महाराष्ट्र की अनुसूचित जनजाति धनगर - राजनीति की शिकार

धनगर महाराष्ट्र की एक आदिम जाति है जो पिछले कई दशकों से अनुसूचित जनजाति की सूची के लाभ पाने के लिए प्रयासरत है । 2014 के लोकसभा चुनाव के थोड़ा पहले, 2013 से ही, धनगरों का अनुसूचित जनजाति का मुद्दा सुर्खियों में तो आया ही, महाराष्ट्र की राजनीति के केन्द्र में भी आ गया है ।


यह केवल संयोग ही है कि मार्च 2012 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश के धनगरों के मामले में फैसला सुनाया, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने जनवरी 2013 में उत्तर प्रदेश में धनगरों के आजादी पूर्व अस्तित्व तथा धनगड, धंगड या धांगर जाति के अस्तित्वहीन होने की रिपोर्ट सौंपी तथा अक्टूबर 2013 में उ. प्र. सरकार ने धनगरों के अनुसूचित जाति के प्रमाणपत्र जारी करने का शासनादेश जारी कर दिया, और इसके बाद महाराष्ट्र के धनगरों में भी नया उत्साह पैदा हुआ जो बड़े आंदोलन में बदल गया ।


आरएसएस एवं बीजेपी ने इस उत्साह को बखूबी भुनाया ; एक गैर राजनीतिक व्यक्ति को आगे करते हुए कांग्रेस-एनसीपी विरोधी आंदोलन खड़ा कर दिया । 2014 की लोकसभा चुनाव की रैलियों में जब नरेन्द्र मोदीजी ने भावुक भाषण देते हुए कहा कि, कांग्रेस की सरकारों ने धनगरों की पीठ में छुरा भौंका है और उनकी बात तक नहीं सुनी तो धनगरों की पूरी जनसंख्या उम्मीदों से गदगद होकर बीजेपी की वोटर बन गई । महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी के देवेन्द्र फडणवीस तथा शिवसेना के सुभाष देसाई ने अपनी पार्टियों की ओर से लिखित में वादा किया कि वे सत्ता में आते ही आरक्षण दिला देंगे । आज विडंबना यह है कि सत्ता में चार वर्ष रह लेने के बाद भी धनगरों को आरक्षण देने की बात तो दूर उनके साथ धोखाधड़ी भी की जा रही है । राज्य सरकार ने मामला टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशियल साइंसेज (टिस्स) को अध्ययन के लिए दे दिया है जो धनगरों को अनुसूचित जनजाति के आरक्षण से हमेशा हमेशा के लिए वंचित करने की सोची समझी साजिश है ।


जहाँ तक धनगर समुदाय के राजनेताओं का सवाल है वे इस मुद्दे के वास्तविक समाधान को समझने में ही असफल रहे हैं । वे जानकारी के अभाव में इस विषय को सुलझाने की जगह उलझाते जा रहे हैं । सरकारें असलियत को जानती हैं और इन्हें इनकी गैर जानकारी का पुरस्कार राजनीतिक पद देकर देती आ रही हैं । वर्तमान स्थिति यह है कि धनगर समुदाय में बीजेपी के विरुद्ध आक्रोश पैदा हो रहा है । छिटपुट धरने, आंदोलन, प्रदर्शन, मोरचे आदि भी आयोजित होने लगे हैं । देखना यह है कि महाराष्ट्र में बिना ठोस जनाधार वाली बीजेपी जो धनगर वोट के आधार पर ही सत्ता पर काबिज हुई है, 2019 के चुनाव में सत्ता में लौटने के लिए इन्हें कैसे लुभाती है, या दूसरी नई कौनसी चाल चलकर इनको बहकाती है ।


