प्रदूषण से मुक्ति मिलेगी वृक्षारोपण करें


वनों के संरक्षण के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि लोग वनों की उपयोगिता को गंभीरता से समझें। जब हम वन का नाम लेते हैं तब हमारी आंखों के सामने तरह-तरह के हरे-भरे चित्र उभरते लगते हैंइनमें झाडियां, घास, लतांए, वृक्ष आदि विशेष रूप से शामिल होते हैं। वे एक-दूसरे के सहारे जीते हैं और फैलते-फूलते हैं। मात्र यह सोचना कि वन केवल लकड़ी की खानें हैं, गलत है। वन केवल लकड़ी की खानें नहीं है, हानिकारक गैस ‘कार्बन डाइऑक्साइड' की बढ़ती हुई मात्रा को कम करने से वन बडे सहायक होते हैं। वन प्राणरक्षक वायु ‘ऑक्सीजन' की आवश्यकता को पूरा करते हैं, इसलिए वनों का संरक्षण जरूरी है। सच तो यह है कि कल तक जहां वन थे, आज वहां कुछ भी नहीं है।


वनों को जंगल की आग, जानवरों एंव लकड़ी के तस्करों से बचाना होगा। इससे वनों की कई किस्में अपने आप उग आएंगी। वनों का विस्तार करने में पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पक्षियों को अपनी ओर खींचने वाले पेड़ों के आसपास उनके द्वारा लाए हुए बीजों के कारण कई प्रकार के पेड़-पौधे उग आते हैं। यद्यपि पेड़ों को पानी की जरूरत कम से कम होती है, तथापि नए लगाए गए पौधों के लिए कुद समय तक जल की व्यवस्था अत्यंत आवश्यक है। यह व्यवस्था पोखर, तालाब और पहाडी ढालों पर कतार में गड़े बनाकर हो सकती हैइसे वृक्षारोपण कार्यक्रम का एक जरूरी हिस्सा समझना चाहिए।


वनों की विविधता को बनाए रखने के लिए भांति-भांति के पेड़-पौधे, झाडियां और लतांए पुनः रोपनी चाहिए। आज जिस तरह से वनों की कटाई की जा रही है, वह ऋचता का विषय है। वनों से पर्यावरण स्वच्छ बना रहता हैभारत को सन 1947 में स्वतंत्रता मिलीउसके बाद सन 1952 में सरकार ने वनों की रक्षा के लिए एक नीति बनाई थी। उस नीति को ‘राष्ट्रीय वन-नीति' का नाम दिया गया। इस नीति में व्यवस्थांए तैयार की गई। देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 33 प्रतिशत भाग पर वनों का होना आवश्यक माना गया। इसके अंतर्गत पहाडी क्षेत्रों में 60 प्रतिशत भूमि पर वनों को बचाए रखने का निश्चय किया गया तथा मैदानी क्षेत्रों में 20 प्रतिशत भूमि पर। आज स्थिति यह है कि 22.63 प्रतिशत भूभाग पर ही वन हैंकई राज्यों में तो वनों की स्थिति बहुत खराब हैहां, कुछ पहाडी क्षेत्रों में ही वनों का अच्छा-खासा फैलाव है, जैसे-हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, त्रिपुरा आदि।


वन-विभाग के अनुसार वर्ष 1952 के 1972 के बीच 34 लाख हैक्टेयर क्षेत्र में वन काट डाले गए। इससे पता चलता है कि प्रत्येक वर्ष 1.5 लाख हेक्टेयर वनों की कटाई हुई। वनों की कटाई के कारण जाने-अनजाने कई तरह के नुकसान होते हैं। वनों के सफाए से भारी मात्रा में मिट्टी का कटाव हो रहा है। भारत में लगभग 15 करोड़ हेक्टेयर भूमि कटाव के कारण नष्ट हो रही है। बुरी तरह से मिट्टी के कटाव के कारण नदियों की तली, तालाब तथा बांधों के जलाशयों की हालत खराब हो रही है। यही कारण है कि हर साल बाढ़ से धन-जन की भारी बरबारी होती है,पेड़ों की कटाई के कारण राजस्थान, गुजरात तथा हरियाणा में रेगिस्तान का विस्तार हो रहा हैपश्चिमी राजस्थान का 7.34 प्रतिशत हिस्सा रेगिस्तानी बन चुका है। इन क्षेत्रों में वन-कटाई के कारण भूमिगत जल का स्तर बहुत नीचे चला गया है। इस कारण अब न सिर्फ सिंचाई बल्कि पीने के पानी का भी संकट पैदा हो गया है। वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन होता है और चट्टानों के खिसकने से उपजाऊ मृदा बहकर दूर चली जाती है।


