बलवर्धक रसायन अश्वगंधा क्षय रोग में भी है लाभकारी


अश्वगंधा एक बलवर्धक जड़ी है जिसके गुणों को आधुनिक चिकित्सकों ने भी माना है। इसका पौधा झाडीदार होता है। जिसकी ऊंचाई आमतौर पर 3-4 फुट होती है। औषधि के रूप में मुख्यतः इसकी जड़ों का प्रयोग किया जाता है। कहीं-कहीं इसकी पत्तियों का प्रयोग भी किया जाता है। इसके बीज जहरीले होते हैं। असगंध बहमनेवरीं तथा बाराहरकर्णी इसी के नाम हैं। अश्वगंधा या वाजिगंधा का अर्थ है अश्व या घोड़े की गंध। इसकी जड़ 4-5 इंच लंबी, मटमैली तथा अंदर से शंकु के आकार की होती है, इसका स्वाद तीखा होता है। चूंकि अश्वगंधा की गीली ताजी जड़ से घोड़े के मूत्र के समान तीव्र गंध आती है इसलिए इसे अश्वगंधा या वाजिगंधा कहते हैं। इस जड़ी को अश्वगंधा कहने का दूसरा कारण यह है कि इसका सेवन करते रहने से शरीर में अश्व जैसा उत्साह उत्पन्न होता है।


अश्वगंधा की जड़ में कई एल्केलाइड पाए जाते हैं, जैसे ट्रोपीन, कुस्कोहाइग्रीन, एनाफैरीन, आईसोपेलीन, स्यूडोट्रोपीन आदि। इनकी कुल मात्र 0.13 से 0.31 प्रतिशत तक हो सकती है। इसके अतिरिक्त जड़ों में स्टार्च, शर्करा, ग्लाइकोसाइडस-होष्ट्रिया कान्टेन तथा उलसिटॉल विदनॉल पाए जाते हैं। इसमें बहुत से अमीनो अम्ल मुक्त अवस्था में पाए जाते हैं इसकी पत्तियों में एल्केलाइड्स, ग्लाइकोसाइड्स एवं मुक्त अमीनो अम्ल पाए जाते हैं। इसके तने में प्रोटीन कैल्शियम, फास्फोरस आदि पाए जाते हैं। अश्वगंधा मुख्यतः एक बलवर्धक रसायन है सभी प्रकार के जीर्ण रोगों और क्षय रोग आदि के लिए इसे उपयुक्त माना गया है। इसके लिए अश्वगंधा पाक का प्रयोग किया जा सकता है। इसे बनाने के लिए एक किलो जौ कूट कर अश्वगंधा को बीस किलो जल में उबाल लें। जब यह मिश्रण 02 किलो शेष रह जाए तो इसे छान लें। इसमें 02 किलो शक्कर मिलाकर पकाने पर पाक तैयार हो जाता है। इस पाक की एक चम्मच मात्रा बच्चों को दिन में दो बार (सुबह तथा शाम) दी जानी चाहिए। बड़ों को यही पाक दुगनी मात्रा में दिया जाना चाहिए। इसके अलावा अश्वगंधा का चूर्ण 15 दिन दूध, घी अथवा तेल या पानी के साथ यदि बच्चों को दिया जाता है तो उनकी शरीर तेजी से पुष्ट होता है।


अश्वगंधा शरीर की बिगड़ी हुए व्यवस्था को ठीक करने का कार्य भी करती है। एक अच्छा वातशामक होने का कार्य भी करती है। एक अच्छा वातशामक होने के कारण यह थकान का निवारण भी करती है। यह हमारे जीव कोषों की, अंग-अवयवों की आयु वृद्धि भी करती है और असमय बुढ़ापा आने से रोकती है। सूखे रोग के उपचार के लिए इसके तने की सब्जी खिलाई जाती है। प्रसव के बाद महिलाओं को बल देने के लिए भी अश्वगंधा का प्रयोग किया जाता है।


अश्वगंधा के चूर्ण को एक-एक ग्राम मात्रा दिन में तीन बार लेने पर शरीर में हीमोग्लोबिन लाल रक्त कणों की संख्या तथा बालों का काला पन बढ़ता है। रक्त में घुलनशील वसा का स्तर कम होता है तथा रक्त कणों के बैठने की गति भी कम होती है। अश्वगंधा के प्रत्येक 100 ग्राम में 789.4 मिलीग्राम लोहा पाया जाता है। लोहे के साथ ही इसमें पाए जाने वाले मुक्त अमीनो अम्ल इसे एक अच्छा हिमोटिनिक (रक्त में लोहा बढ़ाने वाला) टॉनिक बनाते हैं। कफ तथा वात संबंधी प्रकोपों को दूर करने की शक्ति भी इसमें होती है। इसकी जड़ से सिद्ध तेल जोड़ों के दर्द को दूर करता है। थायराइड या अन्य ग्रंथियों की वृद्धि में इसके पत्तों का लेप करने से फायदा होता है। यह नींद लाने में भी सहायक होता है। श्वास संबंधी रोगों के निदान के लिए अश्वगंधा क्षार अथवा चूर्ण को शहद तथा घी के साथ दिया जाता है। कैंसर, जीर्ण व्याधि, क्षय रोग आदि में दुर्बलता तथा दर्द दूर करने के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है।


बाजार में अश्वगंधा की जड़ 10 से 20 सेमी के टुकड़े के रूप में मिलती है। यह खेती किए हुए पौधे की जड होती है जिसमें स्टार्च जंगल में अपने आप उगे पौधे की तुलना में अधिक होती है। आंतरिक प्रयोग के की जड़ ठीक होती है जबकि बाहरी प्रयोग जैसे लेप आदि के लिए जंगली पौधे की जड़ का प्रयोग किया जाना चाहिए। बाजारों में असगंध जाति के एक भेद काक नजकी जड़े भी इसमें मिला दी जाती हैं यह ठीक नहीं है, यह विषैली होती है और इसका आंतरिक औषधि के रूप में प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। अश्वगंधा के भंडारण के लिए अच्छी जड़ों को चुनकर, सुखाकर, एयरटाइट सूखे-शीतल स्थान पर रखा जाना चाहिए। इन्हें एक वर्ष तक प्रयोग किया जा सकता है। अश्वगंधा के गुणों को देखते हुए कहा जा सकता है इसका नाम बहुत ही सार्थक है क्योंकि यह प्रधानतः एक बल बढ़ाने वाली औषधि है। फूल जाती हैं तथा पर्दे पर जगह-जगह खून के गोलाकार धब्बे हो जाते हैं व पीला एवं साफ पानी जम जाता है। जब तक ये परिवर्तन पर्दे के बाहरी हिस्से तक सीमित रहते हैं तब तक कोई लक्षण प्रकट नहीं होता परन्तु जब मैक्यूला नामक पर्दे का संवेदनशील हिस्सा इसकी लपेट में आता है तो आंखों से दिखना बहुत कम हो जाता है। मधुमेह जितना पुराना होता है इस बीमारी की आशंका उतनी ही बढ़ जाती है। डायबिटिक रेटिनोपैथी के इलाज के लिए फोटो को एगुलेशन नामक लेजर आधारित तकनीक का प्रयोग किया जाता है। इसके अंतर्गत तकनीक का प्रयोग किया जाता है। इसके अंतर्गत लेजर की शक्तिशाली किरणों से पर्दे की कमजोर रक्त वाहिनियों को बंद कर दिया जाता है जिससे उनसे खून न वहे। इससे रोग आगे नहीं बढ़ता और नेत्र ज्योति बरकरार रहती है।