देश में रोजगार घटने से मोदी सरकार की मुश्किल बढ़ेगी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषण में भारत की आर्थिक विकास दर तेज करने और बड़ी तादाद में युवाओं के लिए रोजगार पैदा करने का दावा करते हैं। सरकार बनने से पहले हर वर्ष दो करोड़ युवाओं को रोजगार देने के सुनहरे सपने दिखाये गये लेकिन सरकार के चार वर्ष बीत जाने के बाद भी सरकारी आंकड़ों से अनुसार रोजगार बढ़ने की बजाय घटे हैं। नए बजट में दो करोड़ के वायदे के बदले केवल 70 लाख युवाओं को रोजगार मुहैया कराने की बात कही गई है, इसका सीधा सा अर्थ यह है कि रोजगार के मोर्चे पर आलोचना झेल रही सरकार को मानना पड़ा है कि रोजगार घटे हैं। मोदी सरकार युवाओं और मध्यम वर्ग को सुनहरे सपने दिखाकर सत्ता में आई थी लेकिन सबसे ज्यादा यही वर्ग अब खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है। जेटली जब विपक्ष में थे तो आयकर की सीमा पांच लाख करने की मांग करते थे लेकिन पांचवां बजट पेश करते हुए भी उन्होंने आयकर सीमा को यथावत रखा है जिसका मतलब है कि भाजपा की कथनी और करनी में भारी विरोधाभास है।


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में कहते थे कि न खाऊंगा न खाने दूंगा लेकिन बड़े-बड़े उद्योगपति वित्त मंत्रालय और पीएमओ तक में तमाम शिकायतों के बावजूद सरकारी बैंकों का लाखों करोड़ रूपए गबन कर एक-एक करके फरार हो रहे हैं। आम जनता हैरान-परेशान है कि यह कैसा चौकीदार है जिसके रहते देश लूट कर लोग भाग रहे हैं। बैंक घोटाले की परतें अभी खलना शुरू हुई हैं और कोई इसे सरकार के केन्द्रीय बजट के बराबर र करोड आंक रहा है तो कोई इसके 50 हजार करोड़ तक होने का अनुमान लगा रहा है। ईमानदारी का लवादा ओढे सरकार की पोल खुलने लगी है कि तमाम शिकायतों के बावजूद संदिग्ध कारोबारियों को सरकारी बैंकों द्वारा बड़े पैमाने पर लोन उपलब्ध कराये गये जबकि छोटे एवं मध्यम वर्ग के जमाकर्ताओं की बचत पर ब्याज में लगातार कटौती की गई ताकि पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाया जा सके।


अब सरकार नींद से जागी है और कार्रवाई की दावा कर रही है लेकिन कहावत है कि "अब पछताय होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत"। मोदी सरकार का कार्यकाल 2019 की शुरूआत में समाप्त हो रहा है लेकिन सरकार की लगभग सभी योजन पूर्ति का लक्ष्य 2022 रखा गया है। कोई भी सरकार पांच वर्ष के लिए चुनी जाती है और पांच वर्षों के अनुरूप ही अपना लक्ष्य निर्धारित करती है लेकिन यह पहली सरकार है जिसने अपने सभी लक्ष्य 2022 के लिए निर्धारित किये हैं। ताकि 2019 के लोकसभा चुनावों में कोई सवाल ही नहीं उठाए। मोदी सरकार और भाजपा आश्वस्त है कि कमजोर विपक्ष के चलते 2019 में भी उनकी ही सरकार बनेगी, चाहे वह आम जनता की गाढ़ी कमाई को टैक्स के रूप में जितना भी निचोड़ ले। पैट्रोल और डीजल की कीमतें अंतर्राष्ट्रीय बाजार में जब लगातार कम हो रही थीं तो मोदी सरकार सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी लगातार बढ़ा रही थी ताकि घटी कीमतों का लाभ उपभोक्ताओं को न मिल भरा जा सके। अब जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमत बढ़ रही हैं और पैट्रोल, डीजल के दाम आसमान पर हैं तब उस पर करीब 8 रूपए प्रति लीटर रोड एण्ड इंफ्रास्ट्रक्चर सैस लगा दिया गया है जिसके कारण आम जनता महंगाई की चक्की में पिस रही है और सरकार आंकड़ों की बाजीगरी दिखाकर केवल भ्रमित कर रही है। 


