चुनाव आयोग की विश्वसनीयता का प्रश्न ?


पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव सम्पन्न हो गये हैं और इस चुनाव के जो परिणाम आयेंगे वे आने वाले समय में भारत की राजनीति की दिशा तय करेंगे। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इन चुनाव परिणामों को प्रभावित करने के लिये ईवीएम मशीनों से छेड़छाड़ की आशंका करते हुए ट्विट किया और प्रत्येक कांग्रेसी को ईवीएम मशीनों की पहरेदारी पूरी मुस्तैदी से करनी आवश्यकता व्यक्त की है। उसकी वजह यह है कि संवैधानिक संस्थाओं पर पदासीन अधिकारियों पर सत्ता से प्रभावित होने की संभावनाओं से नकारा नहीं जा सकता। इसका अर्थ क्या यही लगाया जाये कि लोगों का लोकतान्त्रिक प्रणाली के आधारभूत स्तम्भ ‘चुनाव आयोग’ पर से भरोसा उठ चुका है? अगर ऐसा है बड़ा प्रश्न यह है कि लोकतंत्र को शुद्ध सांसें कैसे मिलेंगी? लोकतंत्र श्रेष्ठ प्रणाली है। पर उसके संचालन में शुद्धता हो। लोक जीवन में लोकतंत्र प्रतिष्ठापित हो और लोकतंत्र में लोक मत को अधिमान मिले।


लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण पहलू चुनाव है, यह राष्ट्रीय चरित्र का प्रतिबिम्ब होता है। लोकतंत्र में स्वस्थ मूल्यों को बनाए रखने के लिये चुनाव की स्वस्थता एवं पारदर्शिता अनिवार्य है। इनको बनाये रखने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की होती है। उसको इससे कोई मतलब नहीं होता कि चुनावों में हार-जीत किस पार्टी की होगी, उसका मतलब केवल इससे रहता है कि मतदाताओं के मत की पवित्रता से किसी प्रकार का समझौता नहीं होगा। बेशक ईवीएम मशीनों को लेकर विपक्षी दल पिछले लम्बे अर्से से आशंकाएं व्यक्त कर रहे हैं। सचाई यह भी है कि भले ही इन मशीनों का प्रयोग विभिन्न राज्यों के चुनावों में मौजूदा भाजपा सरकार के सत्ता में रहते हुआ है और इनमें से कुछ राज्यों में विपक्षी कांग्रेस पार्टी की सरकार भी बनी है। बावजूद इसके सचाई यह भी है कि हर चुनाव में आयोग के पास मतदान में धांधली होने की शिकायतें बढ़ी हैं। 


हमारी लोकतंत्र प्रणाली में तंत्र ज्यादा और लोक कम रह गया है, यह एक सोचनीय स्थिति है। यह प्रणाली उतनी ही अच्छी हो सकती है, जितने कुशल चलाने वाले होते हैं। आज बड़े-बड़े राष्ट्रों के चिन्तन, दर्शन व शासन प्रणाली में परिवर्तन आ रहे हैं। सत्ता परिवर्तन हो रहे हैं। अब तक जिस विचारधारा पर चल रहे थे, उसे किनारे रखकर नया रास्ता खोज रहे हैं। परिवर्तन अच्छी बात है, लेकिन जरूरत इस बात की है कि अधिकारों का दुरुपयोग नहीं हो, मतदाता स्तर पर भी और प्रशासक स्तर पर भी। लोक चेतना जागे। ताकि चुनाव की पवित्रता को धुंधलाने के प्रयास करने वाले दो बार सोचें। जाहिर तौर पर चुनाव आयोग किसी भी सरकार के अधीन चलने वाले शासनतन्त्र के माध्यम से ही अपना काम करता है फर्क सिर्फ यह आता है कि चुनावों के दौरान पूरा प्रशासन तन्त्र संविधान के प्रावधानों के तहत चुनाव आयोग का ताबेदार हो जाता है और चुनाव आयोग पूरी तरह लालच से दूर रहते हुए भयरहित व निडर होकर मतदाताओं द्वारा डाले गये मत की सुरक्षा के संवैधानिक दायित्व से बन्धा रहता है। इसलिये संविधान के अन्तर्गत बनी आचार संहिता मुखर हो, प्रभावी हो। केवल पूजा की चीज न हो। उनकी जगह हिंसा और घृणा, सत्ता एवं दबाव की अलिखित आचार संहिता न बने। रास्ता बताने वाले रास्ता पूछ रहे हैं। और रास्ता न जानने वाले नेतृत्व कर रहे हैं। दोनों ही भटकाव की स्थितियां हैं। जन भावना लोकतंत्र की आत्मा होती है। लोक सुरक्षित रहेगा तभी तंत्र सुरक्षित रहेगा।


