शिक्षा और स्कूल अगर डरा रहा है तो, यह बड़े खतरे की आहट है

 



प्रद्युम्न के बाद एक और बच्चे की जान चली गई। स्थान भी स्कूल और हत्या करने वाला भी बच्चा। दोनों ही घटनाओं में एक साम्यता है। वो है स्कूल, शिक्षा और बच्चे। दोनों की मनोदशा को पढ़ने की आवश्कता हैक्यों आखिर बच्चे इतने हिंसक और आक्रामक होते जा रहे हैंक्यों बच्चों में भी धैर्य और सहनशक्ति की कमी होती जा रही है। वो कौन सी स्थितियां हैं जब बच्चे हिंसक हो जाते हैं। कब बच्चे अपना धैर्य खो बैठते हैं। शिक्षा व स्कूल जब बच्चों को डराने लगे तो यह एक बड़े खतरे की ओर इशारा है। यदि हमने वक्त रहते शिक्षा और स्कूली वातावरण को नहीं बचाया तो आने वाले समय में जो मंजूर होगा उसके अंदाजा लगाने से ही डर लगने लगेगा।


हाल ही में लखनऊ के एक स्कूल में पहली कक्षा के ऋतिक को सिर्फ इसलिए चाकू से मारा गया ताकि स्कूल में छुट्टी हो सके। इस जघन्य अपराध को अंजाम देने वाला कोई पेशेवर कातिल नहीं बल्कि कक्षा सातवीं में पढ़ने वाली बच्ची है। खुद की इतनी आयु नहीं है कि वो अपने कृत्य के परिणाम और प्रकृति को ठीक से समझ पाए। संभव है। उसने अपने परिवेशीय दबावों और प्रभावों में आकर इस घटना को अंजाम दियाज्यादा दिन नहीं हुए पिछले साल को ही घटना है गुरूग्राम में प्रद्युम्न ने अपनी जान भी छुट्टी, परीक्षा के भय से त्रस्त बच्चे के हाथों गंवा दी। शायद नागर समाज के लिए यह समाज में घटने वाली अन्यान्य घटनाओं की तरह हो सकती हैलेकिन इसकी जड़ में जाएं तो इस प्रकार की स्कूली घटनाएं हमें ताकीद करती हैं कि हम किस प्रकार की शिक्षा और स्कूली परिवेश अपने बच्चों को मुहैया करा रहे हैं। कहीं न कहीं शिक्षा की परीक्षा व परीक्षा आधारित शिक्षा से पलायन और भय को ही पोषित करती हैयदि बच्चों को स्कूल व शिक्षा डरा और जीवन के हककीत से दूर ले जाने वाली है तो उस शिक्षा के परिणाम ऐसे आएंगे इससे हम बच नहीं सकते। हमारे बच्चों पर इन दिनों कई दिशाओं और माध्यमों से दबाव पड़ रहे हैं। जो बच्चे लड़ पाते हैं वो तो जीत जाते हैं और जो हार गए वे उनके गिरफ्त में आ जाते हैं। मीडिया और संचार का प्रभाव बच्चों के स्थाई मन और दिमाग पर गहरा पड़ता है। इसका खामियाजा हमें आज न कल भुगतने के तैयार रहना होगा। प्रिंसिपल व अध्यापक को नौकरी से निकालना व गिरफ्तार करना एक अस्थाई समाधान है। यदि हम स्थाई और टिकाऊ समाधान चाहते हैं तो हमें शिक्षा और परीक्षा की प्रकृति को दुबारा से गठित और निर्मित करना होगा।


