अच्छी है वृद्धि तो वृद्ध क्यों नहीं?


ब्रह्म संपूर्णता है, व्यक्तिपरक सत्ता नहींईश्वर का पर्याय नहीं। ईश्वर आस्था है और ब्रह्म वास्तविकतासंस्कृत में ब्रह्म का अर्थ ‘सतत् विस्तारमान संपूर्णता है। यह संपूर्णता प्रत्यक्ष है। इस संपूर्णता में लगातार वृद्धि होती रहती है। हम ब्रह्म का भाग हैं। अविभाज्य और अखण्ड अंग। सो हम सबके जीवन में भी वृद्धिशीलता का यह गुण धर्म घटता रहता है। प्रतिपलउगना, खिलना, पकना, महकना ब्रह्म के भीतर ही घटता हैजन्म उगना है। खिलना और खिलखिलाना बचपना है। ऊर्जा का अतिरेक तरूणाई है। सारा खेल वृद्धिशीलता का। वृद्धि जारी रहती है। वृद्धि का चरम है वृद्ध होना। समय की नाप में हम इसे वयोवृद्ध कहते हैं। वयोवृद्ध का अर्थ है - उम्र के कारण हुई वृद्धिसमय पर ध्यान न दें तो भी वृद्धि अपना काम करती ही है। हम जन्म के दिन से ही बढ़ने लगते हैं। हम इसे रोक नहीं सकतेवृद्धि रोकने की इच्छा भी मूर्खता हैकौन अपनी वृद्धि नहीं चाहेगा लेकिन वृद्धि के चरम से सब डरते हैंवृद्ध होना कोई भी नहीं चाहता। आश्चर्य है कि हम सब अपनी वृद्धि तो चाहते हैं लेकिन वृद्ध होने से डरते हैं।


शिशु होना सौन्दर्यपरक है लेकिन स्वयं को इस सौन्दर्य का अनुभव नहीं होता। संभव है कि शिशु को भी अपने सुन्दर होने का मजा आता हो लेकिन स्मृति इसे संजो नहीं पाती। शिशु वृद्धि पाता है। वृद्धि स्वाभाविक ही आनंदकारी है। बचपन का बोध सिद्ध संन्यासी से भी बड़ा होता है। जीवन खेल होता है तबवृद्ध का अगला चरण अतिरिक्त ऊर्जा से अरूण और उम्र से तरूण होना है। तरूणाई का अपना सौन्दर्य है। सौन्दर्य का आकर्षण भी बढ़ता है। संसार घेरता है। कामनाएं ठाढ मारती हैं। स्वप्न बढ़ते हैं और घेरते भी हैं। सोते हुए देखे गए स्वप्नों की तुलना में जागते हुए देखे गए स्वप्न ज्यादा दंश देते हैं। वृद्धि का गुण धर्म अपना काम करता रहता है। अनुभाव बढ़ते हैं। संसार की समझ बढ़ती हैबुद्धि बढ़ती हैसतर्क न रहें तो बुद्धि में एकत्रित तथ्य चतुराई की ओर ले जाते हैं। बुद्धि का लोकमंगलकारी निष्कर्ष विवेक बनता है और निजी दुरूपयोग चतुराई। सुजान चतुर हो जाते हैंवृद्धि जारी रहती है।


वृद्धि स्वाभाविक अभिलाषा हैहम बढ़ती को नहीं रोक सकते हैं। यह संपूर्णता का गुणधर्म है ही। तरूणाई का विकास होता है। हम अपने स्वप्नों को यथार्थ बनाने के लिए जुटे रहते हैं। सहस्त्रों अभिलाषाएं और सहस्त्रों योजनाएं। जीवन का सौन्दर्य संघर्ष बन जाता है। ऐसे लोग जीवन को संघर्ष बताते हैं। वस्तुतः जीवन संघर्ष नहीं होता। ब्रह्म की हरेक इकाई में वृद्धि होती ही रहती है। संसार देखने की सबकी अपनी दृष्टि है। कुछ लोगों को यह संसार युद्धभूमि प्रतीत होता है तो कुछ लोगों को आनंद प्राप्ति का क्षेत्र। लेकिन आनंद संघर्ष का परिणाम नहीं होता। हम संघर्ष के रास्ते आनंद खोजते हैं और आनंद नहीं मिलता। वृद्धि अपना काम करती है। हम वृद्ध हो जाते हैं। वृद्ध होना परम सौभाग्य है। बचपन का अपना मजा हैजवानी का अपना सौन्दर्य है। वृद्धावस्था के सौन्दर्य का क्या कहना? कच्चे फल में रस, रूप और गंध का अभाव होता हैजवानी ऐसी ही होती है। पके फल का रूप सौन्दर्य आकर्षक होता हैवह रसपूर्ण होता है। सुगंधित भी होता है।


