यश-अपयश का भागीदार होता है शासक


पाकिस्तान ने युद्धों में मुंह की खाने के बाद उसने रणनीति बदली है। कई दशकों से वह आतंकवाद के रूप में छद्म युद्ध चला रहा है। हमारी सेना को जब भी निर्देश मिले हैं, उसने दुश्मनों को सबक सिखाया है। यह भारत का स्वभाव और विरासत है कि वह पड़ोसियों से अच्छे रिश्ते रखना चाहता है। हमारे प्रधानमंत्रियों ने पाकिस्तान से बेहतर संबंध बनाने के यथासंभव प्रयास भी किये हैं लेकिन पाकिस्तान ने इस भावना को कभी समझने का प्रयास नहीं किया।


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी पाकिस्तान और उसकी आतंकी समस्या विरासत में मिली। मोदी ने भी तनाव कम करने व संबंध सामान्य बनाने के प्रयास किए। लेकिन पाकिस्तानी दुम टेढ़ी ही बनी रही। कुछ समय पहले तक इसे लेकर नरेन्द्र मोदी पर तंज भी कसे जाते थे विपक्षी नेता सवाल करते थे कि सीमा पार का आतंकवाद समाप्त क्यों नहीं हुआ, कहां गया छप्पन इंच का सीना। इस प्रकार निशाने पर मोदी ही थे। पाकिस्तान के भीतर घुसकर आतंकी कैम्प नष्ट करने का निर्देश प्रधानमंत्री ने ही दिया था। सेना ने बखूबी इस सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दिया। सेना की प्रशंसा निर्विवाद है। सत्ता पक्ष ने जांबाज सेना को सैल्यूट किया लेकिन कुछ विपक्षी नेताओं ने इसके बाद भी मोदी के ऊपर से अपना निशाना नहीं हटाया। इनका आशय था कि सेना की कार्रवाई सराहनीय है लेकिन इसमें नरेन्द्र मोदी का नाम न लिया जाए मतलब यह कि तब भी विपक्षी निशाने पर मोदी थे, जब सर्जिकल स्ट्राइक हो गया तब भी निशाने पर मोदी ही रहे कि उनकी प्रशंसा क्यों हो रही है। इसे देखकर लगता है कि इन विपक्षी नेताओं को सर्जिकल स्ट्राइक की सफलता से खुशी नहीं मिली, लेकिन प्रधानमंत्री को आमजन में जो प्रशंसा मिली उसका दु:ख अवश्य है। गनीमत है कि ऐसी मानसिकता वाले विपक्षी नेताओं की संख्या बेहद सीमित है। इन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता हैकई बार ऐसा लगता है जैसे ये मोदी-मोदी के अलावा कुछ सोचने की स्थिति में ही नहीं रहे। मोदी के प्रति इनका पूर्वाग्रह छिपाए नहीं छुपता। ऐसे नेताओं का इतिहास बोध भी उजागर हो जाता है। शासन व्यवस्था का चाहे जो स्वरूप हो, चाहे जो कालखण्ड हो, सेना और शासक वस्तुतः एक सिक्के के दो पहलू होते हैं यह बात उस समय भी सच थी जब राजतंत्र हुआ करते थे, राजा स्वयं युद्ध में जाते थे। आधुनिक युग में युद्ध में सक्रियता केवल सेना की होती है। फिरभी शासक व सेना के बीच का मूल विचार अपरिवर्तित रहा प्रत्येक सैनिक कार्रवाई से शासक गहराई तक जुड़ा होता है कार्रवाई सफल हुई तो उसका यश भी सेना के साथ-साथ शासक को मिलता है, कार्रवाई विफल होती है तो पूरा अपयश शासक के हिस्से में आता है तब भी सेना की प्रशंसा होती है। माना जाता है कि सैनिकों ने तो अपनी जान की बाजी लगा दी लेकिन कमी राजनीतिक सत्ता की तरफ से थी। उसने समय रहते तैयारियों पर ध्यान नहीं दिया या सैन्य कमाण्डरों के साथ उचित ताल मेल, रणनीति बनाने में विफल रहा। ऐसा भी नहीं कि ये बातें केवल बड़े मुद्दों पर लागू होती है। सर्जिकल स्ट्राइक में भी सैकड़ों जवान लगाए जाते हैं इसमें भी जोखिम कम नहीं होता। पाकिस्तान के आतंकी कैम्प भी सेना की ट्रेनिंग व उसके द्वारा उपलब्ट कराए गए हथियारों से ही संचालित होते हैं तनिक भी चूक दांव को पलट सकती है इसके बाद शत्रु पक्ष की क्या प्रतिक्रिया होगी, अन्तरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया क्या होगी, यह भी देखना होता हैउसके मद्देनजर तैयारी करनी पड़ती है युद्ध हो या सर्जिकल स्ट्राइक इसका यश-अपयश राजनीतिक सत्ता को ही मिलता है। इससे सेना का मान-सम्मान कम नहीं होता।


कांग्रेस के नेता इतिहास में बहुत पीछे नहीं जा सकते तो उन्हें 1962 व 1971 के युद्ध पर ही नजर दौड़ानी चाहिए1962 में भारत पराजित हुआ। तब भी अभाव में लड़ने वाले भारतीय सैनिकों की प्रशंसा हुई लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री को बड़ा अपयश मिला। वह आजीवन इस कष्ट से मुक्त नहीं हो सके। 1971 की स्थिति इसके विपरीत थी। इसमें भारत विजयी रहा। सेना को पुनः प्रशंसा हुई लेकिन यश तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी को मिला। ऐसे ही 1965 युद्ध का यश लाल बहादुर शास्त्री को मिला। राहुल के शब्दों में क्या माने कि यह यश जवानों के खून की दलाली थी। सर्जिकल स्ट्राइक युद्ध नहीं था लेकिन इसमें प्रधानमंत्री का यश-अपयश दोनों दांव पर लगता है। दूसरे देश की सीमा में घुसकर आपरेशन करना बहुत जोखिम होता है यदि स्ट्राइक सफल न हो हमारे ही सैनिकों को नुकसान उठाना पड़े तो प्रधानमंत्री बड़े अपयश का शिकार बनतेउनके खिलाफ माहौल बनता। तब यह ऐसा अपयश होता जिससे मुक्त होना नरेन्द्र मोदी के लिए संभव नहीं होता लेकिन सर्जिकल स्ट्राइक सफल हुई। सबसे पहले सैनिकों की प्रशंसा हुई। प्रधानमंत्री कोई भी होता उसे स्वाभाविक रूप से यश मिलता। यह गलत फहमी नहीं होनी चाहिए कि किसी को यश पोस्टर, से मिलता है। यह सब तो बनवाने वाले केवल अपने प्रचार हेत करते हैं इनसे जनमत नहीं बनता। कई बार बड़े नेताओं को होर्डिग बनवाने वाले छुट भइया देवता-देवी के रूप में दिखा देते हैं लेकिन आमजन उस पर रंचमात्र विश्वास नहीं करता। बनवाने वाला अपनी चाटुकारिता पूरी कर लेता है। यही उसका उद्देश्य होता है। ऐसे में नरेन्द्र मोदी को भाजपा नेताओं की होर्डिग से यश नहीं मिला। यह स्वाभाविक व शाश्वत रूप में मिल रहा है।


धनगर चेतना  अक्टूबर 2016