ख का जिक्र यहां करना प्रासंगिक होगा। यह लेख सात जनवरी को छपा था जिसमें ज्योति शेल्कर, लेखिका बड़ी ही शिद्दत से विभिन्न रिपोर्ट के हवाले से लिखती हैं कि आज के बच्चों में दुश्चिता, तनाव, अनिद्रा, गुस्सा, ध्यान का कम लगना और झगडालुपने के पीछे बच्चों का स्क्रीन में घुसे रहना भी है। स्क्रीन में डूबे रहने की प्रवृत्ति को मनोविज्ञान एवं मनोचिकित्सा की भाषा में स्क्रीन एकडिक्शन कहा गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन इसे गेमिंग डिसऑर्डर के नाम से पहचान रहा है। बच्चों में इस प्रकार के डिसऑर्डर की वजहें स्पष्ट है कि जो बच्चे ऑन स्क्रीन ज्याद गेम्स खेलते हैं, जो बच्चे ज्यादा वक्त टीवी, स्र्माट फोन, आईपैड आदि पर गुजारते हैं उन बच्चों में अनिद्रा, चिड़चिड़ापन, लडाकू प्रवृत्ति, व्यवहार संबंधी डिसऑर्डर आदि पनपने लगते हैं। उनसे फोन, आईपैड आदि दूर करने पर वे आक्रामक हो जाते हैंया फिर खाना-पीना छोड़ देते हैं। वे अपने तरीके से विरोध करने लगते हैंजो उनके व्यवहार में साफतौर पर दिखाई देता है। मैनचेस्टर विश्वविद्यालय में 2017 में एक शोध पर्चा पढ़ा गया था जो बच्चों में स्क्रीन डिसऑर्डर संबंधी अध्ययन किए गए थे। उस पर्चे का मजमन यही था कि जो बच्चे अत्यधिक स्क्रीन गेम्स व फ उनमें भाषा सीखने के कौशल और समझ कमतर होने लगती है। दूसरे शब्दों में भाषायी कौशलों में वे बच्चे पिछड़ने लगते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे इंशोमेनिया का नाम दिया हैबच्चों में आक्रामक व्यहार के पीछे इस स्क्रीन पर बिताए जाने वाले समय का प्रभाव भी दरपेश है। क्योंकि जब बच्चे ऑन स्क्रीन वक्त गुजारते हैं तब वे अपने परिवेश से कटते चले जाते हैंयह आम तजुर्बा है कि जब हम टीवी देख रहे बच्चे से उसके इच्छित शो बंद करने के लिए कहते हैं या उससे रिमोट ले लेते हैं तब उसका व्यवहार आक्रामक हो जाता हैयदि उस बच्चे का बस चले तो वह थप्पड़ लगा दे या फिर गाली गलौच करने लगे। इसका सीधा अर्थ है बच्चे को अपने व्यवहार पर नियंत्रण नहीं रह पाताबल्कि बड़े भी ऐसी स्थिति में आपा खोते पाए जाते हैं ।


बच्चे के आक्रामक व्यवहार के पीछे कई कारण काम करते हैं। पहला तो उस पर अभिभावकीय दबाव ज्यादा होता है। हम लगातार उसकी क्षमता और शक्ति की सीमा को पहचाने उससे अपेक्षा करते हैं कि वो वे सब कुछ करे जो और दुनिया के बच्चे कर रहे हैं। जबकि हमें हर बच्चे की वैयक्तिक भिन्नता और क्षमताओं को ध्यान में रखना होगावरना बच्चे और हम स्वयं अभिभावक तनाव और दुश्चिता की गिरफ्त में आ जाएंगे। बच्चे जल्दी तनाव और हताशा के शिकार हो सकते हैंबच्चों में आक्रामक व्यवहार पैदा करने में हम व्यस्कों का भी बराबर का हाथ होता हैहम उन्हें हमेशा ही तुलना और प्रतियोगिता की दुनिया में अकेला ही धकेल देते हैं। जबकि होना यह चाहिए कि उन्हें तर्क और विवेक के औजार के साथ दुनिया में उतारा जाएसंभव है तब हम बच्चों में तनाव, आक्रोश, खिन्नता आदि को कम कर सकें। लखनऊ की स्कूली घटना इस मायने में बेहद अहम और गंभीर है। हमें यह समझना होगा कि आखिर उस बच्ची ने क्यों यह कदम उठाए? क्यों उसे स्कूल में छुट्टी की दरकार थी? कहीं परीक्षा का भय तो नहीं था? कहीं उसे सातवीं कक्षा की पढ़ाई बोझ व भयावह तो नहीं लग रही थी? आदि।