जनादेश में किसी प्रकार का भी घालमघेल किसी भी स्तर पर करने की कोई भी गुंजाइश हमारी चुनाव प्रणाली में नहीं है। यही वजह थी कि भारत का संविधान देते हुए इसके प्रस्तावक बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने कहा था कि हम प्रत्येक वयस्क के मत के अधिकार के साथ जो लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली अपनाने जा रहे हैं उसके चार मजबूत स्तम्भ होंगे। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका व चुनाव आयोग। लोकतंत्र के दो मजबूत पैर न्यायपालिका और कार्यपालिका स्वतंत्र रहें। एक दूसरे को प्रभावित न करें।


ईवीएम मशीनों को लेकर उठने वाला यह सवाल अपनी जगह पूरी तरह वाजिब और गौर करने लायक है कि जब मतपत्रों की जगह मशीनों से मतदान कराने का फैसला लिया गया तो इसका मूल कारण यह था कि इनकी मार्फत मतगणना की प्रक्रिया को दिनों की जगह कुछ घंटों में ही निपटाया जा सकता है लेकिन मतदान होने के बाद इनकी सुरक्षा के इन्तजाम को पूरी तरह दोषरहित बनाने में चुनाव आयोग ने अपेक्षित कदम नहीं उठाये हैं, इसलिये उनकी निष्पक्षता एवं पारदर्शिता बार-बार चर्चा का विषय बनती रही है, इसको निर्दोष साबित करना चुनाव आयोग का सबसे बड़ा दायित्व है और जिम्मेदारी भी। इसकी प्रक्रिया में नैतिकता अनिवार्य शर्त है। चुनाव के समय हर राजनैतिक दल अपने स्वार्थ की बात सोचता है तथा येन-केन-प्रकारेण चुनाव परिणामों को अपने पक्ष में करना चाहता हैं। यही कारण है कि इसमें नीति और नैतिकता की बात बहुत पीछे छूट जाती है। सत्ताकांक्षी एवं दुराग्रही ऐसेे कदम उठाते है कि गांधी बहुत पीछे रह जाता है। जो सद्प्रयास किये जाते हैं, वे निष्फल हो रहे हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूती देने में मुक्त मन से सहयोग नहीं दिया गया तो कहीं हम अपने स्वार्थी उन्माद में कोई ऐसा धागा नहीं खींच बैठें, जिससे लोकतंत्र की धवलता का पूरा कपड़ा ही उधड़ जाये। अब यह सोचना चुनाव आयोग का काम है कि वह लोकतंत्र की अस्मिता को कैसे बचाये रखता है?


मौजूदा परिदृश्यों में चुनाव आयोग की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है, उसे ही वह इमारत बनानी है जिसमें शेष तीनों स्तम्भ अपनी-अपनी सक्रिय भूमिका निभायेंगे। अतः चुनाव आयोग को संविधान में पूरी स्वतन्त्रता दी गई और राजनैतिक दलों की संवैधानिक स्थिति तय करने का अधिकार दिया गया। उसका सरकार से केवल इतना ही नाता रखा गया कि उसकी प्रशासनिक व आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहे। अतः बिना शक यह माना जा सकता है कि जनता की सरकार जनता के लिये स्थापित कराने का दायित्व चुनाव आयोग का ही है। इस प्रक्रिया के दौरान जब हम विसंगतियों को देखते हैं तो मतदाताओं के विश्वास आहत होता है। विशेषकर ईवीएम मशीनों की गड़बड़ियों को लेकर मध्य प्रदेश में मतदान होने के बाद जिस तरह ईवीएम मशीनों के रखरखाव में लापरवाही बरतने के वाकये सामने आये हैं उनसे चिन्ता होना इसलिए वाजिब है क्योंकि चुनाव आयोग की निगरानी में खलल डालने के प्रयास हुए हैं। चुनाव आयोग के सामने एक गंभीर चुनौती है कि वह अपने दायित्व को पूर्ण विश्वनीयता, ईमानदारी एवं जिम्मेदारी से निभाये। वही सशक्त माध्यम है जिससे लोक के लिए, लोक जीवन के लिए, लोकतंत्र को शुद्ध सांसें मिलेंगी। लोक जीवन और लोकतंत्र की अस्मिता को गौरव मिलेगा।