बढ़ा। 


विचारणीय तथ्य तो यह है कि भारत में अमीरों की चांदी उस वक्त में हुई जब देश की अर्थव्यवस्था खस्ताहाली के संकेत दे रही है, औद्योगिक उत्पादन उत्साहवर्धक नहीं रहा, सरकारी और निजी क्षेत्र, दोनों में ही नौकरियां तेजी से खत्म की जा रही हैं और बेरोजगारों की फौज बढ़ती जा रही है। पिछले साल कई महीनों तक रुपया अमेरिकी डाॅलर के मुकाबले कमजोर पड़ा रहा, पेट्रोल-डीजल ने लोगों के पसीने छुड़ा दिए थे और देश का कृषि क्षेत्र और अन्नदाता किसान अपनी बदहाली पर आज भी रो रहा है। देश के युवा सपने चरमरा रहे हैं। इन जटिल हालातों में सवाल है कि अमीरों के इस बढ़ते खजाने पर किसको और क्यों खुश होना चाहिए? ऐसी कौनसी ताकते हंै जो अमीरों को शक्तिशाली बना रही है। गरीबी को मिटाने का दावा करने वाली सरकारें कहीं अमीरों को तो नहीं बढ़ा रही है? जीएसटी एवं नोटबंदी के कारण जटिल होते हालातों के बीच इन तथाकथित अमीरों की सम्पत्ति का एवं अमीरी का बढ़ना सरकार की नीतियों पर एक सन्देह पैदा करता है। 


समस्या दरअसल गरीबी को समाप्त करने की उतनी नहीं, जितनी कि संतुलित समाज रचना को निर्मित करने और मिलने वाले लाभ के न्यायसंगत बंटवारे की है। समृद्धि के कुछ द्वीपों का निर्माण हो भी गया तो कोई देश उनके बूते दीर्घकालीन तरक्की नहीं कर सकेगा। उसके लिए संसाधनों और पूंजीगत लाभ के तार्किक वितरण पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। यदि समय रहते समुचित कदम नहीं उठाए गए तो विषमता की यह खाई और चैड़ी हो सकती है और उससे राजनैतिक व सामाजिक टकराव की नौबत आ सकती है।


भारत के समक्ष चुनौतियां गंभीर है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी और सार्वजनिक सेवाओं के मोर्चे पर सरकारें एकदम नाकाम रही हैं। उच्च शिक्षा क्षेत्र इतना महंगा कर दिया गया है कि अब आम भारतीय परिवार बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाने के बारे में सोच भी नहीं सकता। यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि आने वाले वक्त में भारत के गरीब तबके की तस्वीर कैसी होगी। यह सोच कर खुश हुआ जा सकता है कि हम दुनिया की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बनने की ओेर अग्रसर हैं, फ्रांस को पछाड़ चुके हैं और ब्रिटेन को पीछे छोड़ने वाले हैं, लेकिन इसके स्याह पहलू को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। समावेशी विकास हो या फिर मानव पूंजी सूचकांक, भारत अपने छोटे पड़ोसी देशों से भी पीछे है। दरअसल भारत अब अमीरों की मुट्ठी में है। नीतियां अमीरों के लिए ही बन रही हैं और इनका असर भी साफ नजर आ रहा है। कर्ज पीकर मौज करने वालों की संख्या में इजाफा भी अमीरों की संख्या को बढ़ाता है। ऐसे में गरीबों की तादाद तो बढ़ेगी ही, लेकिन उनकी संपत्ति और ताकत घटेगी। बढ़ती असमानता से उपजी चिंताओं के बीच देश में करोड़पतियों की तादाद का तेजी से बढ़ना खुश होने का नहीं, बल्कि गंभीर चिन्ता का विषय है। गरीबी अमीरी की बढ़ती खाई को पाटकर ही हम देश की अस्मिता एवं अखण्डता को बचा सकते हैं।


इस तरह जब हम देश के सामाजिक और आर्थिक विकास पर नजर डालते हैं तो बड़ी भयानक तस्वीर सामने आती है। आबादी तेजी से बढ़ रही है। महंगाई भी तेजी से बढ़ी है। इन दोनों कारणों से गरीबी भी बढ़ रही है। आज भी देश की आधी से अधिक आबादी को भोजन-वस्त्र के अलावा पानी, बिजली, चिकित्सा सेवा और आवास की न्यूनतम आवश्यकताएं भी उपलब्ध नहीं है। सवाल इस बात का है कि क्या आर्थिक विकास की वर्तमान प्रक्रिया से यह तस्वीर बदल सकती है? हमारी वर्तमान विकास की नीति का लक्ष्य और दर्शन क्या है? देश की पच्चीस फीसदी आबादी शहरों में रहती है। ग्रामीण क्षेत्रों का भी संपन्न वर्ग शहरी क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है। यदि हमारी कोई व्यवस्था है तो वह इन्हीं लोगों से बनी हुई है। इसका दर्शन शिक्षित और आर्थिक दृष्टि से संपन्न वर्ग का दर्शन है। इसका लक्ष्य है कि जितना भी हमारे पास है, उससे अधिक हो, अमीर और ज्यादा अमीर हो। 


सारी राजनीति, सारी शिक्षा, सारे विशेषाधिकार शहरी आबादी या कुछ खास धनाढ्य परिवारों तक सीमित हैं। इनमें पूंजीपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, कारपोरेट प्रबंधकों, सरकारी नौकरशाहों, नेताओं आदि उच्च स्तर के लोगों को गिना जाता है। गैर कानूनी आय और काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था से जुड़ी आबादी भी इनमें शामिल है। इसी कारण बहुत से लोग बेरोजगार हैं या रोजगार की तलाश में हैं। आम जन-जीवन भयभीत करता है। जैसे भय केवल मृत्यु में ही नहीं, जीवन में भी है। ठीक उसी प्रकार भय केवल गरीबी में ही नहीं, अमीरी में भी है। यह भय है आतंक मचाने वालों से, सत्ता का दुरुपयोग करने वालों से जहां है वहां से नीचे उतर जाने का, प्रियजनों की सुरक्षा का। जब चारों तरफ अच्छे की उम्मीद नजर नहीं आती, तब मनुष्य नैतिकता की ओर मुड़ता है तब भय शक्ति देता है। कारण, उस समय सभी कुछ दांव पर होता है।


गरीबी भी शक्ति होती है, भय भी शक्ति होता है। कायरता में से ही साहस पैदा होता है। हर व्यक्ति में अभी तक इतनी सोच नहीं बन सकी। लेकिन हमारे कदम तो उस ओर बढ़ें। गरीबी की रेखाओं के आर-पार जाने के लिए दरवाजे बनाने के लिए। शर्म की रेखा को तोड़ने के लिए। शर्मी और बेशर्मी दोनों मिटें। गरीबी का संबोधन मिटे। तब हम सूर्योदय के नजदीक होंगे।


 


-ललित गर्ग