चुनाव 2019-राज सिंहासन पर फिर मोदी


जिस जोरदार धमाकों के साथ लोकसभा के चुनाव 23 मई को वोटों की गिनती के साथ संपन्न हुये उसने देश की राजनीति में सचमुच भूचाल की स्थिति पैदा कर दी है। जहां भारतीय जनता पार्टी (भा.ज. पा.) प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुआई में बंपर (प्रचंड) जीत प्राप्त करने में कामयाब हो गई वहां उसकी मुख्य विरोधी पार्टी कांग्रेस सपाट औंधे मुंह गिर गई, देखी जा सकती है। भाजपा ने 2014 में हुई अपनी ही जीत के रिकार्ड को तोड़ कर 549 में से 303 सीटें जीत कर दुनिया को चकित कर दिया। दूसरी तरफ कांग्रेस अपनी जीती हुई 53 सीटों के आधार पर संसद में 2014 की तरह फिर विरोधी दल के दर्जे को छूने में असफल रह गई। और तो और वह उन तीन प्रदेशों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान के चुनावों में अपना खाता भी न खोल सकी, जहां केवल 5-6 महीने पूर्व भाजपा को ही पछाड़ कर जीत के झंडे गाड़े थे। मध्य प्रदेश के वरिष्ठ नेता दस साल मुख्यमंत्री रह चुके दिग्विजय सिंह भी मालेगांव बम धमाके की आरोपी साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को कई लाख मतों के अंतर से हार गये। स्वयं पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी अमेठी जैसे अपने विरासती गढ़ को किसी समय की टी.वी. अभिनेत्री स्मृति ईरानी के आक्रमण से भी न बचा सके। कुल मिलाकर देश की हुकूमत की बागडोर भाजपा के नाम पर अब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के हाथ आने से स्थिति और अधिक गम्भीर तथा डरावनी बन गई है। स्थिति के गम्भीर तथा डरावनी बनने का कारण इस या उस व्यक्ति की राजगद्दी पर बैठना नहीं बल्कि गद्दी पर बैठने वाले व्यक्ति के इरादे (उद्देश्यों) व एजेंडा से संबंधित है, जिसके बल पर वह देश और समाज की आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियों को कोई भी दिशा दे सकता है। आरएसएस के एजेन्डे और उद्देश्यों से कौन परिचित नहीं? कौन नहीं जानता? उसकी रूपरेखा क्या होगी, उसका ट्रेलर (झांकी) तो दुनिया विगत पांच सालों में देख चुकी है। पूरी फिल्म शुरू होने को है।


इस पार्टी की इस अप्रत्याशित जीत को पीछे मोदी लहर कारण बताया जाता है, बल्कि पार्टी ढढोरचियों के अनुसार यह मोदी लहर नहीं मोदी सुनामी (Tsunami) थी। हम स्वयं इसे मोदी लहर की बजाय इसके दुष्प्रभावों को ध्यान में रखते हुये इसे मोदी सुनामी कहना अधिक उपयुक्त समझते हैं। मद्रास समुद्री तट पर अकस्मात आयी 2004 में सुनामी (समुद्री तुफान) की विनाश लीला को कौन भूल सकता है। जिसने कुछ घंटों में ही हजारों इन्सानी जाने ले लीं और करोड़ों-अरबों का नुकसान पहुंचा कर देश के सामने भयंकर संकट खड़ा कर दिया। क्या इस मोदी सुनामी का अभिप्राय भी तो उस प्रकार की राजनीतिक तथा सामाजिक संकट खड़ा करना तो नहीं? मोदी सुनामी के परिणामस्वरूप देश और समाज की शक्ल सूरत क्या हो सकती है, वह एक कलमी चित्रकार ने अपने शब्दों में क्या खूब बयान किया है, पढ़ने लायक है। ट्रिब्यून (21 मई) में व्यवसाय से नावलकार और फिल्म निर्माता सलील देसाई अपने कॉलम Fine Points of Hindu Rashtra (हिन्दू राष्ट्र की मुख्य विशेषतायें) में लिखता है, जो है तो देखने में काल्पनिक तरह की, लेकिन वास्तविक जीवन में घट रही घटनाओं, दिये जा रहे बयानों और ऐलानों को देखते हुये इसे पूर्णतः खारिज भी नहीं किया जा सकताभाजपा द्वारा धमाकेदार जीत प्राप्त करने के पश्चात् पार्टी के बदमस्त लोगों को हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्र के दोरों (Hallucinations) के प्रभाव से बचाना मुश्किल हो जायेगा। इस कारण हिन्दू राष्ट्र के बारे में गम्भीरता से चिन्तन करना आवश्यक है कि व्यवहारिक जीवन में उसका रंग-रूप क्या होगा।


