सही मायनों में समाज सुधारक गतिविधियों की शुरुआत अंगरेजी शासनकाल में महात्मा फुले ने कीइसी आदर्श को लेकर छत्रपति शाहू महाराज, डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर, रामासामी पेरियार, नारायण गुरु, अण्णा भाऊ साठे, कर्मवीर भाऊराव पाटिल ने भी समाज सुधार के कार्य किए। इसके पहले धर्म की सत्ता गिने चुने लोगों के हाथ में थी। भारतीय स्त्री किसी भी धर्म या जाति की हो, उसके साथ शूद्रवत व्यवहार किया जाता थापति के साथ सती होना ही पुण्य का काम था। महाराष्ट्र में पेशवाई शासन में हिन्दवी स्वराज्य की धूमधाम थी। ऐसे समय में महान क्रन्तिकारी महिला शासिका महारानी अहिल्याबाई होल्कर का उद्भव हुआ। अहिल्याबाई का जन्म 31 मई 1725 को अहमद नगर जिले के चौंडी नाम के गांव में हुआ। अटक के पार शिवराया की हिन्दवी पताका फहराने वाले तथा मध्यप्रदेश में हिन्दवी स्वराज्य के स्थापक महान योद्धा मल्हारराव होलकर इनके वसुर थे। इन्होंने प्रजाहितकारी व सुखशांति पूर्ण राज्य की स्थापना की। राज्य के उत्तराधिकारी खंडेराव होल्कर की मश्त्यु हो गई। धर्म व रूढि के अनुसार अहिल्याबाई के सती होने की नौबत आ गई, किन्तु जनता के हितार्थ निर्माण किए गए राज्य को पेशवा के हाथों में चले जाने पर प्रजा को होने वाले भयंकर कष्ट को देखते हुए मल्हारराव होल्कर ने धर्म की पाखंडी परंपरा तोड़ते हुए अहिल्याबाई को सती होने सेरो का और राज्य की बागडोर भी अहिल्याबाई को सौंपने का कार्य किया। ‘‘मेरी मृत्यु हो जाने पर मुझे सुख मिलेगा किन्तु मेरे जीवित रहने पर लाखों प्रजाजनों को सुख मिलेगा, ऐसा मानते हुए और लोकनिन्दा की परवाह न करते हुए अहिल्याबाई ने धर्म के पाखंड के विरुद्ध यह पहला विद्रोह किया। धर्म के नाम पर भारतीय स्त्री को शिक्षा व राज्य करने का अधिकार नहीं थाइसके विरुद्ध भी अहिल्याबाई ने दूसरा विद्रोह करते हुए राज्य की सत्ता स्वयं सँभाल ली। यही नहीं, श्वसुर, पति, पुत्र की मृत्यु होने पर भी मनोधैर्य न खोते हुए उन्होंने राज्य का सफल संचालन किया। प्रजा को कष्ट देने वालों को पकड़कर उन्हें समझाने की कोशिशें कीं तथा उन्हें जीवनयापन के लिए जमीनें देकर सुधार के रास्ते पर लाया गया, जिसके फलस्वरूप उनके जीवन सुखी व समृद्ध हुए। प्रजा से न्यूनतम कर वसूला गया ताकि प्रजा को कर बोझ समान न लगे। कर से प्राप्त धन का उपयोग केवल प्रजाहित के कार्यों में ही किया गया। अहिल्याबाई का मानना था कि धन, प्रजा व ईश्वर की दी हुई वह धरोहर स्वरूपनिधि है, जिसकी में मालिक नहीं बल्कि उसके प्रजाहित में उपयोग की जिम्मेदार संरक्षक हूँ। उत्तराधिकारी न होने की स्थिति में अहिल्याबाई ने प्रजा को दत्तक लेने का व स्वाभिमानपूर्वक जीने का अधिकार दियाप्रजा के सुख-दुख की जानकारी वे स्वयं प्रत्यक्ष रूप प्रजा से मिलकर लेती तथा न्याय-पूर्वक निर्णय देती थीं। उनके राज्य में जातिभेद को कोई मान्यता नहीं थी व सारी प्रजा समान रूप से आदर की हकदार थी। इसका असर यह था कि अनेक बार लोग निजामशाही व पेशवाशाही शासन छोड़कर इनके राज्य में आकर बसने की इच्छा स्वयं इनसे व्यक्त किया करते थे।
अहिल्याबाई के राज्य में प्रजा पूरी तरह सुखी व संतुष्ट थी क्योंकि उनका विचार में प्रजा का संतोष ही राज्य का मुख्य कार्य होता है। लोकमाता अहिल्या का मानना था कि प्रजा का पालन संतान की तरह करना ही राजधर्म हैयदि किसी राज्य कर्मचारी ने या उसके नजदीको परिवारी ने प्रजा से धन वसूली की तो उस कर्मचारी को तुरन्त सजा देकर उसे अधिकारविहिन कर दिया जाता था। समस्त प्रजाजनों को न्याय मिले इसके लिए उन्होंने गांवों में पंचायती व्यवस्था, कोतवालों की नियुक्ति, पुलिस की व्यवस्था, न्यायालयों की स्थापना था राजा को प्रत्यक्ष मिलकर न्याय दिए जाने व्यवस्था थी एवं उसी प्रकार कृषि व वाणिज्य की अभिवृद्धि पर ध्यान देते हुए कृषकों को न्याय देने की व्यवस्था की गई थीप्रजा की सुविधा के लिए रास्ते, पुल, घाट, धर्मशालाएं, बावडी, तलाव बनाये गए थे। बेरोजगारों हेतु रोजगारों धंधों की योजनाएं थीं। रास्तों के दोनों ओर वृक्षारोपण किए गए थे, गरीव तीर्थ यात्रियों की सुविधा के लिए अन्न दान क्षेत्र व रहने के लिए धर्मशालाओं के निर्माण किये गए थे। अपने ही राज्य में नहीं बल्कि अहिल्याबाई ने तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए संपूर्ण भारतभर में अन्य राज्यों की सीमांन्तर्गत भी इन सुविधाओं की व्यवस्था की थी।अहिल्याबाई ने समाज-शत्रुओं व असमाजिकतत्वों पर अंकुश लगाकर उनके भी पुनर्वास की व्यवस्था कीसमाज व्यवस्था, राजकाज व न्याय व्यवस्था के विषय में सुधार किए। उनके इन सामाजिक, राजकीय कामों से प्रजा प्रसन्न व संतुष्ट थी, अत: उनका शासनपूर्णत: शान्ति पूर्ण था। राज्यभर में शान्ति व सुख का ऐसा माहौल था, जिसकी चर्चा पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी की है। 13 अगस्त 1795 ई. को लोकमाता अहिल्याबाई की मृत्यु हुई।
धनगर चेतना , अप्रैल-मई 2016