केरल से सबक ले सकते हैं देश के सभी बीमारू राज्य


हाल ही में नीति आयोग ने स्वास्थ्य सूचकांक को लेकर 'स्वस्थ राज्य प्रगतिशील भारत' शीर्षक से रिपोर्ट जारी की है, जिसमें स्वास्थ्य सूचकांक पर राज्यों की रैंकिंग दी गई है। नवजात मृत्यु दर (आइएमआर) और मैटरनल मॉर्टिलिटी रेट (एमएमआर) जैसे स्वास्थ्य संकेतकों के वर्ष 2015-16 के आंकड़ों के आधार पर बनाई गई इस इंडेक्स पर 21 बड़े राज्यों, आठ छोटे राज्यों और सात केंद्र शासित प्रदेशों की तीन अलग-अलग श्रेणियों में रैंकिंग की गई हैइस रिपोर्ट के अनुसार हेल्थ इंडेक्स पर 80 अंकों के स्कोर के साथ बड़े राज्यों में केरल का प्रदर्शन सर्वश्रेष्ठ है जबकि 33.69 अंकों के साथ उत्तर प्रदेश सबसे फिसड्डी है। रिपोर्ट बताती है कि उत्तर प्रदेश का प्रदर्शन झारखंड, ओडिशा और बिहार से भी बदतर है जबकि तेजी से प्रदर्शन सुधारने के मामले में झारखंड सबसे आगे हैं।


स्वास्थ्य सूचकांक की अंकतालिका में अव्वल रहने वाले केरल में स्वास्थ्य सुविधाओं की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह गरीब लोगों की भी पहुंच में है, फिर भी इसका स्तर अंतरराष्ट्रीय हैइस स्थिति में पहुंचने के लिए केरल की सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियां जिम्मेदार रही हैं, जिसकी वजह से इस मॉडल को मूर्त रूप दिया जा सका। महिलाओं की उच्च साक्षरता दर (87.72 प्रतिशत) भी इस स्तर को बना पाने में सहायक रहा है। स्वास्थ्य के प्रमुख संकेतों जैसे मृत्यु दर, शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) और जीवन प्रत्याशा तथा जन्म दर की दृष्टि से राज्य की स्थिति न केवल भारत से बल्कि कई विकसित देशों से भी बेहतर है। जैसे केरल में जीवन प्रत्याशा में वृद्धि हुई है, शिशुओं का मृत्यु दर में काफी कमी आई हैराज्य के लोगों में स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता का स्तर काफी ऊंचा हैकेरल ने जन्मदर को नियंत्रित करने तथा प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने की दिशा में काफी प्रशंसनीय कार्य किए हैं। महिलाओं का उच्च स्थान, महिला साक्षरता, विवाह की तय उम्र तथा शिशु एवं मातृ मृत्यु दर में कमी ने राज्य को कई मामलों में सर्वश्रेष्ठ बनाया हैकेरल में सकारात्मक राजनीति, सामाजिक सुधार एवं कल्याण कार्यक्रमों ने जनहित किया है। राज्य में सामाजिक तथा जन मूल्यों की समानता व्याप्त है। यहां स्वास्थ्य एवं शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता हैराज्य में उपलब्ध स्वास्थ्य सुविधाओं ने इसे पूरे देश में एकदम अद्वितीय स्थान दिया है। राज्य में स्वास्थ्य के लिए त्रिस्तरीय प्रणाली लागू है। जिसके तहत प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र तथा ताल्लु एवं जिला अस्पताल व मेडिकल कॉलेज शामिल हैंइन सेवाओं का वितरण समान रूप से शहरी एवं ग्रामीण इलाकों तक फैला हुआ हैइसके अलावा राज्य में आयुर्वेदिक तथा होम्योपैथिक स्वास्थ्य सेवाओं के निजी एवं शासकीय केंद्र भी मौजूद हैं।