असल में मोदी सरकार गरीबों का मसीहा होने का दावा करती है जबकि हकीकत में उसकी नीतियां पूंजीवाद की वाहक हैं, जहां सुनहरे सपने दिखाकर मजदूर और मध्यमवर्ग का लगातार शोषण हो रहा है। अभी गत माह जब दावोस में अंतर्राष्ट्रीय वर्ल्ड इकोनोमिक्स सम्मेलन चल रहा था वहां ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट में खुलासा किया गया कि भारत की 70 प्रतिशत सम्पदा पर एक प्रतिशत लोगों का कब्जा है और पिछले एक साल में उनकी सम्पत्ति में 20.9 लाख करोड़ का इजाफा हुआ है जो सरकार के केन्द्रीय बजट के बराबर है। इसी रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि भारत की 67 करोड़ जनता की 2017 की कमाई में केवल एक प्रतिशत का इजाफा हुआ है, जो यह बताने के लिए काफी है कि अमीरी-गरीबी की खाई निरन्तर बढ़ती जा रही है। रिपोर्ट में कहा गया है कि ऐसा इसलिए हो रहा है कि कामगारों के हितों का संरक्षण नहीं किया जा रहा है और सरकार की नीतियों पर बड़े कार्पोरेट घरानों की छाप दिखाई देती है। पूर्ण बहुमत से सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने कुछ बेहद महत्वाकांक्षी योजनाओं का ऐलान किया है। इनमें मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया और 2022 तक सबके लिए घर मुहैया कराने का वादा शामिल है। सरकार त्री आवास योजना का ऐलान किया था जिसके तहत 2022 तक देश के सभी नागरिकों को मकान मुहैया कराने के मकसद से दो करोड़ मकान बनाने का लक्ष्य रखा गया है। आवास और शहरी विकास मंत्रालय की आधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक देश में पिछले एक दशक के दौरान झुग्गी-झोपडी बस्तियों के बढ़ने की रफ्तार 34 फीसदी है और इस हिसाब से स्लम में रहने वाले परिवारों की संख्या एक करोड़ अस्सी लाख के करीब होनी चाहिए। इसके अलावा शहरों में बड़े पैमाने पर लोग किराये के मकानों में रहते हैं और इनमें से करीब 70 प्रतिशत के पास भारत में कहीं भी अपना स्थायी आवास नहल है। इस योजना के तहत स्लम में न रहने वाले 20 लाख गरीब परिवारों को भी मकान मुहैया कराने की योजना है।


इस मिशन को 2015 से 2022 के भीतर पूरा किया जाना निश्चित किया गया है। अब सवाल यह है कि सरकार की इस महत्वाकांक्षी योजना के तहत अब तक कितने लोगों के घर बनाये गये हैं। दिल्ली जैसे बड़े शहरों में तो यह योजना पूरी तरह फेल हुई है। रियल एस्टेट सेक्टर में भारी मंदी है। नोटबंदी और जीएसटी से काम-धंधे अभी तक ठप्प हैं और लाखों लोगों को रोजगार प्रभावित हुआ है लेकिन इसके बावजूद न तो वेतनभोगी कर्मचारियों को आयकर में राहत दी गई है और न ही घर खरीदने के लिए किसी बड़ी रियायत की घोषणा की गई है। केवल एनसीआर में भी बिना बिके लाखों आवास खाली पड़े हैं लेकिन उनका कोई खरीददार नहीं है। ऐसे में क्या 2022 तक भारत में हर किसी के पास अपना आवास असंभव है। आवास उपलब्ध कराने वाली योजना के लिए सरकार समुचित फंड ही उपलब्ध नहीं करा पा रही है। मोदी सरकार ने वित्त वर्ष 2017-18 तक प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) के तहत ग्रामीण क्षेत्र में 44 लाख पके बनाने का लक्ष्य रखा था। लेकिन सरकार लक्ष्य से कोसों दूर है।


नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैसलों ने देश की अर्थव्यवस्था में उथल-पुथल मचा दी है और अगले कुछ सालों तक इकोनॉमी इसके बुरे असर से जूझती रहेगी। फिलहाल मोदी सरकार के इन दो कदमों ने मैन्युफैक्चरिंग की रफ्तार थाम दी है। निर्यात के मोर्चे पर सुस्ती पैदा की है। अपनी नीतियों से किसानों के बीच निराशा के बीज बोए हैं। सरकार 2022 तक किसानों की आय दुगनी करने का दावा करती है लेकिन यह कैसे होगा, इसका कोई रोडमैप नहीं है। अब तक कितने किसानों की आय कुछ प्रतिशत भी बढ़ी है, इसका कोई ठोस आंकड़ा नहीं है। असंगठित क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी पैदा हुई है और छोटे और मझोले उद्यमियों-कारोबारियों के बीच आशंका बढ़ी है। अंतर्राष्ट्रीय लेबर आर्गनाइजेशन (आईएलओ) की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में रोजगार के अवसर लगातार घटे हैं और जो अस्थायी रोजगार , वहां कामगारों की स्थिति दयनीय है और 2019 तक यही स्थिति बनी रहेगी। वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि कामगार देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं, उनकी मेहनत से ही देश में ढांचागत सुविधाओं और हर प्रकार की छोटी-बड़ी चीजों का निर्माण होता है लेकिन वह वर्ग अपनी मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रहा है और वह बड़ी मुश्किल से इतनी कमाई कर पा रहा है ताकि परिवार का खर्चा उठा सके। रोजगार छूटने की हालत में वह हर प्रकार के दबाव और अभाव में काम कर रहा है। सरकार की सामाजिक सुरक्षा की योजनाएं नाकाफी हैं। जब बेरोजगारी, कृषि उत्पादों की कम कीमतों और कारोबार में मंदी की वजह से मजदूरों, किसानों और व्यापारियों की कमाई घटी है और लोगों का जीवन यापन मुश्किल हुआ है तो मकान बनाने और दूसरी सुविधाओं के लिए लोग निवेश कैसे कर सकते हैं।


