डॉ0 आबेडकर के आर्थिक विचार


डॉ. भीम राव अम्बेडकर विश्व के महानतम अर्थशास्त्रियों में से एक थे। बाबासाहेब भारत में प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने अर्थशास्त्र में विदेशों से डिग्री प्राप्त की थी। उनके पास अर्थशास्त्र की दो डिग्रियां थी। उन्होंने कोलम्बिया यूनिवर्सिटी, अमेरिका से अर्थशास्त्र में एम. ए. तथा लंडन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से 'Problem of The Rupee' (रूपये की समस्या) नामक शोध प्रबंध प्रस्तुत कर 'डी. एस. सी.” की डिग्री हासिल की थी। डॉ. अम्बेडकर ने चतुर्वर्णीय समाज व्यवस्था के दुष्परिणाम के कारण समाज में घोर आर्थिक असमानता को न केवल देखा था बल्कि उन्होंने गरीबी के दंश को स्वयं झेला भी था इसलिए एक कुशल अर्थशास्त्री के कर्तब्य को वे भली-भाँति समझते थे। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. अमर्त्यसेन ने बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर को 'Father of Indian economics' (भारतीय अर्थशास्त्र के पिता) कहा है। इस प्रकार बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर दुनियां के प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों में से एक थे। वे एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो जैसे क्लासिकल अर्थशास्त्रियों की पंक्ति में शमार नजर आते है। डॉ0 आंबेडकर एक स्टेटसमैन भी थे जिनके पास स्पष्ट दूरदृष्टि थी। इसिलिए उन्होंने प्रजातंत्र और देश के आर्थिक मामलों पर जो विचार दिए हैं, वह दीर्घकालीक है, उसकी प्रासंगिकता आज भी तरोताजा है। सन् 1920-1930 के बीच पूरे विश्व बाजार में भीषण मंदी का दौर चल रहा था। ब्रिटिश सरकार के समक्ष यह गम्भीर चुनौतियां थी। वैश्विक मंदी के कारण ब्रिटिश भारत में उत्पन्न समस्याओं के निदान के लिए ब्रिटिश सरकार ने सन् 1995 में भारत की मुद्रा प्रणाली को अध्ययन करने के लिए रॉयल कमिशन ऑफ इंडियन करेन्सी एण्ड फाइनेन्स' (RoyalCom- mission of Indian Currency and finance) का गठन किया था। इस कमिशन की बैठक में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित विद्वानों में से एक डॉ. आंबेडकर भी थे। गौरतलब है कि कमिशन में उपस्थित हुए प्रत्येक सदस्यों के हाथ में डॉ. आंबेडकर लिखित शोध ग्रंथ “द प्राब्लम ऑफ रूपी : इट्स ओरिजिन एण्ड इट्स सोल्यूशन” थी। कमिशन ने अपनी रिपोर्ट सन् 1996 में प्रकाशित की थी जिसकी अनुशंषाओं के आधार पर भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना हुई। बैंक की अभिकल्पना, नियमानुदेश, कार्यशैली और रूपरेखा डॉ. आंबेडकर की शोध ग्रंथ “द प्राब्लम ऑफ रूपी : इट्स ओरिजिन एण्ड इट्स rigine and its solu- tion) पर आधारित है। इस शोध ग्रंथ पर डॉ. आंबेडकर को डी.एस. सी. की उपाधि मिली थी। यही कारण है कि नोबेल पुरस्कार विजेता और विश्व विख्यात अर्थशास्त्री प्रो. अमर्त्य सेन डॉ. आंबेडकर को भारतीय अर्थशास्त्र का जनक मानते हैं। भारत में 1941 में स्वर्ण मुद्रा (Gold Coin) का चलन था। 1893 तक केवल चांदी के सिक्कों का प्रयोग होना शुरू हुआ। एक स्वर्ण मुद्रा का मूल्य 15 चांदी के सिक्के (Silver Coin) के बराबर था।


