न कोई शोषित हम सा और, नहीं है वंचित कोई और ,
हमीं से धोखे होते रहे, हमीं पर चले ठगी के दौर ।
जंगली मानव को इन्सान, बनाया हमने पहली बार ।
मगर हम जंगल के ही रहे, नगर तक पहुँच गया संसार॥
हमीं ने दी धन को पहचान, छिना है अब मुँह का ही कौर ।
हमीं पर चले ठगी के दौर॥
भूमि थी गोपालों की सभी, अभी तो हम ही हैं भू-हीन ।
भूमि गौंड़े गोचर की हुई, आज सरकारों के आधीन ॥
जीविका हुई हमारी नष्ट, नहीं हैं चरागाह को ठौर ।
हमीं पर चले ठगी के दौर॥
देश को आजादी मिल गई, सभी को था समान अधिकार ।
बने हम संगतराश, मजूर, खलासी या फिर पल्लेदार ॥
हमारे वोट ऊन से कटे, हमारा हुआ भेड़ सा डौर ।
हमीं पर चले ठगी के दौर॥
आज तक करते ही रह गए, चौधराहट हम घर के बीच।
प्रगति की राह न दीखी हमें, रहे हम दोनों दीदा मींच ॥
छत्र धारण कर पुजते रहे , हमारी भेड़ों के सिरमौर ।
नहीं है हम सा कोई दीन, हमीं पर चले ठगी के दौर॥
डॉ जे पी बघेल, पीएच.डी.
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