इस चुनाव दंगल में खास कर विरोधी पार्टियों की कारगुजारी ने सबको हैरान हीं नहीं काफी हद तक निराश भी कर दिया है। हालांकि सब विरोधी पार्टियां चुनावों से पहले इकट्ठे होकर 'मोदी हटाओ' संकल्प का पूरी सरगर्मी से सफल बनाने के दावे भी कर रही थी। लेकिन समय आने पर अपने-अपने संकीर्ण पार्टी हितों और अहम् के कारण कोई साझा मंच न बना सके। साक्षा मोर्चा न बन सकने में मोदी-शाह की कूटनीति के दखल को नकारा नहीं जा सकता। ममता दीदी बंगाल में 'एकला चलो' गीत गाती रही। उत्तर प्रदेश में मायाबती, अखिलेश गठबंधन ने चंद्रशेखर आजाद जैसे जुझारू नवयुवक नेताओं को साथ मिलाने की जरूरत नहीं समझी। कांग्रेस तो उसके लिये चले हुए बेकार कारतूस थी। दिल्ली में खुद कांग्रेस ने केजरीवाल को सौ हाथ जोड़ने के बाद भी उससे हाथ मिलाने से इन्कार कर दिया। बिहार में लालू की विरासत को उसी के होनहार सपूतों तेजस्वी और तेजप्रताप की आपसी कलह ले डूबी। उधर महाराष्ट्र में प्रकाश अम्बेडकर की 'मैं न मानू' की जिद ने भाजपा के फड़नवीस को गद्दी पर फिर बैठा दिया। वहां गठजोड़ काम नहीं कर सका।


इस उगते सूरज को प्रणाम कहने वालों की लिस्ट में भारती इलैक्ट्रॉनिक मीडिया को सबसे ऊपर रखा जा सकता है। बल्कि यदि यह कहा जाये कि भाजपा के तनख्वाहदार (वेतनभोगी) कार्यकर्ताओं से भी बढ़कर यह मीडिया अधिक उत्साह से मोदी महिमा में जुटा हुआ है तो यह गलत नहीं होगा। विरोधी पार्टियों नेताओं की छोटी से छोटी चूक को बार-बार उछालना और शासक पक्ष के बड़े से बड़े घोटाले पर पर्दा डालना उसका सामान्य व्यवहार बन गया है। टीवी मीडिया आज के युग में लोगों की किन्हीं मुद्दों पर गलत या सही बनाने में सबसे अधिक शक्तिशाली साधन है। मीडिया के इस पक्षपाती व्यवहार के खिलाफ २. विरोध दिखाने के लिये कुछ समय तक ही सही कांग्रेस ने मीडिया में होने वाली बहसों में हिस्सा न लेने का फैसला कर लिया। यह मीडिया के लिये लानत फटकार से किसी तरह कम नहीं।


इस चुनाव घमासान में दलित समाज की समूचे रूप में दयनीय दशा को देख कर दिल निराश हो जाता है कि इतनी भारी जनसंख्या और वोट शक्ति के होते हुए उसे टिकट के लिये दूसरे लोगों के आगे हाथ फलाना पड़ रहा है। जिनमें कोई नाग नाथ हे आर काइ साप नाथलिन माज आज तक दसरी पार्टियों का वोट बैंक ही बना रहा या कछ चनिदा लोग कुछ ऊपर उठकर उनके 'जी हुजूरिय' बन जाते हैंकांग्रेस के 'चमचा युग' के बाद अब मोदी का 'डोर मेट युग' (दरवाजे पर रखी चटाई) शरू हो गया है। जब हैदराबाद के शोध विद्यार्थी रोहित नि नग्त के कारण हुई रहस्यमय मौत पर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में तत्कालीन शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी अपना पल्ला छुड़ाने के बहाने गढ़ रही थी तो उस सम केन्द्र में दो दलित मंत्री खुशी में तालियां बजा रहे थे। दलित चमचा राजनीति में बाबू जगजीवन राम दौर के बाद अब ऐसा किरदार (भूमिका निभाने वालों में राम विलास पासवान, रामदास अठावले तथा उदित राज के नामों का जिक्र किया जा सकता है। वह अपनी पिछली पृष्ठभूमि से निकल कर बाहर कैसे आये और किन हालात में वह मोदी की छत्रछाया में अपना स्थान बना पाये उसका उल्लेख मैं अपने 2014 में लिखे लेख 'दलित हीरो संघ का शरण में' में कर चुका हूं।