धनगर जमात के आरक्षण के विषय पर इधर पिछले चार वर्षौं से एक बुद्धिजीवी वर्ग सक्रिय हुआ है जिसने महारानी अहिल्यादेवी समाज प्रबोधन मंच, महाराष्ट्र राज्य, मुंबई के अध्यक्ष श्री मधु शिंदे, सेवा निवृत्त आईपीएस अधिकारी, डॉ जे पी बघेल, भारतीय दूरसंचार सेवा के सेवानिवृत्त महाप्रबंधक तथा एडवोकेट मुरारजी पाचपोल, महाराष्ट्र विधानसभा के सेवानिवृत्त वरिष्ठ पत्रकार के माध्यम से मुख्यमंत्री, प्रधान सचिव, आदिवासी विकास विभाग, प्रधान सचिव न्याय व कानून विभाग, महाराष्ट्र राज्य को सन् 2015 में सैकड़ों सबूतों के साथ कुल छह प्रतिवेदन दिए हैं जिनका राज्य सरकार ने आज तक कोई संज्ञान नहीं लिया है बल्कि उन्हें मिलने तक का भी समय नहीं दिया है । इन लोगों ने राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग, नई दिल्ली को भी दस्तावेजी सबूत प्रस्तुत किए हैं लेकिन वहाँ से भी कोई उत्तर नहीं दिया गया । राज्य व केन्द्र सरकार के इस रवैये से खिन्न होकर इन्होंने अक्टूबर 2016 में मुंबई उच्च न्यायालय में एक रिट दायर कर दी है जिस पर अप्रिल 2018 तक 15 बार सुनवाई हो चुकी है । सरकार इस रिट में उठाए गए बिन्दुओं पर 8 बार अपना जवाब दाखिल करने का समय माँग चुकी है लेकिन आज के दिन तक कोई जवाब नहीं दे पाई है ।


याचिकाकर्ता बताते हैं कि मामला केवल स्पैलिंग की गलती का है जिसे समझने में हर सरकार ने जानबूझकर लापरवाही की है । महाराष्ट्र राज्य की अनुसूचित जनजाति की सूची में क्रमांक 36 पर Dhangad अंकित है जबकि सही नाम Dhangar  होना चाहिए था । इसके देवनागरी रूपांतर में भी धोखाधड़ी हुई है । Dhangad का अधिकृत देवनागरी रूपांतर राज्य के लिए धनगड किया गया है तो केन्द्र में धांगड है । राज्य सरकार ने अपने कुछ राजपत्रों-शासनादेशों मे इसे धनगर भी छापा हुआ है । धनगड (अंग्रेजी में Dhangad) नाम महाराष्ट्र के संबंध में विदर्भ क्षेत्र तथा मध्य प्रदेश के लिए पहली बार 1956 में राज्य पुनर्गठन कानून 1956 के अंतर्गत बौम्बे प्रेसीडेन्सी एवं मध्य प्रदेश की अनुसूचित जनजातियों की सूची में देखने को आया, जबकि अध्ययन में पाया गया है कि 1881 से लेकर 1931 तक (60 वर्षों में) हुई किसी भी जातिवार जनगणना में तथा 1941 व 1951 की जनगणनाओं में भी Dhangad नाम की कोई भी जाति, उपजाति, जनजाति या उपजनजाति नहीं पाई गई । पूरे 80 वर्ष में एक भी व्यक्ति या वस्तु की पहचान ऐसे नाम से नहीं हुई जिसे Dhangad धनगड कहा गया हो । यहाँ एक प्रश्न स्वाभाविक रूप से पैदा होता है कि डॉ बाबासाहब अंबेडकर के गृह प्रदेश महाराष्ट्र व मध्यप्रदेश में धनगड नाम की जनजाति अस्तित्वहीन हो और उसका नाम सूची में शामिल हो जाए । यह कैसे हो सकता है कि जिस नाम की कोई जाति अस्तित्व में ही न हो परंतु सूची में नाम दर्ज हो जाए । आनुवांशिकीय, सामाजिक, ऐतिहासिक एवं जनगणना संबंधी ग्रंथ यही साबित करते हैं कि धनगड नाम की कोई जाति, उपजाति, जमात, उपजमात, वर्ग या समुदाय अस्तित्व में नहीं है । इसका सीधा सा मतलब यही निकलता है कि क्रमांक 36 पर धनगर अंकित होना था किंतु किसी की गलती से धनगड अंकित हो गया ।


उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि आजादी के बाद भी, किसी भी सरकारी अनुसंधान संस्था, अनुसूचित जनजाति आयोग या सरकारी विभाग या विश्वविद्यालय ने, धनगड जनजाति पर एक भी अध्ययन नहीं किया है जबकि 1961 से 2011 तक की हर जनगणना में महाराष्ट्र के हर जिले में धनगड जनजाति की आबादी दिखा दी गई है । इस स्थिति में यह सवाल स्वाभाविक है कि 1961 से 2011 के बीच हुई जनगणनाओं में दर्ज धनगड नाम के वो लोग कौन हैं जो 1951 तक अस्तित्वहीन थे परंतु एक नए नाम के साथ अचानक हजारों की संख्या में अवतरित हो गए । न्यायालय द्वारा इस विषय पर इसलिए विचार किया जाना आवश्यक है कि सरकारी तंत्र आजादी के 71 साल बाद भी न्याय नहीं देना चाहता ।


यहाँ यह भी बताना प्रासंगिक होगा कि मध्य प्रदेश में एक सामाजिक कार्यकर्ता ने 53 ऐसी जातियों जनजातियों की सूची म. प्र. उच्च न्यायालय को दी थी जिनकी स्पैलिंग में गलती थी । धनगर भी इसमें शामिल है । उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को स्पैलिंग ठीक करने का आदेश दे दिया लेकिन सरकार फिर भी चुप बैठी रही । इस पर अवमानना का केस करने के बाद राज्य सरकार स्पैलिंग सुधारने का उपक्रम कर रही है ऐसा हमारी जानकारी में आया है ।


महाराष्ट्र सरकार ने टाटा समाज विज्ञान संस्थान को धनगरों पर अध्ययन करने का काम सौंपा है । जबकि आवश्यकता यह थी कि महाराष्ट्र में धनगड जमात के अस्तित्व का पता लगाया जाता । महाराष्ट्र सरकार इस मुद्दे पर संवेदनशील होने का स्वांग कर रही है परन्तु उनकी नीयत में खोट ही नहीं, बल्कि चालाकीभरी बेईमानी भी साफ दिखती है । सरकार न्यायालय में याचिका का उत्तर देने में असमर्थ भी है और जानबूझकर उत्तर नहीं देना चाहती । असल बात ये है कि राज्य सरकार चाहे तो आज का आज स्पैलिंग सुधारने का आदेश जारी कर सकती है,  इसमें कोई कानूनी अड़चन नहीं है । इस बारे में उच्चतम न्यायालय की 5 जजों की संवैधानिक पीठ का फैसला उपलब्ध है जिसके आधार पर केरल उच्च न्यायालय के भी दो आदेश आ चुके हैं । सरकार चाहे तो एक ही दिन में धनगरों को अनुसूचित जनजाति का आरक्षण लागू करने का शासनादेश जारी कर सकती है । महारानी अहिल्यादेवी समाज प्रबोधन मंच द्वारा इतना सब सन् 2015 में ही सरकार के संज्ञान में लाया जा चुका है । उच्च न्यायालय में रिट भी दायर हो चुकी है, तब भी सरकार ऐसा कुछ कर नहीं रही है तो इन बातों से साफ समझा जा सकता है कि सरकार के मन में धनगर मुद्दे के प्रति ईमानदारी नहीं है ।


मंच ने अपनी याचिका में यह भी सिद्ध किया है कि आजादी के बाद के लगभग 70 सालों में धनगड नाम की जमात का अनुसूचित जनजाति को मिलने वाले लाभों को पाने वाला एक भी व्यक्ति महाराष्ट्र भर की किसी भी तहसील में नहीं मिला है । यही कारण हो सकता है कि सरकार याचिका का उत्तर नहीं दे पा रही ।


