समान नागरिक आचार संहिता - आज की जरूरत


समान नागरिक आचार संहिता का मुद्दा एक बार फिर चर्चा का विषय बना हुआ है। वर्तमान केन्द्र सरकार ने कानून आयोग को इस संहिता को लागू करने के लिए आवश्यक सभी पहलुओं पर विचार करने को कहा है। दरअसल यह मुद्दा आज का नहीं है। यह अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा है। भारत विविधताओं से भरा देश है। यहाँ विभिन्न पंथों व पूजा पद्धतियों को मानने वाले लोग रहते हैं। इन सबके शादी करने, बच्चा गोद लेने, जायदाद का बंटवारा करने, तलाक देने व तलाक उपरांत तलाकशुदा महिला के जीवन यापन हेतु गुजारा भत्ता देने आदि के लिए अपने-अपने धर्मानुसार नियम, कायदे व कानून हैं। इन्हीं नियमों, कायदे व कानूनों को पर्सनल लॉ कहते हैं।


अंग्रेज जब भारत आए और उन्होंने यह विविधता देखी, तो उस समय उन्हें लगा पूरे देश को सुचारू रूप से चलाने के लिए एक समान नागरिक आचार संहिता बनानी आवश्यक हैजब उन्होंने ऐसा करने की कोशिश की तो हर धर्मों के लोगों ने इसका विरोध किया। ऐसे में उन्होंने लम्बे समय तक यहाँ अपने पांव जमाये रखने के लिए किसी से उलझना ठीक नहीं समझा। इन परिस्थितियों में 1860 में उन्होंने Indian penalcode तो लागू किया पर Indian civilcode नहीं। यानि एक देश - एक दंड संहिता तो लागू की, लेकिन एक देश एक नागरिक संहिता नहीं। सन् 1947 में देश आजाद हो गया। कानून बनाने व सामाजिक कुरीतियां दूर करने की जिम्मेदारी हमारे नेताओं पर आ गई पर्सनल लॉ के अनुसार हिन्दुओं में बहुविवाह व बालविवाह अब भी चलन में थे महिलाओं की पिता व पति की सम्पत्ति में कोई हिस्सेदारी नहीं थी अकेली महिला बच्चा गोद नहीं ले सकती थी। मुसलमानों में भी बहुविवाह को मान्यता प्राप्त थी पुरूष एक साथ चार शादियां कर सकता था। बिना कोई कारण बताए तीन बार तलाक बोलने मात्र से पत्नी को तलाक दे सकता था। उस समय फिर से समान नागरिक आचार संहिता की आवश्यकता को महसूस किया गया। कमेटियां बनीं, बहस चली, एक बार फिर सभी धर्मों से विरोध के स्वर मुखर हुए। हिन्दू बहुसंख्यक थे उनके लिए पं. नेहरू व तत्कालीन कानून मंत्री डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू सिविल कोड बनाने का प्रयास किया, परन्तु असफल रहेपं. नेहरू ने इस बिल को पारित कराने में विशेष रूचि दिखाई क्योंकि उनका कोई बेटा नहीं था। वे अपनी सारी संपत्ति व किताबों से मिलने वाली रॉयल्टी अपनी इकलौती संतान इंदिरा को कानूनन उत्तराधिकार में देना चाहते थे इस लिए वे हिन्दू सिविल कोड बिल लाने के लिए प्रयासरत थे।


सन् 1952 में पहली सरकार गठित होने के बाद दोबारा इस बिल को लाने की दिशा में कार्य आरम्भ हुआ इस बार इसको हिन्दू विवाह अधिनियम, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, हिन्दू दत्तक ग्रहण व पोषण अधिनियम एवं हिन्दू अवयस्कता एवं संरक्षता अधिनियम में विभाजित कर दिया गया एवं 1955-56 में संसद में पारित करा लिया गया। हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत तलाक को कानूनी दर्जा मिला। अन्र्तजातीय विवाह को कानूनी मान्यता मिली। बहुविवाह को गैर-कानूनी घोषित किया गया। ये सभी कानून महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा देने के लिए लाए गये थेइसके अन्तर्गत महिलाओं को पहली बार संपत्ति में अधिकार दिया गया लड़कियों को गोद लेने पर जोर दिया गया। इस तरह तमाम विरोधों के बावजूद हिन्दू समाज के पुनर्निर्माण की नींव पड़ी।


कुछ मुस्लिम कट्टरपंथियों ने जब यूनीफॉर्म सिविल कोड का विरोध किया तो हमारे नेताओं ने भी अंग्रेजों की तरह तुष्टीकरण की नीति अपनायी। उन्होंने उनसे टकराव न लेते हुए यूनीफॉर्म सिविल कोड लागू करने के बजाय उसे संविधान के भाग 4 में अनुच्छेद 44 के रूप में नीति निर्देशक तत्वों में शामिल कर दियाअर्थात बाद के लिए टाल दियानीति निर्देशक तत्व सरकार को कानून बनाने के लिए दिशा निर्देश देते हैं। वे कानून द्वारा सुलभ (enforceable) नहीं है। इस तरह मुसलमान मुख्य धारा में जुड़ने से रह गये। प्रचार यह किया गया कि वे मुस्लिम समुदाय के रहनुमा हैं, परन्तु आज आजादी के 68 वर्षों के बाद भी मुस्लिम महिलाओं की स्थिति दयनीय है वे आजादी के बाद भी उन्हीं कुरीतियों की शिकार हैं।


