कैसे सुलझाओगे समाज की गुत्थी यारों! बहुत सोचकर अहले दानिश ने उलझायी है.


इस चुनाव में आर.एस.एस.और उनके थिंक टैंक ने राहुल गांधी से गोत पूछकर ये समझाने की कोशिश की है कि जैसे चुनाव लड़ने लड़ाने या चुनाव में प्रत्याशी होने के लिये गोत्र होना एक अनिवार्य शर्त हो.उधर उत्तराखंड सरकार ने गोत्र टूरिज्म की घोषणा कर दी..इससे दलित, पिछड़े आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के थिंक टैंक को ये समझ आ जाना चाहिए कि यह एक स्वतः स्फूर्त प्रश्न नहीं था.बहुत सोच समझकर किसी प्रयोग शाला में बात को उठाया गया और गोत्रएक अनिवार्य शर्त जैसी चीज लगने लगी...जबकि जीने के लिये आक्सीजन,पानी, हवा, दवाई जैसी अनिवार्य जरूरतें उत्तराखंड की सरकार की प्राथमिकता में नहीं आये. गोत्र को निर्ममतापूर्वक अस्वीकार कर दिया जाना चाहिये था,मगर राहुल गांधी भी उसी जाल में फंस गये,जिनके अगल बगल सैकड़ों सलाहकार तो होंगे ही.अब दलित, पिछड़े,आदिवासियों और अल्पसंख्यक समुदायों को कम से कम इन गोत्र कारखानों से दूर रहना ही चाहिये. और बैठकर विमर्श करना चाहिए कि जब तक हम संघर्ष नहीं करेंगे तब कहीं ऐसा न हो कि पढ़ाई, लिखाई, चुनाव आदि के फार्म में एक कालम बना दिया जाय ,जिसमें गोत्र बताना अनिवार्य हो? और हम जैसे लोग जो गोत्र शब्द से परिचित नहीं हैं, उन्हें गोत्र पूछने के लिए किसी ब्राह्मण के यहाँ दौड़ लगानी पड़े?? इन साजिशों को समझना जरूरी है.हमारे लोग एक तो कम पढ़े लिखे हैं. जो पढ़े लिखे हैं वे एक ही जाति में 30-35 दल बनाकर फिर रहे हैं. जातीय संस्थाओं में तीन- तीन चार -चार राष्ट्रीय अध्यक्ष और महामंत्री बने फिर रहे हैं,कुछ तो ऐसे भी हैं जिन्हें अपनी ही संस्था का हिन्दी अंग्रेजी में न नाम लिखना आता है और न ही उच्चारण करना. ऐसी परिस्थितियों में संघ जैसे शातिर संगठनों से जूझने की सोचना और उस पर क्रियान्वयन की बड़ी चुनौती स्वीकार करना भी एक बड़ा कार्य होगा... चर्चा शुरु तो रहे...सुरेन्द्र कुशवाहा.