अब मोदी जी की सत्ता में दोबारा वापसी पर जहां पासवान और अठावले अपनी गिरती पगड़ी को बचा पाने में कामयाब हो गये वहां उदित राज अपनी वफादारी के सौ आश्वासन देने के बाद भी टिकट की खैरात नहीं पा सके। गालिब साहित के अनुसार 'बड़े बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले' पासवान के बारे में तो हर कोई जानता है कि जहां मंत्री की कुर्सी वही पासवान। उसकी चाबी चाहे जनता के बी.पी. सिंह के पास हो, कांग्रेस के राजीव गांधी के पास, चाहे भाजपा के बाजपेई या मोदी के पास हो । आरक्षण की लूट है, लूट सके तो लूट और इस लूट में डबल हिस्सा लेने के लिये डंडा सोटा ही क्यों न उठाना पड़े। अठावले जी के नाम के साथ बाबा साहेग की आर.पी.आई. का ठप्पा उनके मोदी भवन में दाखिले के लिये गारंटी कार्ड का काम कर देता हैबाकी उनका संसद में मोदी जी की प्रशंसा में तुकबंदी करना उनका रास्ता और अधिक आसान कर देता है। हां, उदित राज जैसे सुझवान 'दलित चिंतक' की जगहंसाई को देखकर दःख जरूर होता है। फारसी की यह उक्ति उन पर खूब जचती है कि 'ऐ रौशन तबा-ए-मन तू बर मन बला शुदी' अर्थात् ऐ मेरी प्रबुद्ध बुद्धि तू मेरे लिये मुसीबत बन गई। सीधा सा सवाल है जब तुम स्वेच्छा से भाजपा मार्का गीदड़ों के टोले में शामिल हो गये तो वहां जाकर दलितों पर कोरेगांव कांड या दो अप्रैल 1918 के दलित भारत बंद के दौरन हुये अत्याचारों के खिलाफ बयान देने की क्या जरूरत थी या मणीम कोर्ट में एस सी एस टी के बारे दिये गये फैसले के खिलाफ बोलना, कहां की बुद्धिमाना था? और जब उन्होंने टस 'वदिमानी' का संज्ञान लेकर बाहर का रास्ता दिखा दिया तो उस भाजपा को जो पांच साल पहले उनके शब्दों में दलित हितैषी थी, अब वह दलित विरोधी कैसे बन गई है। हताशा की मुद्रा में कांग्रेस का दामन थामते हुये वह स भगवा पाटी कोस रहे हैं। शायद अपनी गलती के लिये मन ही मन में पश्चाताप भी करते होंगे। ऐसी परिस्थिति में फारसी भाषा में दिया गया यह परामर्श कितना उपयुक्त है कि 'मुशते कि बाद अज जंग याद मी आयद बर कल्ला-ए-खुद बायंद मी जद यानि जो घूसा लड़ाई के बाद याद आता है उसे अपने ही सिर पर मार लेना चाहिए, बहार आकर दलित राष्ट्रपति को अब गूंगा बहरा कहने के क्या अर्थ?


मोदी जी ने चुनाव दंगी की दूसरी पारी जीत कर अपने और देशवासियों के सामने ढेर सारे सवालों और समस्याओं का पिटारा खोल कर बिखेर दिया है। इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण समस्या दलित समस्या है। यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि वह इन चुनौतियों से कैसे निपटते हैं और नये दौर में अच्छा दिनों का क्या रंग-रूप होगा।