जबकि उत्तर प्रदेश के सबसे फिसड्डी रहने का कारण एक तो सर्वाधिक जनसंख्या व दूसरा स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च है। गोवा, जहां की आबादी उत्तर प्रदेश की आबादी के 1 फीसदी से भी कम है, वहां नागरिकों के स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति पांच गुना ज्यादा खर्च किया जाता है। उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य का सार्वजनिक औसत खर्च भारतीय औसत का 70 फीसदी है। कम खर्च से स्वास्थ्य संस्थानों में डॉक्टरों, नर्से और सहयोगी स्टाफ की कमी जैसी समस्याएं होती हैं। वहीं इस अंकतालिका में केरल के बाद पंजाब, तमिलनाडु और गुजरात को रखा गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार छोटे राज्यों में मिजोरम पहले स्थान पर है। उसके बाद मणिपुर और गोवा हैं। केंद्र शासित प्रदेशों में लक्षद्वीप को समग्र प्रदर्शन व उच्चतम वार्षिक वृद्धि प्रदर्शन में प्रथम स्थान मिला है।


राजस्थान, बिहार, ओडिशा और मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ का हाल कोई खास अच्छा नहीं हैइन राज्यों में स्वास्थ्य की स्थिति उत्तर प्रदेश के जैसी है। यदि पिछले आंकड़ों के मुताबिक बात करें तो केवल झारखंड में ही सधार देखने को मिला है2014-15 में झारखंड का स्कोर मात्र 38.46 था जो 2015-16 में 6.87 अंक सुधर कर 45.33 हो गया हैजो अन्य राज्यों की तुलना में सबसे अधिक है। वहीं उत्तराखंड का प्रदर्शन गिरा है और वो स्वास्थ्य सूचकांक पर 45. 22 अंकों के साथ 15वें नंबर हैस्वास्थ्य सूचकांक की रिपोर्ट दिखाकर राज्यों के स्वास्थ्य की पोल खोलना ही केवल नीति आयोग का मकसद नहीं है बल्कि फिसड्डी राज्यों को एक निश्चित अनुदान प्रदान करके उनकी सहायता भी करना है। गौरतलब है कि दुनिया में भारत पहला ऐसा देश है जिसने राज्यों के स्तर पर इस तरह का इंडेक्स तैयार किया है। अन्य किसी भी देश में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। इससे सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल करने में मदद मिलेगी। नीति आयोग इस साल जून तक देश के 730 सरकारी अस्पतालों की रैंकिंग भी जारी करेगा ताकि अच्छा और खराब प्रदर्शन करने वाले राज्यों का नाम सार्वजनिक कियाजा सके। ।


यह जगजाहिर है कि भारत की सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था दुनिया में सबसे बदहाल मानी जाती है। उचित चिकित्सा के अभाव में प्रत्येक वर्ष लाखों मौतें होती हैंसंविधान के दायरे में बात करें तो, यदि किसी व्यक्ति का जीवन औषधियों की कमी या इलाज के ना होने के कारण खतरे में है तो उसकी रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है। देश में 14 लाख डॉक्टरों की कमी है। यही कारण है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के आधार पर जहां प्रति एक हजार आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए वहां भारत में सात हजार की आबादी पर एक डॉक्टर हैदीगर बात है कि ग्रामीण इलाकों में चिकित्सकों के काम नहीं करने की अलग समस्या है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यू.एच.ओ.) ने सन् 1977 में ही तय किया था कि वर्ष 2000 तक सबके लिए स्वास्थ्य का अधिकार होगा। लेकिन वर्ष विश्व 2002 2002 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के अनुसार स्वास्थ्य पर जीडीपी का 2 प्रतिशत खर्च का लक्ष्य आज तक पूरा नहीं हुआइसके विपरीत सरकारें लगातार स्वास्थ्य बजट में कटौती कर रही हैं। रिपोर्ट के बाद राज्य सरकारों को चाहिए कि वे अपने स्वास्थ्य सेवाओं पर जोर देना शुरू कर दें। बीमारू राज्यों को अपनी स्थिति सुधारने के लिए स्वस्थ्य राज्यों से सीख लेते हुए अपनी स्वास्थ्य प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन करने होंगेवहीं बीच वाले राज्यों को भी आगे बढ़ने के लिए कदम उठाने की आवश्यकता है।


जन पूर्वांचल , मार्च 2018