आहिल्याबाई होलकर एक ‘पुण्यश्लोक एवं धर्मपरायण स्त्री


अहिल्याबाई होलकर को ‘पुण्यश्लोक' एवं 'धर्मपरायण' राज्यकर्ता स्त्री के रूप में देश-विदेश में जाना जाता है। उन्हों ने ही मुसलमान आक्रमकों द्वारा ध्वस्त सहस्त्रों मंदिर, नदियों के घाट बनवाए। उन्हीं के कारण हिंदू धर्म एवं हमारे मंदिर, तीर्थ क्षेत्र सुरक्षित रह पाए। आईए, उनके चरणों में शत- शत नमन करते हैं और प्रार्थना करते हैं कि उनके समान धर्माचरण करने एवं धर्म मार्ग पर चलने का हमें बल मिले।


धर्मज्ञ अहिल्याबाई : अहिल्याबाई होलकर को ‘पुण्यश्लोक' इस उपाधि से संबोधित किया जाता है। वे मालवा प्रांत की शासक थी। मल्हाररावजी होलकर, जो मराठा साम्राज्य के ज्येष्ठ बाजीराव प्रधानमंत्री की (पेशवा) सेना में एक सेनानी (सरदार) थे, अहिल्याबाई उनकी बहू थी। पुत्र की मृत्यु के पश्चात् मल्हाररावजी ने यह कहकर उन्हें 'सती' होने से रोक दिया, “तुम मुझे अनाथ बनाकर मत जाना। जिसका निधन हुआ वह अहिल्या थी और जो जीवित है उसे मैं खंडेराव मानता हूं। इसलिए तुम सती न हो जाना।'' पुण्यश्लोक राजमाता अहिल्यादेवी को, ‘तत्वज्ञानी रानी कहकर संबोधित किया जाता हैइसका संदर्भ कदाचित् ‘तत्वज्ञानी राजा भोज के साथ होगा। उनके पिताजी माणको जी शिंदीयाने उस समय स्त्री शिक्षा का प्रचलन अधिक न होते हुए भी उनको पढ़ना-लिखना सिखाया था। वर्ष 1754 में कुम्हेर की लड़ाई में अहिल्या देवी के पति खंडेराव मारे गए। 12 वर्ष पश्चात् ससुर मल्हारराव का भी निधन हो गया।


कुशलशासक : वर्ष 1766 से 1785 तक, अर्थात् अपनी मृत्युतक मल्हारराव जी जैसे कुशल सेनानी से शिक्षा प्राप्त कर वह प्रशासकीय तथा सेना के कामकाज में निपुण हो गई थी। उसी के आधार पर अहिल्याबाई ने मालवा प्रदेश पर राज्य किया। वर्ष १७६५ में मल्हारराव जी ने उन्हें लिखे पत्र से ध्यान में आता है कि उनका अहिल्याबाई के कर्तृत्व पर बहुत विश्वास था। ‘आप चंबल नदी पार करके ग्वालियर जाएं। वहां 4-5 दिन रह सकती हैंबडी सेना रख सकती हैं एवं उनके शस्त्रों के लिए जो आवश्यक है, उसका उचित प्रबंध कर सकती हैं। निकलते समय मार्ग पर सुरक्षा हेतु सेना की चौकियां बिठा दें। पहले ही एक कुशल शासक के रूप में प्रसिद्ध होने से मल्हाररावजी तथा पुत्र के मृत्यु के उपरांत स्वयं राज्य करने के लिए उन्होंने प्रधानमंत्री (पेशवा) से अनुमति मांगी। मालवा में उनके शासक बनने के लिए अनेक लोगों का विरोध था; परंतु होलकरों की सेना उनके नेतृत्व में कार्य करने के लिए उत्सुक थी। प्रधानमंत्री से अनुमति मिलते ही जिस ब्राह्मण ने उनका विरोध किया था, उसे पुन: चाकरी में लिया और तुकोजीराव होलकर को सेनापति नियुक्त कर, मालवा का शासन संभाला। वे नित्य प्रति सेना के संचलन में अपनी अंबारी में चार धनुष्य और तूणीर रखती थीं। वे प्रतिदिन जनता की राजसभा (दरबार) बुलाती थीं और उनका कष्ट निवेदन सुनने को सदा तत्पर रहती थीं। वे युद्ध में सेना का नेतृत्व भी करती थीं। वे न्यायदान के लिए बहुत प्रसिद्ध थीं।


स्वयं के पुत्र के अयोग्यवर्तन के लिए उन्होंने उसे हाथी के पैरों तले कुचलने का दंड दिया। मालवा में लगभग 30 वर्ष तक उनका शासनकाल चला। प्रजा के लिए यह काल किसी सुनहरे स्वप्न समान था, जिसमेंप्रजा सुखी-संपन्न थी और योग्य शासक तथा विधि-निर्वधका (कायदा-कानून) राज्य था। उनके चरित्र से यह ध्यान में आता है कि यदि राजा अर्थात् शासक धर्माचरणी होतो प्रजा भी धर्माचरणी होती है और धर्माधिष्ठित राज्य प्रणाली ही योग्य राज्य प्रणाली होती है।


