बच्चों की परवरिश' में मां की अहम भूमिका होती है


ज भौतिकवादी युग में बच्चों की परवरिश भी एक बड़ी चुनौती है। इस चुनौती का सामना करने में कई परिवार बिखर जा रहे हैं। दरअसल, समयाभाव के कारण अधिकतर लोग अपने बच्चों की परवरिश पर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। स्नेहा बहुत परेशान रहती है। उसका पांच साल का बेटा डुग्गू बहुत ही शरारती है । खेल-खेल में कई बार बेटे की शरारत स्नेहा पर भारी पड़ जाती है। तंग आकर बेटे को पीट देती है या फिर स्वयं पर आक्रोश करती है। वह बेटे की शरारत पर काबू पाने के हरसंभव प्रयास करती है, मगर विफल रहती है। स्नेहा जैसी अनेक माएं हैं जो आज अपने बच्चों की परवरिश को लेकर चिंतित नजर आती हैं। बच्चों को जीवन में नई गति, बच्चों को जीवन में नई गति, नए आयाम, नई ऊर्जा देने तथा उन्हें यथार्थ व कल्पना में फर्क समझाने में माता-पिता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।


हर माता-पिता के जीवन का उद्देश्य अपनी संतान को योग्य बनाना तथा उनके भविष्य को संवारन होता है।आज के भौतिकवादी युग में अधिकांश माता-पिता दोनों काम करते हैं। इस कारण वे घर-बाहर की थकान के कारण बच्चों के साथ उचित व्यवहार नहीं कर पाते और ना ही बच्चों को उतना समय दे पाते हैं जितना कि बच्चों को दिया जाना जरूरी हैलेकिन जो हाउस वाइफ हैं उनके कंधों पर घर-परिवार की इतनी जिम्मेदारी रहती है जिसके चलते वह भी बच्चों के लिए समय नहीं निकाल पातीं। समयाभाव के कारण पेरेन्ट्स बच्चों की भावनाओं व विचारों को समझ नहीं पाते । बस बच्चों पर अपने निर्णय थोप देते हैं कि ये करो ये मत करोअब ये क्यों करना है और ये क्यों नहीं करना, इस बात से बच्चे अनभिज्ञ ही रह जाते हैं। मां-बाप द्वारा थोपे गए निर्णय बच्चों को स्वावलंबी नहीं बनने देते। फलस्वरूप पेरेन्ट्स का यह व्यवहार उनमें डर के साथ विद्रोह की भावना भी पैदा कर देता है। डर के कारण बच्चे कुछ कहते नहीं बल्कि अपने दिमाग में पेरेन्ट्स की छवि ऐसी बना लेते हैं कि वह बड़ों की सही बात को भी गलत मानते हैं। वे पेरेन्ट्स से खुलकर बात नहीं कर पाते बल्कि अपनी बातों को भी आसानी से छिपा जाते हैं।


जरूरी है कि माता-पिता घरपरिवार व बाहरी कामकाज के साथ-साथ बच्चों के लिए पर्याप्त समय निकालें। उनके कार्यों में सहयोग करें। सही मार्गदर्शन देते रहें। उन पर अपने निर्णय थोपने की बजाय अच्छे-बुरे की पहचान करना बताएं और बच्चों के कार्यों की प्रशंसा करना न भूलें। बच्चों के दोस्त बनकर रहें, खौफ बनकर नहीं। बच्चों की भी अपनी दुनिया होती है, जिसमें उनके साथ कुछ दोस्त होते हैंबच्चों का काफी समय दोस्तों के साथ पढने, घूमने-फिरने व आनेजाने में बीतता है। दोस्तों की संगति का उनपर अच्छा हो या बुरा प्रभाव बहुत जल्दी पड़ता है। बच्चों के दोस्त बनकर रहेंगे तो बच्चा आपके साथ अपनी हर अच्छी-बुरी बात को शेयर करेगा। इसलिए दोस्त बनकर बच्चे की सभी बातें व समस्याएं सुनें तथा बाद में शांतिपूर्ण ढंग से, धैर्य से व प्यार से समस्या का हल खोजें। फिर बच्चे को समझाएं और अच्छे-बुरे की सीख दें।


आज टेलीविजन बच्चों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा हैइससे बच्चे नैसर्गिक रूप से काफी जिज्ञासु होने लगे हैं। वे हर उस बात को स्पष्ट करना चाहते हैं जो वे देखते व सुनते हैं। ऐसी परिस्थितियों में बच्चों को सही व गलत के बीच का अंतर पता होना आवश्यक है। देखा गया है कि जो अभिभावक बच्चों की भावनाओं को समझते हैं व उनकी समस्याओं को गौर से सुनते हैं तो उनके बच्चे, उनसे बात करने में खुद को सुविधाजनक स्थिति में महसूस करते हैं। ऐसे हालात में उनके ईमानदार होने की संभावनाएं भी कई गुना बढ़ जाती हैं। किसी भी समस्या के हल के लिए बच्चे को उपदेश नहीं सुझाव देकर समझाने का प्रयास करें। बच्चे की बात व सुझाव को भी महत्व दें।