रामकृष्ण से कैसे मिले विवेकानंद


स्वामी विवेकानन्द बचपन का नाम नरेन्द्र था। नरेन्द्र जनरल ऐम्बलीज इंस्टीट्यूशन (वर्तमान स्कॉटिश चर्च कॉलेज), कलकत्ता में एफ.ए. के छात्र थे। एक दिन अंग्रेजी साहित्य के अध्यापक किसी कारणवण क्लास में अनुपस्थित थेअतएव कॉलेज के प्राचार्य सुपण्डित विलियम हेस्टी छात्रों को वर्डसवर्थ की कविता पढ़ा रहे थे। पाठ्य कविता थी- 'एक्सकर्शन'।उस कविता में कवि बता रहे हैं कि किस प्रकार प्रकृति के सौंदर्य का ध्यान करते-करते उनका मन एक अतीन्द्रिय लोक में चला जाता था। छात्रगण अनुभूत तत्व की धारणा नहीं कर पा रहे हैं- यह देखकर हेस्टी महोदय ने समझाकर कहा, 'मन की पवित्रता और विषय-विशेष के प्रति एकाग्रता के फलस्वरूप इस प्रकार की अनुभूति होती है। निश्चय ही यह दुर्लभ है, विशेषकर आधुनिक काल में। मैंने ऐसे एक व्यक्ति को देखा है जो मन की इस अत्यन्त मंगलमय अवस्था को प्राप्त हुए हैं। वे हैं दक्षिणेश्वर के श्रीरामकृष्ण परमहंस। तुम लोग वहां जाकर स्वयं देख आने पर इसे समझ सको। उस दिन दूसरे लड़कों की भांति नरेन्द्र ने भी यह बात सुनी, किन्तु उस समय परमपुरुष के सान्निध्य-लाभ का मंगलमय मुहूर्त नहीं आया। नरेन्द्र के मन में वह एक शुभ और आकांक्षणीय स्मृति-रेखा खींचकर अतीत के वक्ष में विलीन हो गयी।


इसी बीच नरेन्द्र का आध्यात्मिक प्रयास तीव्रतर रूप धारण करने लगा। वे और कुछ अन्य आग्रहशील धर्मप्राण व्यक्ति उन दिनों महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर से ध्यानाभ्यास करना सीखते थे। ध्यान समाप्त होने पर महर्षि जानना चाहते कि किसे कैसी अनुभूति होती है। नरेन्द्र को ऐसी अनुभूति हुआ करती जैसे एक ज्योतिर्बिन्दु घूमते-घूमते क्रमश: दोनों भौंहों के मध्य में स्थिर हो जाता हैइसके बाद उस बिन्दु से विविध वर्गों की असंख्य उज्ज्वल किरणें चारों ओर फैल जाती हैं। धीरे-धीरे उनकी चेतना ससीम की सीमा का अतिक्रमण कर एक असीम की ओर प्रसारित होती है, किन्तु ठीक यहीं आने पर ध्यान भंग हो जाता है, और आलोक से उद्भासित विविध वर्ण विलुप्त हो जाते है। इस युवक की योगशक्ति का परिचय पाकर महर्षि उन्हें ध्यान में उत्साह प्रदान किया करते तथा दूसरों से उनकी प्रशंसा भी करते, श्रद्धापूर्ण हृदय से नरेन्द्र बीच-बीच में महर्षि के घर जाते तथा अपने घर में नियमित ध्यान किया करते, किन्त प्राणों की पिपासा मिटती नहीं थी। अभाव-जनित यह असंतोष जब असहय हो गया तब वे एक दिन आवेग से भरकर महर्षि के पास चले-आज चरम प्रश्न पूछकर उसका उत्तर प्राप्त करना ही होगा। उन दिनो महर्षि गंगा के वक्ष पर नौका में रहा करते थे। आत्मविस्मृत नरेन्द्र नाथ ने तेज कदमों से अकस्मात् नौका के भीतर उपासना में लीन महर्षि के सम्मुख उपस्थित होकर आवेग भरे कण्ठ से पूछा, “महाशय, क्याआपने भगवान् को देखा है?' आग्रहयुक्त युवक के तीव्र कण्ठ के इस सुतीक्ष्ण प्रश्न से महर्षि का ध्यान भांग हुआउन्होंने आंखें उठाकर नरेन्द्र को देखा, किन्तु तुरन्त उत्तर नहीं दिया। थोड़ी देर तक नरेन्द्र की आंखों में अपनी आंखें डालकर कहा, ‘बच्चा, तुम्हारी आंखें ठीक योगियों की भांति हैं।' अपने प्रयास में विफल नरेन्द्र फिर कोलाहलमयी महानगरी के एक कोने में स्थित अपने घर लौट आयेमहर्षि से प्राणों की लालसा नहीं मिटी। इसके बाद दूसरे अनेक धर्मगुरू के समक्ष भी उन्होंने यही प्रश्न रखा, 'क्या आपने भगवान को देखा है? किन्तु सभी मौन रहेअब क्या होगा? ऐसे ही समय दक्षिणेश्वर के उन्हीं परमहंस श्रीरामकृष्ण की स्मृति मन में ही आयी। उनसे मिलने का भी एक अप्रत्याशित सुयोग उपस्थित हो गया।


