संयम एवं अहिंसा का प्रयोग है कारगर


समूह और समुदाय में शांति रहे, सौहार्द रहे, आपसी मेल-मिलाप रहे, यह जरूरी है। लेकिन समाज में अशांति ज्यादा है, तनाव ज्यादा है, संघर्ष ज्यादा है, डर ज्यादा है। दो होकर रहना संघर्ष में जीना है और यह आधुनिक समय की बड़ी समस्या है। इसके कारणों की खोज लगातार होती रही है। रुचि का भेद, विचार का भेद, चिंतन का भेद और क्रिया का भेद स्वाभाविक है, लेकिन जब इस तरह के भेद मनभेद बन जाता है जो संघर्ष, तनाव, अशांति घटित होती ही है। कहा जाता है कि कोई और नहीं, हम खुद ही अपने सबसे पहले दुश्मन होते हैं। हमारी समस्याएं, दूसरों की वजह से कम, हमारे अपने कारण ज्यादा खड़ी होती हैं। कोरोना महासंकट से बचने की कोशिश करते हुए यह बात बार-बार सामने आयी है। इन संकटपूर्ण स्थितियों एवं आशंकाओं के बीच अहिंसा, संकल्प एवं संयम एक ऐसी निर्मल गंगा है, जो तड़पते हुए आदमी के घावों पर शीतल बूंदे डालकर उसकी तड़प-शंकाओं को मिटा सकती है और उसकी मूच्र्छा को तोड़ सकती है।
मनुष्य जीवन में गैर-जिम्मेदारी एवं लापरवाही की इतनी बड़ी-बड़ी चट्टानें पड़ी हुई हैं, जो मनुष्य-मनुष्य के बीच व्यवधान पैदा कर रही हैं। संकल्प, संयम एवं समर्पण के हाथ इतने मजबूत हैं कि उन चट्टानों को हटाकर आदमी को आदमी से मिला सकता है, जीवन की संभावनाओं को पंख लगा सकता है। इसके लिये जरूरी है कि आदमी को खुद पर विश्वास जागे। अब सवाल यह है कि हम अपने लिए समस्या से समाधान कैसे बन सकते हैं? लाइफ कोच एंड्रयूू केन कहते हैं, ‘आप अपने साथ उतने ही उदार और सहयोगी बनें, वैसा ही व्यवहार करें, जैसा अपने सबसे अच्छे दोस्त के साथ करना पसंद करते हैं।’ ऐसा करके ही हम जीवन को समस्या नहीं, समाधान बना सकते हैं और कोरोना महामारी की मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।
जैन दर्शन ने अहिंसा के लिए महत्वपूर्ण सूत्र दिए। अहिंसा की साधना का आंतरिक सूत्र है-भावशुद्धि का विकास और व्यावहारिक सूत्र है-अनावश्यक हिंसा का वर्जन। जब वृत्तियों का परिष्कार, इच्छाओं का नियंत्रण होता है, तब संयम की शक्ति का विकास होता है। इन्द्रियां और मन संयम शक्ति के स्रोत हैं। संयम की शक्ति के बिना कोराना कहर पर काबू नहीं हो सकता। गृहस्थ के लिए संयम का मार्ग है और मुनि के लिए भी संयम का मार्ग है। संयम है समता और समता है संयम। जहां संयम नहीं है, वहां समता नहीं हो सकती और जहां समता नहीं है, वहां संयम नहीं हो सकता।
आज इस पदार्थवादी परंपरा ने भोगवाद को बढ़ाया है और इससे असंयम बढ़ा है। लोभ और कामवासना जितनी प्रबल होगी, तनाव उतना ही अधिक होगा, रोग-प्रतिरोधक क्षमता उतनी ही कम होगी। असंयम तनाव का जनक है। संयम के बिना तनाव को मिटाया नहीं जा सकता। भीतर आग भभक रही है असंयम की। तो फिर तनाव क्यों नहीं उतरेगा ? दूध में उफान क्यों नहीं आएगा ? लोभ और कामवासना की आंच पर रखा हुआ मन बेचारा गर्म नहीं होगा तो क्या होगा ? रक्तचाप, हार्टट्रबल, कैंसर, अल्सर आदि बीमारियों का जनक है असंयम और यही कोरोना प्रकोप के पनपने का बड़ा कारण भी है।