अहिल्याबाई की सूक्ष्म राजकीय दृष्टि : ब्रिटिशों के साथ संधि करने के संबंध में उन्होंने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा था, उसमें उन्होंने सूचना दी थी कि ब्रिटिशों के साथ निकटता बढाना, रोगा। अन्य प्राणि किसी भी शक्ति और युक्ति से मारे जा सकते हैं, परंतु भालू को मारना बहुत कठिन होता हैएक बार यदि भक्ष्य उसकी दृढ़ पकड़ में फंस गया, तो वह उसको गुदगुदी करके हंसा-हंसाकर मारता हैभालू के मुख पर प्रहार करने से ही वह मरता है, अन्यथा उस भक्ष्य की मृत्यु निश्चित है और अंग्रेज भालू के समान ही है। अत: हमें अत्यंत सावधान रहने की आवश्यकता है।


धर्माचरण एवं देव, धर्म की रक्षा वे स्वयं धर्मा चरण में दृढ़ विश्वास रखती थीं और अपनी प्रजा के धर्माचरण की ओर केवल ध्यान ही नहीं देती अपितु धर्माचरण के लिए प्रोत्साहित भी करती थीं। वे ‘शिवभक्त' थीं, उन्होंने 12 ज्योतिर्लिगों में से कुछ ज्योतिर्लिगों की स्थापना की हैउनके धार्मिक कार्यों में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है, मुसलमान आक्रमकों द्वारा अपवित्र एवं ध्वस्त किया हुआ सोरटी सोमनाथ और काशी का विश्वनाथ मंदिर तथा शिवपिंडी का पुर्ननिर्माण, जहां आज भी पूजा-पाठ होता है। प्रजा को अनेक धार्मिक उत्सव मनाने के लिए प्रोत्साहित किया। मंदिरों में अखंड पूजा-पाठ होते रहने के लिए मंदिरों को भूमि दान दी। हिमालय से लेकर दक्षिण भारत के अनेक तीर्थ क्षेत्रों तक अनेक मंदिर, घाट, कुएं, तालाब एवं विश्राम-गहों का निर्माण किया।


उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय, अंग्रेजी एवं अन्य इतिहासकार यह मानते हैं कि अहिल्या देवी को मालवा एवं महाराष्ट्र में उस समय भी और आज भी संतों के जैसा सम्मान दिया जाता है। यह संतत्व उन्हें उनके धर्माचरण के बल पर ही मिला थामराठों के कुशल प्रशासक नाना फडणवीस और उनकी प्रजा के मतानुसार वह एक दिव्य अवतार थीं। इसी संतत्व के बल पर ही वे अपने पुत्र को मृत्युदंड दे पाई। उनके जवांई श्री. यशवंतराव फानसे की मृत्यु के पश्चात् जब उनकी कन्या ने 'सती' होने की सोची, तो उन्होंने स्वीकार किया।


कुछ आक्षेप :


1. पूर्व काल में भारतीय स्त्री चाहे किसी भी जाति-धर्म की हो उसे शुद्र समझकर ही उसके साथ व्यवहारकिया जाता था। उनके लिए प्राचीनकाल में सती अनसूया, सती अरुंधती जैसी ऋषि पत्नियां, गार्गी, मैत्रेयी जैसी विदुषियां, रानी अहिल्याबाई, महारानी तारारानी, रानी लक्ष्मीबाई (झांसी), रानी चिन्नमा, रानी दुर्गावती जैसे अनेक उदाहरण हैं, जिससे स्त्रियों को कितना सम्मान मिलता था, यह सिद्ध होता है।


2. पति के साथ सती हो जाना पुण्य है, ऐसा बंधन स्त्री पथा। ऐसा कोई बंधन नहीं था, यदि कोई स्त्री स्वेच्छा से सती जाना चाहती तो उसका सम्मान अवश्य होता था। यह पुण्य कर्म इसलिए माना जाता है कि सती जाना कोई खेल नहीं होता, अपितु वह एक प्रकार से आत्मयज्ञ ही होता है। आज की स्त्री दिल्ली के मार्गों पर अधनंगा रहना हमारी व्यक्ति स्वतंत्रता है, यह कह कर निदर्शन करती हैं, क्या उसमें इस प्रकार धार्मिक विधि के अनुसार सती होने का साहस है? आक्षेप लेने वाले क्या इस प्रकार का साहस कर सकते हैं? नहीं! क्योंकि उनकी दृष्टि में सती होना केवल जलकर मरना होता हैवह क्या जाने सतीत्व का अर्थ। किसी भी धार्मिक बात पर बोलने के लिए व्यक्ति की बुद्धि सात्विक, शुद्ध ज्ञान से परिष्कृत ‘प्रज्ञा' होनी चाहिए और ऐसी ‘प्रजामेधा' तो शुद्ध हेतु से धर्म का कृति रूप अध्ययन करने से मिलती है।