1881 ई. में नवम्बर महीने में नरेन्द्रनाथ जब एफ.ए. की परीक्षा देने के लिए प्रस्तुत हो रहे थे, उसके पहले ही सिमुलिया के श्रीयुत सुरेन्द्रनाथ मित्र ने दक्षिणेश्वर आना-जना शुरू कर दिया था। उन्होंने एक दिन अपने घर पर भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण को आमंत्रित कर एक लघु उत्सव का आयोजन किया। उस दिन उस उत्सव में अच्छे गायक की आवश्यकता थी। मोहल्ले के उदीयमान सुकण्ठ गायक नरेन्द्रनाथ सुरेन्द्रनाथ के परिचित थे। अत: सुरेन्द्रनाथ ने उन्हें ही बुलावा भेजानरेन्द्र ने संदेश पाया कि दक्षिणेश्वर के श्रीरामकृष्ण को गीत सुनाने होंगेवे ही परमहंस रामकुष्ण जिनकी प्रशंसा हेस्टी साहब के मुंह से उन्होंने सुनी थी तथा जो संभवत: उनकी उसी उत्तरहीन जिज्ञासा का समाधान कर सकेंगे। नरेन्द्र सहमत हो वहां गये और कलाविद् की भांति सुन्दर सधे हुए कण्ठ से सुरताल-लय के साथ भजन सुनाकर सबको परितृप्त कर दिया। नवागत गायक के शारीरिक लक्षण, भावतन्मयता आदि सब कुछ को श्रीरामकृष्ण ने लक्ष्य किया तथा उस प्रथम मिलन में ही उनकी ओर आकृष्ट हुए। उन्होंने पहले सुरेन्द्रनाथ को एवं बाद में नरेन्द्र को आत्मीय रामचन्द्र को समीप बुलाकर उस प्रियदर्शन, सर्वसुलक्षण युवक का परिचय प्राप्त किया एवं उन्हें एक दिन दक्षिणेश्वर ले आने के लिए विशेष रूप से कह दिया। फिर भजन समाप्त होने पर स्वयं युवक की बगल में आकर उनके शारीरिक लक्षणों का निरीक्षण करने के बाद संतुष्ट होकर उन्हें एक दिन दक्षिणेश्वर आने के लिये सस्नेह आमंत्रित किया।


कुछ हफ्तों के बाद ही एफ.ए. की परीक्षा हो गयी और नरेन्द्र द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। उसी समय एक धनी परिवार से विवाह का प्रस्ताव आया। लड़की सांवली थी, अत: कन्यापक्ष के लोग दस हजार रुपये दहेज में देने को तैयार थे। विश्वनाथ बाबू को भी यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेने योग्य लगता था, किन्तु नरेन्द्रनाथ ने विवाह करने से असहमति प्रकट कीतब विश्वनाथ के अनुरोध पर रामचन्द्र तथा अन्य आत्मीय बन्धुओं ने नरेन्द्र को कई तरह से समझाया किन्तु नरेन्द्र का विचार नहीं बदला। रामबाबू ने समझा कि धर्मभाव की प्रेरणा ही नरेन्द्र की इस असहमति का कारण हैपहले से ही वे श्रीरामकृष्ण के प्रति आकृष्ट हो दक्षिणेश्वर जाया-आया करते थे। अत: नरेन्द्र को भी स्पष्ट रूप से कहा, 'यदि धर्मलाभ करना ही तुम्हारी वास्तविक इच्छा है, तो ब्रह्मसमाज आदि स्थानों पर जाकर दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण के पास चलो' पडोसी सुरेन्द्रनाथ ने भी एक दिन उन्हीं की गाड़ी से दक्षिणेश्वर जाने की इच्छा व्यक्त की। प्रस्ताव स्वीकार कर नरेन्द्रनाथ दो समवयस्क मित्रों एवं सुरेन्द्रनाथ के साथ घोडागाड़ी से दक्षिणेश्वर पहुंचे (पौष मास, 1881 ई0)। दक्षिणेश्वर में इस प्रथम मिलन का वर्णन हम पूज्यपाद स्वामी सारदानन्द की अनुपम भाषा में करेंगे। लीला प्रसंगकार ने कहा है। कि उन्होंने श्रीरामकृष्ण देव से जैसा सुना था ठीक वैसा ही लिखा है। हां, ठाकुर के मुख से निकली बातों को उन्होंने अपनी परिमार्जित भाषा में उद्धृत किया है। ठाकुर ने कहा था, “पश्चिम (गंगा) की ओर के दरवाजे से नरेन्द्र प्रथम दिन इस कमरे में प्रविष्ट हुआ था। मैंने देखा, अपने शरीर का उसे कुछ ध्यान ही नहीं है। सिर के केश और वेश-भूषा पर भी ध्यान नहीं है, बाहर के किसी पदार्थ पर साधारण मनुष्यों की तरह कुछ ख्याल ही नहीं है। सभी कुछ निराला है। आंखें देखकर ऐसा लगा मानो उसके मन को किसी ने जबरदस्ती अन्तर्मुखी बना दिया है। प्रतीत हुआ कि विषयी लोगों के निवास-स्थल कलकत्ते में क्या इतना बड़ा सत्वगुणी आधार रहना भी संभव है।


 धनगर चेतना ,फरवरी 2016