आज हमारा संविधान देश के हर नागरिक को चाहे वह स्त्री हो या पुरूष, बराबर का दर्जा देता है। जब भी समान नागरिक आचार संहिता लागू करने की बात आती है, मुस्लिम कट्टरपंथी शरिया कानून की बात करने लगते हैं। उन्हें लगता है समान नागरिक आचार संहिता लागू होने से देश में मुस्लिम संस्कृति ध्वस्त हो जायेगी। इसके लिए कई बार वे संविधान के भाग 3 में उल्लेखित अनुच्छेद 25 का सहारा लेते हैं। अनुच्छेद 25 किसी भी नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार देता है। इस समय वे यह भूल जाते हैं कि हर नागरिक के कुछ दूसरे मौलिक अधिकार भी हैं। जैसे अनुच्छेद 14 स्त्री-पुरूष को बराबरी का अधिकार देता है मुस्लिम पुरूष एक बार में 4 शादियां कर सकता है, परन्तु स्त्री नहीं। तो यह स्त्री के बराबरी के मौलिक अधिकार का हनन है। पुरूष 4 शादियां करता है और सभी पत्नियों के साथ एक जैसा व्यवहार नहीं करता है, उन्हें मानसिक कष्ट में रखता है तो यह उनके जीने के अधिकार अनुच्छेद 21 का हनन है।


कानून की 1860 IPC की धारा 494 के अनुसार कोई भी स्त्री या पुरूष एक विवाह के रहते दूसरा विवाह नहीं कर सकता। दूसरी ओर मुस्लिम पुरूष 4 शादियां कर सकता है। CRPC 1973 की धारा 125 के अनुसार तलाकशुदा पत्नी-पति से आजन्म गुजारा भत्ता लेने की हकदार है। मुस्लिम महिलाओं के लिए ऐसा नहीं है। शाहबानो केस इसका उदाहरण हैइसी तरह बाल विवाह निषेध अधिनियम 1929 के अनुसार बाल विवाह अपराध है, परन्तु मुस्लिम समाज के लिए यह अपराध की श्रेणी में नहीं आता है। ईसाई विवाह अधिनियम 1872, ईसाई तलाक अधिनियम 1869 भी पुराने हैं व हिन्दू विवाह अधिनियम से अलग हैं। ये विषमताएं देश की धर्मनिरपेक्षता पर प्रश्नचिन्ह हैं।


गोवा का अपना सिविल कोड है। यह पुर्तगाली सिविल कोड 1867 पर आधारित है। इसे गोवा में 1870 में लागू किया गया थाबाद में कुछ परिवर्तन भी किये गये। गोवा सिविल कोड में हर धर्म के लोगों के लिए विशेष प्रावधान हैयह हिन्दू सिविल कोड से अलग हैसन् 1961 में गोवा के भारत में विलय के बाद भी इसे उसी स्वरूप में रहने दिया गया। सन् 1981 में भारत सरकार ने इस कोड को हटाने व सबके अपने-अपने कानून (Non&Uniform law) लागू करने की संभावनायें तलाशने के लिए एक पर्सनल लॉ कमेटी बनाई। गोवा मुस्लिम शरिया ऑर्गेनाइजेशन ने इसका समर्थन किया, परन्तु मुस्लिम युवा वेलफेयर एसोसिएशन एवं महिला संगठनों ने इसका पुरजोर विरोध किया।


आज समय है, जब मुस्लिम महिलाओं व युवाओं को संगठित होकर सरकार से समान नागरिक आचार संहिता लागू करने की मांग करनी चाहिए। हिन्दू समाज ने भी हिन्दू सिविल कोड का विरोध किया था। लेकिन आज हिन्दू महिलाएं अच्छा जीवन जी रही हैं। मुस्लिम समाज में भी समान नागरिक आचार संहिता लागू होने पर कुछ विरोध होंगे। सरकार को उनकी अनदेखी करनी चाहिए। यूं भी समान नागरिक आचार संहिता के अन्तर्गत शादी, तलाक, गोद लेने व उत्तराधिकार जैसे धर्मनिरपेक्ष प्रकृति के मुद्दे आते हैंइनसे किसी के भी धार्मिक अधिकारों की स्वतंत्रता का हनन नहीं होता है। हां, समान नागरिक आचार संहिता लागू होने से कुछ फायदे अवश्य होंगेमुस्लिमों में बहुविवाह पर रोक लगने से जनसंख्या वृद्धि रूकेगी। कम बच्चे होने से उनकी आणथक स्थिति सुधरेगी। एक तरफा तलाक पर रोक लगने से मुस्लिम महिलाओं के शोषण में कमी आयेगी। जब धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं होगा तो देश सही मायने में धर्मनिरपेक्ष बनेगा। विभिन्न समुदायों के बीच एकता की भावना पैदा होगी। एक ही विषय पर कम कानून होने से न्यायतंत्र को भी फैसले देने में आसानी होगी। कई मुस्लिम देशों जैसे टर्की व ट्यूनिशिया आदि ने भी शरीयत से हटकर नागरिक कानून बनाये हैं। अन्य धर्मों में भी समय-समय पर व्यक्तिगत कानूनों में परिवर्तन हुए हैं। मुस्लिम समाज को मुख्य धारा में आने व अपने सामाजिक उत्थान के लिए सरकार पर समान नागरिक आचार संहिता लागू करने के लिए दबाव बनाना चाहिए। सरकार को भी मुस्लिम समाज को केवल वोट बैंक ना मानते हुए तुष्टीकरण की नीतियों से ऊपर उठ कर सामाजिक समरसता व हर वर्ग के उत्थान के लिए काम करना चाहिए।


धनगर चेतना ,अक्टूबर 2016