भारत में बढ़ती बुजुर्गों की संख्या और उपेक्षित बुजुर्ग

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कहा तो यह जाता है कि वृद्धावस्था में व्यक्ति के जीवन का वह दौर प्रारम्भ होता है जिसमे वह बिना किसी चिंता के अपना जीवन जीता है और अपने संघर्ष से प्राप्त अनुभव के मोतियों को अपने परिजनों और समाज के अन्य अंगों को बाँट कर समाज का हित करने में समर्थ होता है। उसे समाज में और अपने परिवार में एक गरिमामय उच्च स्थान स्वतः प्राप्त हो जाता है। लेकिन विडम्बना यह है कि कुछ अपवादों को छोड़ दें तो इस बदलते जमाने में घर के बुजुर्गों की स्थिति अपने घर में ही एक ऐसे मेहमान की होकर रह गई है जिसके जल्दी जाने की कामना एकाध को छोड़ कर हर एक सदस्य के मन में रहने लगी है। संयुक्त परिवारों के टूटने और बिखरने के इस दौर में घर के बुजुर्ग भी टूट कर बिखर गये हैं। पारिवारिक सदस्यों के दुयवहार के चलते कितने ही बुजुर्ग या तो अपनी मर्जी से अथवा परिवार के दबाव के चलते वृद्धाश्रम में जीवन की अंतिम घडियाँ बिता रहे हैं।


यह स्थिति केवल उन्हीं परिवारों की नहीं है जहां खाने-पीने, ओढने-बिछाने या रहने की कमी है। उनसे अधि कि यह स्थिति उन परिवारों में है जहां कोई अभाव नहीं है। यह स्थिति प्रदर्शित करती है कि घर के बुजुर्गों के अलग-थलग पड़ जाने के पीछे छोटे-बड़ों के बीच तालमेल की कमी, अहं का टकराव और हर व्यक्ति के अपने परिवार की इकाई के साथ स्वतंत्र जीवन जीने की लालसा ही मुख्य कारण है। आर्थिक कारण एक कारक हो सकता हैं, मूल नहीं हैं। यदि काफी समझौतों के बाद भी कुछ बुजुर्ग अपने बच्चों के मध्य टिके हुए हैं तो उनमें से अधिकाँश की स्थिति घर के चौकीदार, गार्डन में पानी देने वाले और पौधों की छंटाई कर देने वाले माली, घर का रोजाना का किराने का सामान लाने वाले की या फिर बहू बेटे के आफिस चले जाने के पश्चात बच्चों की देखभाल या उन्हें स्कूल बस तक छोड़ने और लाने की रह गई है।


भारत में 60 वर्ष से अधिक उम्र के बुजुर्गों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। यह तथ्य सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की एक रिपोर्ट से सामने आए हैंइस रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि गाँव में रहने वाले बुजुर्गों की अपेक्षा शहरी क्षेत्र के बुजुर्गों में दिल की बीमारी का प्रतिशत काफी अधिक है। अधिक आयु के पुरुषों में मूत्र सम्बन्धी और अधिक उम्र की स्त्रियों में जोड़ों में दर्द और जकडन की बीमारी अधिक पाई जाती है। प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार पिछली जनगणना-2001 में भारत में बुजुर्गों की संख्या पूर्ण जनसंख्या के 5.6 प्रतिशत अर्थात 7.66 करोड़ थी। सन 2011 में बढ़ कर यह प्रतिशत बढ़ा (8.6) और बुजुर्गों की कुल संख्या 10. 38 करोड़ हो गई। यह रिपोर्ट दर्शाती है कि महिलाओं का अनुपात पुरुषों पर भारी है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 1951 के मुकाबले 2011 में इस अनुपात में वृद्धि रही है। 1951 में 1000 बुजुर्ग पुरुषों के प्रति 1028 बुजुर्ग महिलाएं थीं जबकि 2011 की जनगणना में इनकी संख्या 1000 पर 1033 हो गई थी। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि बुजर्गों की आत्मनिर्भरता में कमी हुई है और उनका दूसरों पर निर्भरता का प्रतिशत बढ़ कर 14.2 प्रतिशत हो गया है। 1961 में यह 10.9 प्रतिशत था। इनमें महिलाओं का अनुपात 14.9 और पुरुषों का 13.6 है।


