परिवार तो वह था जिसे हम खो चुके


समाज शास्त्र की दृष्टि से परिवार एक संस्था है जो अपने सदस्यों को आचार-विचार, संस्कार और सामाजिकता सिखाती है। इस तरह के परिवार हमसे काफी पीछे छूट गये हैं अथवा यह कहें कि हम उन्हें बहुत पीछे छोड़ आए हैं। अब परिवार उसी तरह सिमट गये हैं। जैसे बड़े-बड़े तालाब, ताल-तलैया बन गये, जिनमें बारिश के दिनों में पानी भर जाता है और सर्दी में छिछले हो जाते हैं, गर्मियां तो उन ताल-तलैयों को बिल्कुल ही सुखा देती हैंतालाबों का गांवों के लिए बहुत महत्व होता था। कई गांव तो अब शहर में समां चुके हैंऔर बाकी बचे गांवों में भी छोटे-छोटे सूखे तालाब दिखाई पड़ते हैंठीक यही हालत परिवारों की रह गयी है। पहले के परिवार में बाबा, दादी, चाचा, चाची, ताऊ, ताई, भाई-बहन सभी एक साथ रहते थे। परिवार सिर्फ ईट-पत्थरों से नहीं बनते हैंइसके साथ जुड़ी होती हैं जिम्मेदारियां और भावनाएं। आज मम्मी-पापा और एक-दो भाई बहन का चार-पांच सदस्यों वाला परिवार उस आनंद को कहां प्राप्त कर पाएगा जहां चाचा बच्चों को कहानियां सुनाते थे, बाबा शैतानी करने पर डण्डा फटकारते हुए डांटते थे। वह सुख भी अब आधुनिक परिवारों को कहां मिलता है जब रसोईघर में चूल्हे पर रोटियां सेंकते समय एक ही रोटी को कई बच्चों में बांटकर खिलाया जाता था। घर के एक कोने में उपलों के ऊपर रखी वह दुधाडी भी याद आती है जिसका सोंधा दूध पीने के लिए बच्चे कटोरा लेकर खड़े हो जाते थे और बड़ी अम्मा बारी-बारी से सबके कटोरों में दूध देती थीं। उस दुधाड़ी का दही और मट्ठा भी अब स्मृति में ही रह गया हैअन्तरराष्ट्रीय फेमिली डे अर्थात परिवार दिवस पर ये सभी बातें याद आती हैं लेकिन जिन्होंने संयुक्त परिवार को देखा ही नहीं है, उनके लिए यह एक कहानी जैसी लगती होगी, फिर भी वे फेमिली डे मनाएंगे।


हमारे देश में संयुक्त परिवार की परम्परा बहुत दिनों तक कायम रही है। रामायण और महाभारतकाल में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। देश को ब्रिटिश साम्राज्य से आजादी मिलने के काफी बाद तक संयुक्त परिवार रहे हैं और छिटपुट रूप से आज भी मौजूद हैं। संयुक्त परिवारों का विखंडन औद्योगिक क्रांति के बाद शुरू हुआगांवों में खेती के सहारे या अन्य ग्रामोद्योग जैसे कुंभकार, कारपेन्टर, नाई आदि अपने व्यावसायिक हित के लिए शहरों की तरफ भागने लगेकृषि की पैदावार से बड़े परिवारों का गुजारा मुश्किल होने लगा तो बाहर नौकरी करने के तक पुरुष नौकरी करने के लिए बाहर जाते थे लेकिन उनके परिवार घर में ही रहते थे। धीरे-धीरे परिवार में प्रतिबद्धता का अभाव दिखने लगा और शहरों की चकाचौंध ने संयुक्त परिवार को बिखेर दिया। गांवों में अच्छी शिक्षा व्यवस्था का अभाव, चिकित्सा न मिल पाना भी इसका एक बड़ा कारण बनाआज भी केन्द्र से लेकर प्रदेश की सरकारें चाहे जितने दावे करती हों कि गांवों में शहर सी सुविधाएं उपलब्ध करा दी गयी हैं लेकिन व्यावहारिक रूप में यही देखा जा रहा है कि कोई सुविधा नहीं है। अचानक कोई बीमार पड़ जाए तो उसे शहर ले जाना पड़ता है और गांव से शहर तक के रास्ते भी ऐसे कि मिनटों का सफर घंटों में तय करना पड़ता हैसरकार आदेश पर आदेश निकालती है कि डाक्टर व अन्य अधिकारी गांवों में निवास करें लेकिन रात में पता लगाइए तो सभी शहरों में मिलेंगे। गांव में जब इस प्रकार की असविधा है तो कोई भी वहां रहेगा तो मजबरी में, अगर सविधा मिल जाए तो शहर चला जाएगापरिव के जो सदस्य शहरों में नौकरी या व्यवसाय करने लगे, उनको अपने सीमित परिवार से ही ज्यादा लगाव रहालोग गांव में छूट गये, उनकी चिन्ता भी रस्म अदायगी भर रह गयी। यही हालत शहरों में रहने वाले संयुक्त परिवारों की हुई और उनके सदय दूसरे शहरों में कामधंधे के लिए निकले तो वहीं के होकर रह गये। संयुक्त परिवार धीरे-धीरे बिखर गये।


इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि संयुक्त परिवार के टूटने में परिस्थितियां ज्यादा जिम्मेदार रहीं लेकिन हमारा-आपका दोष भी कम नहीं है। हम चाहे गांव में रहें या शहर में लेकिन हमारे देश में संस्कृति ने परिवारों को जोड़कर रखने के लिये ही कई पर्व-उत्सव बनाए। होली, दीवाली, भैया दूज आदि पर जो परम्पराएं हैं, वे परिवार के सदस्यों को इकट्ठा करने के लिए ही हैं। गंभीरता से सोचें कि जब हमारे परिवार में किसी की मृत्यु हो जाती है तो दसवां संस्कार के समय परिवार के सभी सदस्य बाल मुंडवाने के लिए एक ही स्थान पर बैठते हैंयह प रखने के लिए ही बनायी गयी लेकिन अब तो होली-दीवाली की कौन कहे, परिवार में किसी सदस्य की मृत्यु होने पर खबर पाकर दसवें के दिन अपने शहर में ही बाल मुंडवा लेते हैंविदेश में रहने वालों के लिए मजबूरी समझी जा सकती है लेकिन अब तो आवागमन के साधन इतने ज्यादा विकसित हो गये हैं कि साल में कम से सभी सदस्य मिल सकते हैं। आज, संयुक्त परिवारों को देखकर बहुत खुशी होती है। हमें एक जागरूक पाठक ने दिल्ली के नजफगढ़ में रहने वाले एक संयुक्त परिवार के बारे में जानकारी भेजी हैइस संयुक्त परिवार में तीन पीढियां एक साथ रहती हैं। बड़े बुजुर्गों, महिलाओं और बच्चों को मिलाकर इस परिवार में 52 सदस्य हैं। सबसे बड़े सदस्य 85 साल के चौधरी रामकला डबास इस परिवार के मुखिया हैंपूरे परिवार को एकजुट रखने और परिवार के अंदर फैसले लेने में चौधरी रामकला डबास की ही अहम भूमिका रहती है। इस परिवार में शिक्षक, डाक्टर, ठेकेदार, इंजीनियर, फैशन डिजाइनर और नेता भी हैं। परिवार अपना एक स्कूल चला रहा है। घर में ही तीन डाक्टर हैं जो एक अस्पताल खोलने जा रहे हैं। इसके अलावा नजफगढ़ गांव में खेती भी हैइस परिवार में लगभग 45 लीटर दूध की प्रतिदिन आवश्यकता होती हैइतना दूध खरीदने से काम नहीं चलने वाला था, इसलिए परिवार ने खुद एक डेयरी स्थापित कर रखी हैसब्जी मंडी से थोक में सब्जी आती है और सबसे अच्छी बात यह कि खाना घर की महिलाएं ही बनाती हैंकभी-कभी बाजार भादि आ जाता है जो सभी को मिलता है। अलग-अलग पसंद होने पर अलग-अलग सामान मंगाया जाता है।


इस प्रकार यह कहना गलत है कि संयुक्त परिवार आज के समय में नहीं हो सकता लेकिन इसके लिए आपसी सामंजस्य, धैर्य की जरूरत होती है। संयुक्त परिवार के लिए जरूरी है कि बड़े से लेकर छोटे तक अपनी-अपनी जिम्मेदारी को समझें और शिकायतों का मिल बैठकर निपटारा किया जाए। सभी एक साथ प्यार से रहें और आपस में बातचीत करते रहें। पूरे परिवार को एकजुट रखने के लिए बुजुर्गों के साथ ही कमाऊ पुरुषों या महिलाओं की भूमिका सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। कमाने वाला अगर यह सोचने लगेगा कि हम तो इतना पैदा करते हैं और हमारा छोटा परिवार उसका उपयोग बहुत कम कर पाता है जबकि दूसरा कम कमाता है और उसका परिवार भी बड़ा है तो ऐसे में वैचारिक मतभेद उस परिवार को बहुत जल्द विघटित कर देते हैं। परिवार में जो महिलाएं नौकरी करती हैं, उनको विशेष तरह से रहना भी पड़ता है। बच्चे सभी एक जैसे मेधावी नहीं होते लेकिन अवसर सभी को मिलना चाहिए। इस प्रकार की बातों पर गंभीरता से विचार किया जाए और परिवार की महिला सदस्य विशेष रूप से प्रयास करें तो रामकला डवास की तरह भारी-भरकम परिवार भले ही न बन पाए लेकिन एक ऐसा संयुक्त परिवार जरूर बनेगा जिसकी खुशी का कोई मूल्यांकन नहीं कर सकता।


धनगर चेतना , अप्रैल-मई 2016