सारी उमर गँवा दी हमने..

 


 


 


पिछड़े से अति पिछड़े होकर, अब अछूत होना बाकी है ।


बदहाली पर फूट फूट कर, सामूहिक रोना बाकी है ॥


 


लानत है पूरे समाज की, अर्थी स्वयं सजा ही हमने ।


कितनी साल गँवा दी हमने..


 


दस करोड़ हम हैं भी, तो क्यों, गिनता नहीं जमाना हमको ।


पापी हैं कितने,  जो अच्छा लगता जाति छुपाना हमको ॥


 


नाहक भेष बदलकर जो थी, सो पहचान लुटा दी हमने ।


कितनी साल गँवा दी हमने..


 


लड़ने हक पाने को हमने, चुने कई सरदार सयाने ।


लेकिन वे सरदार हमारे, लगे हमीं पर तीर चलाने ॥


 


बैठे मान मसीहा खुद को, पदवी क्या दिलवा दी हमने ।


कितनी साल गँवा दी हमने..


 


जिसको पद मिल गया कहीं वो, हमसे दूर चला जाता है ।


हमने जिसे बिठाया सिर पर, वह पद पा इठला जाता है ॥


 


सौ वर्षों में सोचो की क्या, प्रगति और बरबादी हमने ।


पूरी उमर गँवा दी हमने..