ऋग्वेद के एक प्रेमपूर्ण मंत्र में वशिष्ठ ने यंबक रूद्र में कहा है कि हम यम्बक की आराधना करते हैं। वे सुगंधि पुष्टवर्धनम्हैंवे हमे पके फल की तरह मृत्युबंधन से मुक्त करेंवृद्ध होना पका फल होना हैरसपूर्ण, परिपक्व और समग्र परिपूर्ण। लेकिन हम इससे बचना चाहते हैं। हमें सारी वृद्धियां स्वीकार हैं लेकिन वृद्धि नहीं। हम औषधियां खोजते हैंबाल काला करने के रसायन का प्रयोग करते हैं। हम वृद्ध होने के स्वाभाविक परिणाम को छुपाना चाहते हैं। उषाकाल के सूर्य को उगते हुए ध्यान से देखना चाहिएवैदिक ऋषियों ने अपने गीतों में इसका स्तवन नीराजन उपासन किया है। संध्या काल का सूर्य भी ऐसा ही होता हैवैसी ही आभा, प्रभा, दीप्ति और अनुकम्पा लेकर वह हमारे ऊपर अनुग्रह की वर्षा करता है। इसीलिए संध्योपासन की महत्ता है।


दोपहर का सूर्य आराध्य नहीं होतासो क्यों? तब उसकी किरणें तीखी होती हैं। मेरे लेखे सूर्य हमारे संरक्षक हैं। हम पृथ्वी पर हैं। पृथ्वी हमारी माता है। माता उन सूर्य देव की परिक्रमा करती है। सूर्य का प्रकाश हमारे जीवन का आधार है लेकिन दोपहरी उनकी तरूणाई है। हम भारतवासियों का सौन्दर्यबोध गहरा है। हम शिशु में गहरा सौन्दर्य देखते हैं और वृद्धि में गहरे के साथ आकाश जैसा चरम सौन्दर्य प्रातः के सूर्य आराध्य है और संध्या के सूर्य भीहम अपने पूर्वजों के कल्पित चित्र बनाते हैं। वैदिक काल के ऋषि कवि विश्वामित्र, वशिष्ठ या वामदेव को हम वृद्धावस्था के चित्रों में ही देखना चाहते हैंकालिदास जैसा रसपूर्ण काव्य सृजन दुनिया के किसी कवि में नहीं मिलता। तरूणाई का वैसा काव्य चित्रण भी अन्यत्र नहीं। लेकिन हम कालिदास की वृद्धावस्था का ही चित्र बनाते हैं। इसलिए कि अनुभव और अनुभूति की गहराई में जाने के लिए वृद्धि का वृद्ध तल जरूरी है।


वृद्ध का सौन्दर्य अनूठा है। कविता तरूणाई है। गीत गायन अनुभूति की परिपक्वता है लेकिन काव्य और गीत का मंत्र हो जाना कविता का चरम है। महाभारत के कृष्ण वृद्ध होकर ही गीता बोलते हैंभीष्म दुनिया का सारा ज्ञान वृद्ध होकर ही उड़ेलते हैं। जवानी में तो वे अपने भाइयों के लिए कन्या अपहरण जैसा काम करते हैंप्राचीन काल की सभा समितियों में वृद्धों की आदरणीय भूमिका रही है। आधुनिक काल में गांधी वृद्ध होकर राष्ट्रपिता हो जाते हैं और जय प्रकाश नारायण लोकनायक। तरूणाई प्रेय है और वृद्ध होना श्रेय। प्रेय की अपनी भूमिका है और श्रेय की अपनी। तरूणाई वृद्धावस्था के आनंद की तैयारी का प्रेमपूर्ण अवसर होती है। आज के तरूण भविष्य के अनुभवी वृद्ध हैं। आज के वृद्ध भूतपूर्व तरूण हैं। भारतीय संस्कृति में भूतपूर्व का आदर रहा है लेकिन आयातित सभ्यता में वृद्धों को सम्मान नहीं मिलता। यह बहुत दुखद अवसर है।


धनगर चेतना , मार्च 2017