उम्र के साथ शरीर की क्षमता में ह्रास होना प्रारम्भ हो जाता हैस्मृति कमजोर हो जाती हैदृष्टि हीनता एक आम बात हो जाती हैसुनाई कम देने लगता हैहर अंग कमजोर होकर असमर्थता की ओर बढ़ने लगता है। कहने का मतलब यह है कि इस समय जब बुजुर्ग को सहारे की आवश्यकता होती है तो अधिकाँश को अपने लिए उदरपूर्ति का प्रबंध स्वयं करना पड़ता है। जिन्हें पेंशन मिलती है उन्हें तो सामान्यतया कोई आर्थिक परेशानी नहीं होती किन्तु ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले और शहरी स्लम क्षेत्रों में आ बसे बुजुर्गों को इस उम्र में भी हाड़ तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। लगभग 75 प्रतिशत लोग गाँवों में रहते हैं इसी अनुपात में बुजुर्गों का भी निवास गाँवों में अधिक हैइनमे भी विधवा महिलाओं का प्रतिशत अधिक यानि 48 है। एक संस्था द्वारा उ.प्र., बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उड़ीसा का इस परिप्रेक्ष्य में अध्ययन किया गया तो पाया गया कि अधिकतर बुजुर्ग निराश्रित थे, अधिकतर अकेले रहते थे तथा अधिकतर जीवन की अंतिम बेला तक कठिन परिश्रम करके जीवनयापन कर रहे थे। ये सब सामाजिक घुटन और अस्वीकार्यता के शिकार थे। भोजन पाने के लिए 12 प्रतिशत को भीख मांगनी पड़ रही है, 13 प्रतिशत औसत से अधिक श्रम करके भोजन का जुगाड़ करते हैं और अपनी बीमारी पर खर्च करने पर इन्हें भूखा सोना पड़ जाता हैउन्हें मिलने वाला कार्य भी शारीरिक रूप से कठिन होता है जैसे पहाड़ों पर जानवर चराना, फालतू घास खोदना या हटाना, चारे के लिए घास इकट्ठा करना और उसे काटना, गौ शाला की सफाई करना, अनाज छानना और साफ करना, गोबर या ईधन इकट्ठा करना आदि-आदि।


कमोवेश यही स्थिति उत्तराखण्ड के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बुजुर्गों के परिप्रेक्ष्य में दिखाई देती हैअवशेष देश से भिन्न एक स्थिति जरूर है कि अधिकाँश युवा जो कमाने या नौकरी पर बाहर गये हैं आज भी अपनी जड़ों से जुड़े हैं । वे अपनी अन्यत्र व्यस्तताओं के होते हुए भी समय निकाल कर साल में एक बार तो अपने गाँव और वार्षिक पूजा के लिए आ ही जाते हैं। इस बहाने बच्चों की नई पीढ़ी अपने बुजर्गों से जुडी रहती है और पुश्तैनी जायदाद की देख रेख भी सम्भव हो जाती है। ये तो कहा जाता है कि पहाड़ की अर्थव्यवस्था मनीआर्डर पर टिकी है किन्तु यह भी सच है कि हर गाँव और शहर में आपको पेंशनधारी बुजुर्गों की अच्छीखासी संख्या देखने को मिल जाती है जिनमें अधिकतर रिटायर्ड फौजी या फिर रिटायर्ड शिक्षकों की संख्या है अन्य विभाग वाले भी हैं किन्तु कम संख्या में। इसके अतिरिक्त अभी भी पहाड़ का युवा अपने माँ बाप के प्रति अपने कर्तव्यबोध से विमुख नहीं हुआ है और वह हर महीने यथाशक्य कुछ न कुछ माँ बाप के परिपालन हेतु भेजता रहता है। यह स्थिति पूरे देश में बहुत कम है और इस नाते उत्तराखण्ड के बुजुर्गों की स्थिति शेष देश के बुजुर्गों से कई मायनों में अच्छी कही जा सकती है।


एक बार एक रिटायर्ड सज्जन अपने परिवार में अपनी उपेक्षा से परेशान होकर स्वामी अखंडानन्द जी के पास गये और विस्तार से उन्हें अपनी समस्या से अवगत कराया। स्वामी जी ने बड़े ध्यान से उनकी समस्या को सुना और परिवार में सम्मान पूर्वक आनन्दित जीवन जीने के कुछ गुर बताए। स्वामी जी ने उनसे कहा कि आप सबसे पहले अपने आप को सेवा निवृत समझना बंद करें। समाज में सुधार करने को बहुत से काम पड़े हैं। अकेले या कोई टीम बना कर कुछ या एक सामाजिक कार्य हाथ में लें और यथासंभव उस कार्य में जुटें। आप देखेंगे कि आपकी पारिवारिक स्थिति में तो सुः र आएगा ही आप की सामाजिक स्वीकार्यता में भी एक उछाल आ जाएगा। यह ध्यान रखें कि किसी पारिवारिक सदस्य को बिना उसके मांगे सलाह न दें और न ही उनकी कमियों को उजागर करें विशेष रूप से परिवार के बच्चों कीउनके किसी काम में न तो हस्तक्षेप ही करें और न ही अपना पैर अड़ाएं सहनशक्ति मानसिक शान्ति का दूसरा नाम हैउन सज्जन ने स्वामी जी सीख का अक्षरशः पालन किया और न केवल शान्ति से जीवन जिया बल्कि समाजोत्थान भी किया। यही सीख सभी बुजुर्ग अपना लें तो उनकी आधी से ज्यादा समस्याएं अपने आप खत्म हो जाएंगी।


जन पूर्वांचल , फरवरी 2017