हाल ही में दिल्ली के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय को एक सम्मेलन में सुझाव प्रेषित किया कि स्कूली पाठ्यक्रम में पचास फीसदी की कमी की जानी चाहिए। यह मांग आज नयी नहीं है बल्कि कई शिक्षाविदों की ओर से भी ऐसे प्रस्ताव आए हैं। लेकिन राजनीतिक और नीतिगत समितियों में इसे तवज्जो नहीं दी गईमसला यहां भी धुंधला है कि क्या हम सिर्फ पाठ्यक्रीय शिक्षा अपने बच्चों को देना चाहते हैं या जीवन की समझ के साथ जीवन के संघर्षों के निकलने और सुलझाने की तालीम भी देना चाहते हैंजहां तक पाठ्यपुस्तकों और पाठ्यक्रमों का मामला है कि तो हम इस स्तर पर भी कामयाब नहीं हो सके हैंन केवल सरकारी वल्कि निजी संस्थानों की ओर से किए गए सर्वे रिपोर्ट तो यही साबित करते हैं कि हमारे बच्चे सामान्य वाक्य, सामान्य गणित के जोड़-घटाव, देश की राजधानी तक बता पाने में सक्षम नहीं हो सके हैंहमें ही तय करना होगा कि क्या हमारा शिक्षा से मकसद महज चंद सूचनाओं और जानकारियों को रिट्रीव करने की क्षमता विकसित करना है या फिर उनमें तर्कशीलता और चिंतनशील प्रवृत्ति को बढ़ावा देना हैहमारी शिक्षा किसी भी सूरत में डर पैदा नहीं करती बल्कि शिक्षा के अवांतर हमारी अपेक्षा उसे डरावनी बना देती है। स्कूल व शिक्षा जब बच्चों की जान लेने और देने को मजबूर कर दे तो हमें अपने शैक्षिक विमर्शों और दर्शनों के साथ शिक्षा के मकसद को भी दुवारा गढ़ना और पुनर्निर्माण करना होगा। लेकिन तमाम घटनाएं इस ओर इशारा करती हैं कि बच्चों में आक्रामकता, घोर निराशा, तनाव, अनिद्रा बहुत तेजी से अपना शिकार बना रही हैंवह दिन दूर नहीं जब बच्चों को शिक्षा-परीक्षा से विश्वास उठ जाए, बल्कि इसके विरोध में खड़े हो जाएं ।


नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क 2005 लगातार शांति के लिए शिक्षा को तवज्जो देता है। यह दस्तावेज मांग करता है कि स्कूली शिक्षा किस तरह न केवल देशीय बल्कि वैश्विक स्तर पर शांति स्थापित कर सकती है। जरूरत इस बात की है कि क्या हमारी शैक्षिक नीतियां और पाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तकें इसके लिए स्थान देती हैं। यदि हम बच्चों को हकीकत की जिंदगी के मसलों को हल करने में मदद नहीं कर पा रहे हैं तो हमें विचार करना होगाहमें अपने शैक्षिक प्रविधि में रद्दोबदल करना होगा। ज़रिया अ तालीम अंग्रेजी के स्थान पर भारतीय भाषाओं और मातृभाषाओं को तवज्जो देना होगा। वरना हुनरमंद बच्चे भी दूसरी भाषा में अपनी क्षमता और कल्पना को अभिव्यक्त नहीं कर पाते। दूसरे शब्दों में हमें बच्चों की इस झुंझलाहटों को दूर करने के लिए उनकी जुबान को स्थान देना होगा। तब संभव है बच्चे में शिक्षा और स्कूल उन्हें डरावना न लगे।


जन पूर्वांचल , फरवरी 2018