शिक्षा को उद्योग के रूप में ही देखता है उद्योग जगत


कुछ वर्षों से उद्योग जगत यह महसूस कर रहा है कि विश्वविद्यालयों की पढ़ाई और डिग्रियां उसकी जरूरतों बहुत अनुकूल नहीं हैं, इसलिए उद्योग जगत और अकादमिक जगत को आपस में मिल-बैठकर संवाद करना चाहिए। फिक्की की उच्च शिक्षा समिति के अध्यक्ष प्रो. आनंद कृष्णन ने भी कहा है कि उद्योग जगत और अकादमिक जगत के बीच तालमेलसाझीदारी और समन्वय होना चाहिए। फिक्की ने तो देश में पांच नेशनल फंक्शनल एजुकेशनल हब बनाने की भी घोषणा की है। केंद्र सरकार अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद के निर्देशन में केंद्र और राज्यों की भागीदारी से पीपीपी मॉडल में उद्योग परिसर में तीन सौ पोलिटेक्निक संस्थानों की स्थापना करने जा रही है। संभव है कि आने वाले वर्षों में उद्योग परिसर में ही इंजीनियरिंग एंव तकनीकी कॉलेज खुलने लगे। 


सीआईआई और फिक्की भी चाह रही है कि उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार आ जाए। दरअसल देश के बीस फीसदी इंजीनियर रोजगार के योग्य नहीं हैं और उद्योग जगत की जरूरतों को देखते हुए दस लाख से अधिक योग्य इंजीनियरों की जरूरत है। शायद यही कारण है कि उद्योग जगत विश्वविद्यालयों से अपेक्षा रखता है कि उनकी जरूरतों को ध्यान में रखकर इंजीनियर पैदा हों। उद्योग जगत की इस चिंता के पीछे मूल वजह यह है कि प्रधानमंत्री ने बुनियादी ढांचे के विकास के लिए एक ट्रिलियन डॉलर के निवेश की घोषणा की है। अब उद्योग जगत को अपने कारोबार की चिंता संताने लगी है और वे इंजीनियरों की खोज में बेचैन हो गए हैं पर उच्च शिक्षा के गिरते स्तर के लिए निजी शिक्षा संस्थान ही ज्यादा जिम्मेदार हैं। दरअसल आज देश के कुछ निजी शिक्षण संस्थानों को अपना स्तर सुधारने की जरूरत है। आज प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेजों के अंधाधुंध खुलने से शिक्षा का स्तर गिरा है।


नेशनल एसोसिएशन ऑफ एक्रिडीशन कमेटी द्वारा अभी तक केवल 161 विश्वविद्यालय एवं 4,371 कॉलेज ही मान्यता प्राप्त हैं यानी शेष शिक्षण संस्थान गुणवत्ता की कसौटियों पर खरे नहीं हैं। देश के 48 प्रतिशत विश्वविद्यालयों तथा 69 प्रतिशत कॉलेजों में बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं। 2007-08 तक देश में पैंतालिस फीसदी प्रोफेसरों, 51 फीसदी रीडरों तथा 53 फीसदी लेक्चररों के पद रिक्त थे। ऐसे में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता कैसे सुधरेगी। उद्योग जगत लगातार सरकार पर दबाव डाल रहा है कि उच्च शिक्षा में निजी भागीदारी बढ़े। उद्योग जगत शिक्षा में विदेशी पूंजी के लिए विदेशी मुद्रा विनिमय अधिनियम में संशोधन करने की भी मांग कर रहा है और कंपनी कानून 25 में भी परिवर्तन की मांग कर रहा है। दरअसल फिक्की की रिपोर्ट के अनुसार 2020 तक ढाई करोड़ छात्रों के दाखिले से उच्च शिक्षा में दाखिला दर तीस फीसदी होगी और इसके लिए दस खरब रुपए की जरूरत होगी। इसमें 5.2 खरब रुपए निजी क्षेत्र खर्च करेगा। जाहिर है जब उद्योग जगत के लोग इतनी बड़ी राशि शिक्षा में खर्च करेंगे तो वे अपना लाभ नुकसान भी देखेंगे। यही कारण है कि आर्थिक सुधार के लिए दस सूत्री एजेंडा तैयार किया गया है। उसमें शिक्षा भी शामिल है और देश की जानी-मानी उद्योग हस्तियों नारायणमूर्ति, सुनील मित्तल, दीपक पारिख, केवी कामत, अशोक गांगुली, आदि ने शिक्षा को लाइसेंस मुक्त करने और मुनाफे का व्यापार बनाने की मांग की है।


जाहिर है उद्योग जगत शिक्षा को उद्योग के रूप में ही देखता है क्योंकि उसके लिए शिक्षा आर्थिक विकास का माध्यम है वह राष्ट्र निर्माण या नागरिक निर्माण, समाज निर्माण, संस्कृति निर्माण का माध्यम नहीं है। विशेषज्ञ शिक्षा को मुनाफे की वस्तु बनाने का पुरजोर विरोध करते हैं। शिक्षा सामाजिक विकास के लिए जरूरी है। शिक्षा को उद्योग बनाया गया तो सर्वाधिक नुकसान समाज के वंचित तबकों, दलितों, आदिवासियों एवं गरीब लोगों को होगा, जिनकी पहुंच से शिक्षा दूर होती जा रही है। प्रश्न यह भी है कि उच्च शिक्षा का विस्तार तो हो पर क्या रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। सरकार हर साल एक करोड़ लोगों को नौकरी देने का वायदा करती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्ट तो कहती है कि पिछले पांच वर्ष में नौकरियों की संख्या कम हुई है। जब देश के अधिकतर अर्थशास्त्री नई आर्थिक नीति का समर्थन कर रहे हैं तो शिक्षा को उद्योग बनने से कैसे रोका जा सकता है। 


बहरहाल, अब समय आ गया है कि जहां सरकार अन्य क्षेत्रों में निवेश बढ़ाने पर जोर दे रही है ऐसे में शिक्षा में भी आमूल चूल परिवर्तन किया जा सकता है। लेकिन ध्यान यह रहना चाहिए कहीं शिक्षा का मूल ही नष्ट न हो जाए। अब देखना है कि मोदी सरकार किस प्रकार का बदलाव करती है अभी तक शिक्षा पर कुछ ऐसी घोषणा नहीं की गयी है जिसको देखकर कहा जाए की उन्होंने बदलाव किया है या नया कुछ करने जा रहे हैं।