भारत में अपेक्षित स्वर्ण उत्पादन न होने के कारण स्वर्ण मुद्रा के मुकाबले भारतीय रजत मुद्रा का निरंतर अवमुल्यन होने लगा। यह जन सामान्य के लिए प्रतिकूल स्थिति थी। मुद्रा अवमुल्यन के कारण महंगाई में वृद्धि हुई जबकि आय ज्यों की त्यों बनी थी। मुद्राओं के अवमूल्यन को लेकर डॉ. आंबेडकर का दृष्टिकोण मानवीय था। उनके अनुसार लोगों के लिए मुद्रा का वास्तविक मूल्य उसके बदले मिलने वाली आवश्यक बस्तुओं से तय होता है। यदि रजत मुद्रा से उनकी आवश्यकताएं पूरी हो सकती है तो उन्हें स्वर्ण मुद्रा की आवश्यकता नहीं होगी। इसके लिए मुद्रा का भरोसेमंद होने के साथ विनिमय प्रणाली में स्थायित्व होना जरूरी है। रजत मुद्रा के उतार-चढ़ाव को देखते हुए डॉ. आंबेडकर ने स्वर्ण मुद्रा को अपनाने का सुझाव दिया। ब्रिटिश सरकार ने बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर की अनुशंषाओं को ज्यों का त्यों मान लिया जिसके आधार पर आगे चल कर भारतीय रिजर्व बैंक की मूलभूत सैद्धातिकी का विकास हुआ। इस प्रकार डॉ. आंबेडकर भारतीय आर्थिक जगत के महान नियामक सिद्ध हुए।


बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर महामानव बुद्ध के विश्व के सबसे बड़े अनयायी थे। बद्ध का कहना था कि “भूख सबसे बड़ा रोग है और इस रोग का इलाज है “रोटी''। रोटी यानि आहार प्राणी के जीवन का आधार है। इसलिए रोटी (अर्थ) सबको समान रूप से मिलने चाहिए। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने ऐसी अर्थव्यवस्था का प्रतिपादन किया हैजिसमें सबको जीवन की आधारिक सुविधा अपलब्ध हो और इसके लिए उन्होंने प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली (Democracy) और 'राज्य-समाजवाद' (State Socialism) के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इसमें सदियों से उपेक्षित वर्ग के सम्मान और उत्थान की प्राथमिकता दी गई है। डॉ. अम्बेडकर के अनुसार प्रजातंत्र की जड़े भारत में ही है और अति प्राचीन काल से फूल-फल रही है। बुद्ध द्वारा स्थापित भिक्खुसंघ एक गणतांत्रिक संगठन था। भिक्खुसंघ में जब कोई विवाद अथवा मतभेद होता था तो उसे गणतांत्रिक पद्धति से निपटाया जाता था। महामानव बुद्ध भिक्खुसंघ पर अपनी इच्छा नहीं थोपते थे। मतभेदों का निस्तारण मतदान के द्वारा बहुमत (यभूयसिक) के आधार पर होता था। इसके लिए पक्ष-विपक्ष में वोट पड़ते थे। वोट को “छंद” तथा वोटर को “छन्द-दायक” कहा जाता था। वोटिंग के बाद अध्यक्ष (संघ-स्थविर) वोटों की गिनती कर बहुमत की घोषणा कर देता था। संघ में संसद में बैठने के तरीके, कोरम, बहुमत, वोट आदि जैसे प्रणाली का प्रयोग किया जाता था। इस प्रकार संघ के उपरोक्त जीवन पद्धति यह प्रमाणित करता है कि संघ में प्रजातंत्रवाद था जिसका आविष्कारक भगवान बुद्ध थे।


