महिला समानता में दायित्व


महिलाओं के समान अधिकार की बात तो सभी करते हैं लेकिन महिलाओं के समान दायित्व पर चर्चा कम होती है। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने ऐसा फैसला सुनाया है जिससे इस बहस को गंभीरता से शुरू किया जा सकता है। यह मामला वैधानिक से ज्यादा सामाजिक है और इसके लिए लोगों की सोच को बदलना पड़ेगा। हमारे देश में कभी संयुक्त परिवार सघनता से पाये जाते थे लेकिन अब बिरले ही दिखाई पड़ते हैं। संयुक्त परिवार में अमूमन कोई ऐसा होता था जो अविवादित रहता था, कोई ऐसा होता था जिसके संतान ही नहीं होती थी, तो कोई ऐसा होता था जिसके सिर्फ लड़कियां होतीं और कोई ऐसा जिसके पुत्र और पुत्रियां दोनों होते थे या केवल पुत्र ही होते थे। मिला-जुला अर्थात् संयुक्त परिवार में वे बच्चे सभी के होते थे और सभी को अधिकार रहता था कि बच्चों को प्यार करें, डांटे-फटकारें और उनको मुंह मांगी चीज भी दें। इसी तरह लड़कियों को लेकर यह परम्परा थी और कहीं-कहीं आज भी है कि वे पराया धन हैंउनकी शादी करने के बाद उनको सिर्फ दिया जा सकता है, उनसे कुछ भी लेने को पाप समझा जाता था। गांवों में लड़की की ससुराल के गांव के कुएं का पानी भी लोग नहीं पीते थेउसकी ससुराल में जब जाते थे तो अपना खाना (सत्तू-चबेना) साथ ले जाते थे साथ में रहता था लोटा और डोरी, जिससे दूसरे गांव में जाकर पानी पीते थे।


औद्योगीकरण और शहरीकरण ने इस परम्परा को संकट में डाल दिया। संयुक्त परिवार टूटने लगे, लोग गांव छोड़कर शहरों में बस गये और फिर वहीं अपने बेटे-बेटियों का विवाह भी करने लगे। मूल परिवार में आना-जाना भी धीरे-धीरे कम होने लगा और अब तो मोबाइल युग में दूर दराज शहर से कभी-कभी बात करके परिवारों से रिश्ता कायम रखा जाता है। इस बदलाव ने उन लोगों के लिए समस्या खड़ी कर दी जिनके बारे में मैं पहले बता चुकी हूंमसलन किसी के सिर्फ बेटियां हैं तो उनकी शादी के बाद वे अकेले रह जाते हैं। बढे मां-बाप को अपने खाने पीने और दवाई इत्यादि के लिए स्वयं संसाधन जुटाना पड़ता है। बुढ़ापे पर बीमारी भी ज्यादा आ जाती है। सम्पन्न परिवार में तो नौकर-चाकर रखकर बुजुर्ग गुजारा कर लेते हैं लेकिन जो सम्पन्न नहीं हैं, उनके लिए वृद्ध जीवन का निर्वाह बहुत कठिन हो जाता है। ऐसा ही एक मामला पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट के सामने आया थामहिला के एकमात्र पुत्र की मौत हो चुकी थी। महिला की तीन बेटियां शादीशुदा हैंऔर उनकी शादी में उसने अपनी बची-खुची पूंजी भी लगा दी थी। उसे जीवन निर्वाह कठिन होने लगा तो उसने अपनी तीन बेटियों से गुजारा भत्ता लेने का फैसला किया। वह उस परम्परा को भूल गयी जिसमें बेटी के घर खाना और उसके गांव के कुएं का पानी पीना भी पाप समझा जाता है। महिला ने जिला स्तर पर अपनी फरियाद रखी। उसने एसडीएम को अपना दुखड़ा सुनायाउस अधिकारी ने जब यह समझ लिया कि महिला को सचमुच सहायता की जरूरत है तो एसडीएम ने बेटियों की हैसियत के अनुसार मां को सहायता देने का फैसला सुनाया। बड़ी बेटी ज्यादा सम्पन्न घर में है, इसलिए उसे 15 सौ रुपये प्रतिमाह और दो अन्य बेटियों को हर महीने एक-एक हजार रुपये गुजारा भत्ता देने का निर्देश दिया। बेहतर तो यही होता कि तीनों बेटियां अपना मां के प्रति कर्तव्य समझ कर एसडीएम के फैसले को मान लेतीं। उससे भी अच्छा यह होता कि बेटियां अपनी मां की स्थिति को देखकर बगैर किसी कानूनी कार्रवाई के ही मां की मदद करतीं। यह एक आदर्श पारिवारिक स्थिति मानी जाती लेकिन समय ने मानवीय संबंधों को भी तिजारत बना दिया है। बेटियों ने एसडीएम के फैसले को मानने से इनकार कर दिया और इस मामले को पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट तक पहुंचा दिया। इतना ही नहीं तीनों बेटियों ने मां की ममता को पूरी तरह से नजरंदाज करते हुए हाईकोर्ट में याचिका दायर की कि मां के पास आय के अन्य साधन हैं। संभव है, यह काम बेटियों के वकील ने किया हो क्योंकि वकालत का भी अब मूल उद्देश्य धन कमाना है, न्याय दिलाना नहीं। इसीलिए किसी सामान्य से मुकदमे को भी वे लम्बा खींचते हैं ताकि उन्हें फीस मिलती रहे।