सरकार में बैठे प्रधानमंत्री आवास योजना के पैरोकारों को अब जमीनी हालात को देखना चाहिए और योजना का पुनर्वलोकन करना चाहिए कि आखिर यह सिरे क्यों नहल चढ़ रही है। जीएसटी की जटिलताएं, इन्फ्रास्ट्रक्चर की दिक्कतें और रियल एस्टेट रेगुलेशन एक्ट (रेरा) की दिक्कतों के कारण प्राइवेट सेक्टर के निवेशक सरकार की इस अफोर्डेबल हाऊसिंग परियोजनाओं से दूर हैं। सरकार ने सितंबर में हाउसिंग सेक्टर के लिए पीपीपी के आठ मॉडल पेश किए और निजी सेक्टर को इसमें निवेश के लिए आगे आने को कहा, लेकिन हकीकत यह कि निजी सेक्टर इसमें दिलचस्पी नहीं ले रहा है। जिस दिन मोदी सरकार के सर्वव्यापी वित्त मंत्री अरूण जेटली गरीबों, किसानों, निम्न वर्ग और मध्यम वर्ग के लिए क्रांतिकारी बजट पेश कर रहे थे, उसी दिन भाजपा शासित प्रदेश राजस्थान में उनकी पार्टी दो लोकसभा सीटों और एक विधानसभा सीट पर उपचुनाव हार गई थी।


प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अपने गृह प्रदेश गुजरात में प्रधानमंत्री सहित भाजपा की पूरी फौज उतारने के बावजूद किसी तरह अपनी सरकार बचाने में कामयाब रहे। मोदी सरकार के वित्तमंत्री अरूण जेटली ने ताजा बजट में वित्त विधेयक 2016 में एक संशोधन किया जिसके तहत 26 सितंबर 2010' तिथि को 5 अगस्त 1976' कर दिया है। यह संशोधन इसलिए किया गया ताकि विदेशी कम्पनियों से मिले काले धन को सफेद किया जा सके क्योंकि इस संशोधन के तहत 2010 के कानून में उल्लिखित विदेशी कंपनियों की परिभाषा बदल दी गई है। डीजल, पेट्रोल और शराब जीएसटी के दायरे से बाहर रखा गया है। रोड और इंफ्रास्ट्रक्चर सैस लगाने के बावजूद रोड और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर बजट घटा दिया गया है।


स्वास्थ्य बीमा योजना कैसे कार्यान्वित की जायेगी, स्वास्थ्य मंत्री को भी पता नहीं है। इसका हाल भी फसल बीमा योजना और पहले से लागू स्वास्थ्य बीमा योजना जैसा होने का अनुमान है। पहले से लागू स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को 30 हजार रूपए तक का इलाज कराने की सुविधा की बात की गई है जिसे राज्य सरकारों के सहयोग से चलाया जाना था शेष भाग पृष्ठ 31 पर ... लेकिन 21 राज्य सरकारों ने इसके लिए धन ही मुहैया नहीं कराया और वह इसके लिए केन्द्र से धन की मांग कर रहे हैं। फसल बीमा योजना के तहत 24 हजार करोड़ का बीमा कम्पनियों को प्रीमियम दिया गया जबकि किसानों के करीब 8 हजार करोड़ रुपयों के दावों का निपटारा किया गया है, इस प्रकार 16 हजार करोड़ रूपए बीमा कम्पनियों की जेब में चला गया। खराब स्वास्थ्य और महंगे इलाज के लिए लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करने के लिए मजबूर हैं। बजट में क्रांतिकारी बतायी गई स्वास्थ्य बीमा योजना के लिए 50 हजार करोड़ रुपए की जरूरत है, जिसका बजट में कोई प्रावधान नहीं है।


अब सरकार के मंत्री कह रहे हैं कि योजना लागू करने में धन की कमी आड़े नहीं आने दी जाएगी। उज्ज्वला योजना के तहत गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वाले परिवारों को गैस के कनेक्शन दिए लेकिन उनमें से 80 प्रतिशत से ज्यादा रिफिल के लिए नहीं आ रहे हैं। लोगों के पास लकड़ी उपलब्ध है और वह लकडियां जलाकर खाना पकाते हैं। गैस सिलेंडर रिफिल कराने के लिए रूपए नहीं हैं। बजट भाषण में वित्त मंत्री ने कहा कि नौकरी-पेशा लोगों की बजाय बिजनेस क्लास लोगों का औसत टैक्स अधिक है लेकिन उन्हें शायद मालूम नहीं है कि सबसे ज्यादा टैक्स की भरपाई नौकरी पेशा मध्यम वर्ग से की जा रही है लेकिन सुविधाओं के नाम पर उन्हें ठेंगा दिखा दिया गया है।