लोगों का यह मानना कि धनगड व धनगर भिन्न जमात हैं बिलकुल गलत है । वे मानते हैं कि धनगड़ उराँव की एक उपजमात है तथा धनगर उराँव से  भिन्न दूसरी जाति है । इसके पीछे पुणे स्थित आदिवासी अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान की एक रिपोर्ट है जो सन् 2006 में इसने सरकार को सौंपी थी । लेकिन इस रिपोर्ट में महाराष्ट्र में धनगड जमात के अस्तित्व के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा गया है । इस संस्थान ने उस रिपोर्ट में झारखंड, बिहार तथा उड़ीसा में धांगड नाम की जनजाति के होने की बात लिखी है और उसी आधार पर निर्णय दिया है कि महाराष्ट्र की धनगड और धनगर भिन्न भिन्न जातियाँ हैं । इसी रिपोर्ट का हवाला देकर केन्द्र तथा राज्य सरकार धनगरों को अनुसूचित जनजाति के आरक्षण से वंचित करती आ रही हैं । सरकार इस बात की सरासर अनदेखी कर रही हैं कि किसी भी राज्य विशेष में जाति अथवा जनजाति विशेष को आरक्षण उसकी उसी राज्य विशेष में सामाजिक, शैक्षणिक स्थिति के आधार पर दिया जाता है न कि पड़ौसी राज्य में उस जाति जनजाति की स्थिति को देखकर ।


आश्चर्य का विषय है कि धनगर जमात के राजनेता महाराष्ट्र में धनगड जमात के अस्तित्व पर पूरी तरह मौन हैं । विधान परिषद हो, विधानसभा हो, राज्यसभा हो या लोकसभा वे अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टी के आकाओं के भौंपू या तोतों की तरह बोलते हैं । वे जितना बोलते हैं उससे मुद्दे का हल नहीं निकल सकता बल्कि मुद्दा अटक जाता है । एक भी राजनेता ने आज तक अपने मुँह से यह नहीं कहा कि सरकार न्यायालय में अपना उत्तर दे दे । समाज के सामने ये राजनेता एक वाक्य कह देते हैं सरकार सकारात्मक है । समाज भरोसा कर लेता है और गुमराह हो जाता है । समाज को सही बात  बताने की जिससे उम्मीद की जा सकती है वह है धनगर जमात का नौकरीपेशा, पढ़ालिखा वर्ग । विडंबना है कि यह वर्ग भी ज्यादातर इन्हीं राजनेताओं का पिट्ठू बना हुआ है, और वह भी स्वतंत्र रूप से सोचने या गंभीर अध्ययन करने में पूरी तरह असफल सिद्ध हुआ है ।


ऐसे समय में महारानी अहिल्यादेवी समाज प्रबोधन मंच के इन सेवानिवृत्त लोगों ने गहन अध्ययन व परिश्रम करके कानूनी व दस्तावेजी सबूतों की जानकारी को महाराष्ट्र के अनेक जिलों में जाकर पॉवर पॉइन्ट प्रजेंटेशन के माध्यम से पहुँचाया है तथा इसके उपरांत आम राय से मुंबई उच्च न्यायालय में याचिका दायर की है जिस पर लगभग हर महीने सुनवाई हो रही है ।


जैसे-जैसे इस मुद्दे की जानकारी धनगर जमात के लोगों तक पहुँच रही है, सरकार की नीयत पर भी सवाल उठने लगे हैं । धनगर जमात के लोगों का विश्वास अपने राजनेताओं पर से भी उठता जा रहा है । प्रबोधन मंच के लोग आरक्षण की न्यायालीन लड़ाई के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं तथा वे इस लड़ाई को उच्चतम न्यायालय तक लड़ने को कटिबद्ध दिखाई देते हैं । देखना यह भी है कि राज्य व केन्द्र में सत्तासीन बीजेपी सरकार इस मामले पर कब तक बेरुखी दिखाती है और 2019 के चुनाव में धनगरों को किस प्रकार अपने पाले में रखने की कोशिश करती है । मुंबई उच्च न्यायालय में मामला अंतिम चरण में है । देखना है सरकार कब तक अपना जवाब दाखिल नहीं करती । सरकार देर भले ही कर ले, धनगरों की न्यायालीन विजय को रोक नहीं पाएगी । इधर धनगर जमात में बीजेपी सरकार के प्रति रोष भी बढ़ता ही जा रहा है । तय है कि 2019 में बीजेपी येन केन प्रकारेण सत्ता में पुनः लौटना चाहेगी । धनगरों के वोट उसे जरूर चाहिए । हो सकता है बीजेपी 2019 में कोई दूसरा ही खेल खेले । धनगर जमात को सतर्क रहने की जरूरत है । वैसे, आगे आने वाला समय काफी रोचक होगा, इसमें संदेह नहीं ।