असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) की आखिरी सूची भले जारी हो गई हो, लेकिन नागरिकता संबंधी विवादों का मूल वहीं का वहीं है। अब भी लाखों लोगों के सामने यह सवाल है कि वे भारत के नागरिक हैं या नहीं। इसलिए बुनियादी सवाल यही बना हुआ है कि इस अंतिम सूची में जो उनीस लाख लोग अब छूट गए हैं, क्या वे विदेशी हैं, घुसपैठिए हैं या भारतीय नागरिक नहीं हैं? जब तक वे विदेशी पंचाट के समक्ष अपने भारतीय नागरिक होने के दस्तावेजी सबूत पेश नहीं कर देते तब तक उनकी स्थिति क्या होगी? पिछले साल जुलाई में जब एनआरसी का अंतिम मसौदा जारी हुआ था तो उसमें से चालीस लाख से ज्यादा लोगों के नाम गायब थे। यानी साल भर में करीब बीस लाख और लोगों को एनआरसी में शामिल कर उन पर से विदेशी होने का कलंक मिटाया गया। दरअसल, जिस तरह से एनआरसी बनाने और उसे अद्यतन करने का काम हुआ है उसमें व्यावहारिक तौर पर यह संभव ही नहीं है कि सही मायने में किसी घुसपैठिए की पहचान की जा सके। इसीलिए अंतिम सूची के जारी होते ही इसकी आलोचना शुरू हो गई। आसू से लेकर सारे दल और कई संगठनों ने इसकी प्रक्रिया को लेकर सवाल उठाए हैं। असम के लिए यह मुद्दा काफी संवेदनशील है।
यह राज्य भारत की आजादी के बाद से ही घुसपैठियों की समस्या से जूझ रहा है। इसीलिए 1951 में पहली बार राज्य में एनआरसी की शुरुआत की गई थी, ताकि बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) से आने वाले घुसपैठियों का पता लगा कर वापस उनके देश के हवाले किया जा सके। हालात तब बिगड़े जब बांग्लादेशियों को खदेड़ने के लिए सातवें दशक के आखिर में असम में हिंसक आंदोलन शुरू हुआ और असम समझौते के बाद बंद हुआ। तभी यह तय हुआ था कि 1971 के बाद असम में आने वाले को बाहरी, विदेशी माना जाएगा। लेकिन एनआरसी की लंबी-चौड़ी कवायद बता रही है कि ऐसी सूचियों से यह फैसला हो पाना मुमकिन नहीं है कि कौन घुसपैठिया है और कौन नहीं। हालांकि सरकार और केंद्रीय गृह मंत्रालय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जिन उन्नीस लाख लोगों के नाम इस सूची में नहीं हैं वे विदेशी नहीं माने जाएंगे, उन्हें एक सौ बीस दिन के भीतर विदेशी पंचाट के समक्ष पक्ष रखने का मौका मिलेगा। एनआरसी पर जैसी त्रुटियां आई हैं, उससे साफ है कि इसे बनाने में भारी लापरवाही तो हुई ही है, साथ ही राजनीतिक स्तर पर भी इसे प्रभावित करने की कोशिशें होती रही हैं। एक ही परिवार के कुछ सदस्यों के नाम सूची में हैं तो कुछ के नहीं। इनमें ज्यादातर लोग तो वे हैं जो आर्थिक रूप से बेहद कमजोर और वंचित तबके से हैं और इन्हें नागरिकता के दस्तावेजों की जानकारी तक नहीं है। इन्हें ही हिरासत केंद्रों में रखा गया है। इसलिए ऐसे लोगों में खौफ पैदा होना स्वाभाविक है। सवाल है कि अगर घुसपैठियों का पता लग भी जाता है तो उन्हें कैसे उनके देश भेजा जाएगा। ऐसे में एनआरसी जैसी कवायद पर सवाल क्यों नहीं खड़े होंगे।