समाज में रहते हुए भी शांतिपूर्ण जीवन जीया जा सकता है। इसके लिए अहिंसा का प्रयोग कारगर है। यदि अहिंसा का प्रयोग नहीं होता तो समाज नहीं बनता। दो आदमी समाज में एक साथ न रह पाते। समाज बना अहिंसा के आधार पर। उसका सूत्र है-साथ-साथ रहो, तुम भी रहो और मैं भी रहूं। या ‘तुम’ या ‘मैं’ यह हिंसा का विकल्प है। ‘हम दोनों साथ नहीं रह सकते’ यह हिंसा का प्रयोग है। जहां अहिंसा का प्रयोग होगा वहां व्यक्ति कहेगा तुम भी रहो, मैं भी रहूं, दोनों साथ-साथ रह सकते हैं। विरोध में भी सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है। जीवन की यात्रा को सुगम बना सकते हैं। जिंदगी में चलना और रुकना दोनों ही जरूरी हैं। कब चलना है और कब रुकना, यह जानते-समझते कदम बढ़ाते रहना हमें थकने नहीं देता। हमारी यात्रा को सार्थक एवं सुखद कर देता है। लेखक डेनियल ऑर्नर कहते हैं, ‘कुछ चीजें हमारे नियंत्रण में होती हैं, कुछ नहीं। इसी के बीच में कहीं जिंदगी का संतुलन होता है। मैं सीख रहा हूं कि कब तक कोशिश करनी है और कब समर्पित हो जाना है।
एक दूसरे की कमजोरी और असमर्थता को सहन करना, अल्पज्ञता और मानसिक अवस्था को सहन करना, दूसरे की कठिनाई और बीमारी को सहन करना कोरोना कहर से मुक्ति के लिए आवश्यक है। जब व्यक्ति इन सबको सहन करता है और समर्पण को जीने का अभ्यास करता है तभी परिवार, समाज एवं समुदाय में शांति रह सकती है।
भगवान महावीर ने अहिंसा और अनेकांत का सूत्र दिया। अनेकांत का पहला प्रयोग है सामंजस्य बिठाना। दो विरोधी विचारों में सामंजस्य, दो विरोधी परिस्थितियों में सामंजस्य। यदि सामंजस्य न हो तो छोटी बात भी लड़ाई का कारण बन जाती है। बिना कारण लड़ाइयां चलती रहती हैं। यह इसलिए चलती है कि लोग सामंजस्य बिठाना नहीं जानते। समझौता करना नहीं जानते, व्यवस्था को नहीं जानते। अगर सामंजस्य, समर्पण, समझौता और व्यवस्था पर हम ध्यान दें तो लड़ाइयां बंद हो जायेंगी। आज सहिष्णुता का अर्थ गलत समझ लिया गया है। सहिष्णुता का अर्थ न कायरता है, न कमजोरी और न दब्बूपन। सहिष्णुता महान् शक्ति है। बहुत शक्तिशाली आदमी ही सहिष्णु हो सकता है और सहिष्णुता से ही शांति स्थापित हो सकती है और सहिष्णुता से ही कोरोना जैसी महामारी पर विजय पायी जा सकेगी।
जैन दर्शन संयम की भित्ति पर खड़ा है। जैन धर्म की व्याख्या आध्यात्मिक जीवनशैली की व्याख्या है और यही कोरोना मुक्ति का आधार है। यही वे कारण हैं जिन पर चलकर कोरोना महामारी के संकट से मुक्ति का मार्ग निकलता है और इसी कारण  समूची दुनिया की नजरे भारत पर टिकी है, भारत की संस्कृति एवं जीवनशैली पर दुनिया का भरोसा बढ़ रहा है। क्योंकि योग, अहिंसा, सह-अस्तित्व, शाकाहार, नैतिकता, संयम आदि जीवन के आधारभूत जीवनमूल्य इसी देश की माटी में रचेे-बसे हैं। विशेषतः भारत में जैनधर्म एवं उसका जीवन-दर्शन कोरोना के वर्तमान संकट के दौर में समाधान के रूप में सामने आया है, जैनमुनि मुंह पर पट्टी ( मुंहपत्ती ) बांधते हैं, जो आज माॅस्क के रूप में समूची दुनिया अंगीकार कर रही है। सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग), आइसोलेशन, व क्वारंटीन ( एकांत ) जैन मुनि एवं साधक के जीवन के अभिन्न अंग आज दुनिया के लिये कोरोना मुक्ति के सशक्त आधार बन रहे हैं। शाकाहार एवं मद्यपान का निषेध भी जैन जीवनशैली के आधार है, जिनका बढ़ता प्रचलन कोरोना महासंकट से मुक्ति का बुनियादी सच है।


आचार्य डा.लोकेशमुनि