हमीं से धोखे होते रहे ...


न कोई शोषित हम सा और, नहीं है वंचित कोई और ,


हमीं से धोखे होते रहे, हमीं पर चले ठगी के दौर ।


 


जंगली मानव को इन्सान,  बनाया हमने पहली बार ।


मगर हम जंगल के ही रहे, नगर तक पहुँच गया संसार॥


 


हमीं ने दी धन को पहचान, छिना है अब मुँह का ही कौर ।


                         हमीं पर चले ठगी के दौर॥


 


भूमि थी गोपालों की सभी, अभी तो हम ही हैं भू-हीन ।


भूमि गौंड़े गोचर की हुई, आज सरकारों के आधीन ॥


 


जीविका हुई हमारी नष्ट, नहीं हैं चरागाह को ठौर ।


                        हमीं पर चले ठगी के दौर॥


 


देश को आजादी मिल गई, सभी को था समान अधिकार ।


बने हम  संगतराश, मजूर,  खलासी या फिर पल्लेदार ॥


 


हमारे वोट ऊन से कटे, हमारा हुआ भेड़ सा डौर ।


                     हमीं पर चले ठगी के दौर॥


 


आज तक करते ही रह गए, चौधराहट हम घर के बीच।


प्रगति की राह न दीखी हमें, रहे हम दोनों दीदा मींच ॥


 


छत्र धारण कर पुजते रहे , हमारी भेड़ों के सिरमौर ।


नहीं है हम सा कोई दीन, हमीं पर चले ठगी के दौर॥


                         डॉ जे पी बघेल, पीएच.डी.


                        ईमेल – drjpbaghel@gmail.com