3. उस समय महाराष्ट्र में हिंदवी स्वराज्य के नाम पर प्रधानमंत्री (पेशवा) ने उधम मचाया थाउसके विरुद्ध क्रांतिकारी विद्रोह कर अहिल्या बाई ने राज्य के कार्यकाज का सूत्र अपने हाथ में लियाऐसा सरासर झूठ लिखने वालों की बुद्धि एवं हेतु कितना शुद्ध होगा, यह ध्यान में आता है, क्योंकि अहिल्याबाई ने स्वयं राज्य चलाने के लिए प्रधानमंत्री (पेशवा) से अनुमति मांगी थी और पेशवा ने भी बिना किसी हिचकिचाहट के अनुमति दी थी। इतना ही नहीं अंग्रेजों के विषय में वह पेशवा को अपना समझकर ही सुझाव भी देती हैं।


4. शिवराय के हिंदवी स्वराज्य का झंडा अटक के पार गाढने वाले और मध्यप्रदेश में हिंदवी स्वराज्य स्थापित करने वाले मल्हाररावजी होलकर। छत्रपति शिवाजी महाराज ने हिंदवी स्वराज्य का झंडा अटक (स्थान का नाम) के पार गाढा था, मराठों के प्रधानमंत्री (पेशवा) राघोबा दादा और मल्हाररावजी उनकी सेना में अनेक सेनानियों में से ही एक पराक्रमी सेनानी थे। मध्यप्रदेश में ‘हिंदवी स्वराज्य की स्थापना' नामक कोई स्वराज्य नहीं थाजो भी प्रदेश होलकरों के अधिकार में था, वह मराठा राज्य का ही एक अंश था इसीलिए स्वयं अहिल्याबाई ने प्रधानमंत्री की अनुमति से ही राजकार्य संभाला था।


5. पति की मृत्यु के पश्चात् रूढि परंपरा के अनुसार सती होने के समय अहिल्याबाई आई; परंतु जनता के लिए निर्माण किया हुआ राज्य प्रधानमंत्री के (पेशवा) हाथों में जाने से प्रजा को कष्ट होगा, इसलिए पाखंडी धर्म की श्रृंखलां तोडकर अहिल्याबाई को सती जाने से रोका और उसके हाथों में राज्य का कार्यकाज सौंपा। अहिल्याबाई ने सती होने की परंपरा तोड़कर लोक-निंदा को तुच्छ मानकर, मेरे मरने पर मुझे सुख मिलेगा; परंतु जीवित रहने पर अपने लाखों प्रजाजनों को सुख मिलेगा, इसलिए सती न होकर धर्म के विरुद्ध पहला क्रांतिकारी विद्रोह किया। धर्म के नाम पर भारतीय स्त्री को शिक्षा का, राज्य करने का अधिकार नहीं था। आक्षेप लेने वाले यह मानते हैं कि 'सती' जाने से ‘सुख मिलता है, यह अहिल्याबाई जानती थी, तब भी धर्म को पाखंडी मानना, धर्म के विरुद्ध विद्रोह करना, धर्म की श्रृंखलाएं तोडने का प्रश्न ही कहां उठता है? इतना ही नहीं स्वयं उनकी पुत्री उनकी अनुमति से ही 'सती' हुई थी और धर्म की स्थापना करने में उन्होंने अतुलनीय योगदान दिया। आज भी हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक उनकी पहचान धार्मिक कार्यो के कारण ही टिकी है। उनको बचपन में ही उनके पिताजी ने पढ़ना-लिखना सिखाया था। राज्य तो मराठा छत्रपति का था, पेशवा तो केवल छत्रपति के प्रधानमंत्री थे और उन्हीं की अनुमति से अहिल्याबाई राजकार्य संभालती थी।


6. वह केवल ‘गडरिया' (धनगर) समाजके (जाति) के लिए ही नहीं, अपितु संपूर्ण भारतीय जनता के लिए आदर्श हैं। उपरोक्त वाक्य से यह स्पष्ट होता है कि किस प्रकार धर्मपरायण एवं पुण्यश्लोक के रूप में जानी जाने वाली अहिल्याबाई को संकीर्ण, क्षुद्र मनोवृत्ति और विकृत विचारों के लोग कैसे 'जाति' का चिन्ह (लेबल) लगाकर उनकी विशाल तथा पवित्र प्रतिमा को विकृत करते हैंऔर समाज मन में भी विष घोलते हैं।