बहरहाल यह मामला पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में पहुंचा। हाईकोर्ट के विद्वान न्यायाधीश न्यायमूर्ति राजन गुप्ता ने दोनों पक्षों को सुना और उन्हें लगा कि मानसा परगना के एसडीएम ने जो फैसला दिया है, वह न्यायसंगत है। हाईकोर्ट ने तीन बेटियों की अपील खारिज कर दी और मां को गुजारा भत्ता देने के लिए तीनों बेटियों को कानूनी तौर पर बाध्य कर दिया। इस प्रकार हाईकोर्ट का यह फैसला माता-पिता और बेटियों के रिश्ते को नए सिरे से परिभाषित करता है और नयी सोच के साथ विचार करने को प्रेरित करता हैविशेष रूप से उस स्थिति में जब बेटियों की शादी हो जाती हैऔर वे अपना घर बसा लेती हैं। अब तो भारत सरकार ने मां-बाप की सम्पत्ति में बेटियों को भी बराबर का हिस्सेदार बना दिया है। इस प्रकार बेटियों को जब बराबर का अधिकार मिला है तो उन्हें बराबर का कर्तव्य भी निभाना चहिए। माता-पिता के लिए कहा जाता है कि संसार में जीते-जागते वही भगवान के रूप में होते हैंबच्चे का पालन-पोषण करने में वे कितने कष्ट उठाते हैं, इसका अहसास बच्चों को नहीं होता। आजकल तो बच्चे यह भी कहने लगे हैं कि मेरे मां-बाप ने यदि मुझे पाला-पोसा हैतो उन्हें भी तो उनके मां-बाप ने पाला-पोषा होगा। इसमें अहसान की कौन बात है। देश का यह तर्क सही है लेकिन माता और पिता के प्रति कर्तव्य निर्वहन में तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए। माता-पिता अथवा इनमें से कोई एक ही वृद्धावस्था में कष्ट पा रहा है और उसके पास खाने-पीने, वा-इलाज के लिए पैसा नहीं है तो क्या बेटियों को उसकी मदद नहीं करनी चाहिएहमारे देश में महिलाओं, विशेष रूप से बेटियों को अधिकार देने के लिए कानून बनाये गये हैंबाम्बे हाईकोर्ट के एक मामले में सुनवाई के दौरान कहा गया था कि शादी हो जाने के बाद भी बेटी की भूमिका बदल नहीं जाती। न्यायाधीश निशिता म्हात्रे ने कहा था ‘मौजूदा समय में यह स्वीकार करना असंभव है कि विवाह के बाद लड़की उस परिवार से ही सम्बंध तोड़ लेगी जहां वह पैदा हुई है। वह लड़की उस परिवार को तंगहाली में कैसे छोड़ सकती है।


निश्चित रूप से यह मामला कानूनी से ज्यादा सामाजिक हैपरिवार के माता-पिता तो अपना कर्तव्य निभा रहे हैंलेकिन बेटे और बेटियां दोनों ही इस कर्तव्य से विमुख होते दिखते हैं। बेटियां ही नहीं बल्कि बेटे भी अपने ऐशो-आराम के चलते माता-पिता की परवाह नहीं करते और ज्यादातर यही देखा गया कि शादीशुदा लड़कियां अपने माता-पिता की सेवा ज्यादा करती हैं। सबसे अच्छी स्थिति तो यही होनी चाहिए कि हमारे देश में किसी को भी अपने जीवन निर्वाह के लिए किसी से कुछ मांगना ही न पड़े। केन्द्र से राज्य सरकारें तक बुजुर्गों को पेंशन और राहत दे रही हैं लेकिन क्या इतना ही पर्याप्त है? बुजुर्गों को ढलती उम्र में सहारे की जरूरत होती है। वे बैंक से पेंशन लेने नहीं जा सकतेबीमार पड़ते हैं तो कोई उन्हें अस्पताल पहुंचाए। पास-पड़ोस के लोग निश्चित रूप से मदद करते हैं लेकिन अपनी संतानों से ऐसे समय में मदद करने की अपेक्षा रखना गलत नहीं है। बेटों के नालायक होने की कहानियां तो बहुत सुनी जा रही हैं लेकिन क्या बेटियां भी उनके ही नक्शे कदम पर चलने लगेंगी? महिलाओं को समानता का अधिकार मिला हैतो उन्हें समानता का दायित्व भी पूरा करना चाहिए उनकी अपनी समस्याएं भी हो सकती हैं क्योंकि परिवार में कोई न कोई समस्या तो बनी ही रहती है लेकिन अपने बेसहारा माता-पिता के प्रति भी उन्हें अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिएयह काम यदि वे किसी कानून के डर से करती हैतो इसे शर्मनाक ही कहा जाएगा, जैसा पंजाब की तीन बेटियों ने किया है।