वनों के घटने से प्रदूषण एक विश्वव्यापी समस्या बनती जा रही हैइस समस्या में विश्व के सभी नगर त्रस्त हैं। विभिन्न कारणों से जल, वायु ध्वनि और मिट्टी का पारस्परिक संतुलन बिगडना ही प्रदूषण कहलाता हैपर्यावरण को संतुलित बनाए रखने वाले तत्वों में विकास उत्पन्न होने के कारण प्रदूषण का जन्म होता है। वास्तव में मानव द्वारा औद्योगिक वैज्ञानिक चाहत ही प्रदूषण बढ़ाने में कार्यरत है। नगरों में तेजी से विकास हो रहा है और ग्रामीण जनसंख्या का इस ओर पलायन भी हो रहा हैजिसके कारण देश में अनेग नगर महानगर बन गए हैं तथा वहां जनसंख्या का अधिक अपनी चरम सीमा को भी पास कर गया है।


देश की जनसंख्या एक सौ पच्चीस करोड़ का आंकड़ा पार कर चुकी है, इसके बाद भी गति नहीं रुकी यद्यपि चीन की जनसंख्या हमारे देश से अधिक है। परंतु वह दिन दूर नहीं जब हमारी जनसंख्या चीन को भी पीछे छोड़ देगी। देश में बढ़ते नगर तथा महानगर तथा बढ़ती जनसंख्या एक गंभीर समस्या को जन्म देती हैवह समस्या है- प्रदूषण की समस्या। जनसंख्या के इस दबाव का सीधा प्रभाव वायुमंडल पर पड़ता है। इस जनसंख्या के लिए धरती कम पड़ जाती है। जिसके कारण झुग्गी-झोपडियां, स्लम तथा झोपड़-पट्टियों की संख्या महानगरों में दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इन स्थाना में वायुमंडल इतना प्रदूषित हो जाता है कि सांस लेने के लिए स्वच्छ वायु भी नहीं मिलती। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, कानपुर जैसे अनेक नगर गंभीर रूप से प्रदूषित हैं।


महानगरों में कई प्रकार का प्रदूषण है। इसमें सर्वप्रथम आता है- वायु प्रदूषण यह अन्य प्रकार के प्रदूषणों में सबसे अधिक हानिकारक माना गया है। महानगरों में वाहनों, कल कारखानों और औद्योगिक इकाइयों की बढ़ती संख्या के कारण वातावरण प्रदूषित हो जाता है। सड़कों पर चलने वाले वाहन रोज लाखों गैलन गंदा धुआं उगलते हैं। जब यह धुआं सांस द्वारा हमारे शरीर में जाता है तो दमा, खंसी, टी.बी, फेफडों और हृद्य के रोग कैंसर जैसे घातक रोगों को जन्म देते हैं। आवास की समस्या को हल करने के लिए इन महानगरों में वृक्षों की अनियंत्रित कटाई की जाती हैजिसके कारण भी प्रदूषण बढ़ रहा है। वृक्ष इनकी कटाई हो जाने से वातावरण की अशुद्धता दूर करने का कोई रास्ता नहीं बचता।


महानगरों में जल भी एक गंभीर समस्या बन गया है नगरों में जल के स्त्रोत भी दूषित हो गएनगरों के आस-पास फैले उद्योगों से निकलने वाले अवशिष्ट पदार्थ तथा रासायनिक कचरा जब नदियों में प्रवाहित कर दिया जाता है तो जल प्रदूषित हो जाता है और पीने योग्य नहीं रहता। इस प्रदूषित जल को पीने से पेट की अनेक प्रकार की बीमारियां जन्म लेती हैं। महानगरों में ध्वनि प्रदूषण भी कम नहीं होता। वाहनों तथा कल-कारखानों से निकलता हुआ शोर, सघन जनसंख्या का शोर तथा ध्वनि विस्तारकों आदि का शोर ध्वनि प्रदूषण के मुख्य कारण है। ध्वनि प्रदूषण से उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, कान के रोग आदि हो सकते हैं। भूमि प्रदूषण भी अत्याधिक मात्रा में बड़े-बड़े शहरों में पाया जाता है। घनी आबादी वाले क्षेत्रों में व्याप्त गंदगी भूमि प्रषण को जन्म देती है। झग्गी-झोपडियों में शौचालयों, स्नानघरों आदि के अभाव के कारण भमि प्रषण बढ़ जाता हैभूमि प्रदूषण में मक्खी-मच्छरों का प्रकोप बढ़ जाता है। तथा स्वास्थ्य को गंभीर रूप से हानि पहुंचती है।


जन पूर्वांचल , मार्च 2018