प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था में सबों की समान भागीदारी होती है। यह एक प्रकार के सामाजिक भागीदारी से जुड़ी शासन पद्धति है। इसी भागीदारी सिद्धांत के तहत देश में अस्पृश्य भी सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश तथा देश के राष्ट्रपति तक बनने का अवसर पाये। कई सर्वहारा वर्ग का र सुशोभित कर रहें हैं। डॉ. अम्बेडकर ने प्रजातंत्र को परिभाषित करते हुए कहा है कि-'प्रजातंत्र सरकार की वह पद्धति है, जहां बिना रक्तपात के जनता के जीवन में सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन लाया जाता है। वे लिंकन के डेमोक्रेसी के परिभाषा में 'ऑफ द पिपुल', 'बाय द पिपुल' के बजाय 'फॉर द पिपुल' को ज्यादा महत्वपूर्ण समझे। इस प्रकार प्रजातंत्र का महल समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय के नींव पर खड़ा है। राजनीतिक प्रजातंत्र के साथ उन्होंने 'सामाजिक प्रजातंत्र' (SOCIAL DEMOC- RACY) पर जोर दिया। सामाजिक प्रजातंत्र का मतलब है सभी प्रकार के सामाजिक भेद-भावों का उन्मूलन तथा सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्तर पर समानता। जिस प्रकार एक वोट की कीमत के मामले में एक भंगी और शंकराचार्य एक बराबर हैं उसी प्रकार सामाजिक मामलों में भी दोनों में बराबरी की अवश्यकता है। प्रजातंत्र के संसदीय प्रणाली (PARLIAMENTARY SYSTEM) को उन्होंने ज्यादा महत्वपूर्ण बताया। इसमें जनता की आवाज को जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा सदन में उठाए जाने का मौका मिलता है। संसदीय प्रणाली स्थायित्व से ज्यादा उत्तरदायित्व पर जोर देता है। 'प्रजातंत्र यदि मानव कंकाल है तो संवैधानिक नैतिकता (CONSTITUTIONAL MORALITY) उसकी मांसपेशियां है।' साम्यवादियों की नैतिकता केवल श्रमिक वर्ग के हितों तक ही सीमित रहती है। कम्युनिष्ट पार्टी सर्वहारा वर्ग के तानाशाही सिद्धांत पर आधारित संविधान चाहते हैं। उन्हें संसदीय प्रणाली नापंसंद है।


वस्तुतः सामाजिक भागीदारी दर्शन का कार्यान्वयन प्रजातंत्र में ही संभव है। 'सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संवैधानिक तरीका ही बेहतर है; इसका मतलब है हमें रक्तपात पर आधारित क्रांति को त्याग देना होगा। संविधान में नौकरियों से संबंधित उपबंधित 'आरक्षण नीति' एक प्रकार का प्रतिनिधित्व ही है। अभी तक संविधान में केवल शिक्षा, सरकारी नौकरी और राजनीति में ही प्रतिनिधित्व का प्रावधान है। परन्तु समय की तकाजा को देखते हुए इस संवैधानिक आरक्षण नीति को और व्यापक अथवा सार्वभौमिक बनाने की आवश्यकता है। इसके लिए जीवन और विकास के सभी क्षेत्रों में देश के सभी वर्ग समूहों को उनकी जनसंख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व आवश्यक है। इससे न तो कोई शोषक बचेगा और न ही कोई शोषित रहेगा। इससे आर्थिक-सामाजिक गैरबराबरी दूर होगा। समानता की स्थिति में जातिवाद और अस्पृश्यता का भी नाश होगा। सर्वहारा वर्ग के विरूद्ध अन्याय, अत्याचार और दमन बंद हो जाएगा। इस प्रकार देश में सिर्फ विकास ही विकास होगा; और अन्ततः भारत अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक विकसित और ताकतवर देश के रूप में उभरेगा।


“राज्य-समाजवाद” डॉ. अम्बेडकर के आर्थिक दर्शन का आईना है। राज्य द्वारा ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करना जिसमें धनार्जन करने का अवसर राज्य के सभी नागरिकों को प्राप्त हो ताकि आर्थिक गैर-बराबरी की स्थिति न बने। इसके अन्तर्गत 'उत्पादन के सभी साधनों पर राज्य का स्वामित्व और नियंत्रण होता है। समाजवाद अपने आप में सम्पूर्ण समाज के लिए आर्थिक न्याय का द्योतक है। राज्य-समाजवाद भारत के औद्योगीकरण करने के लिए आवश्यक है। राज्य-समाजवाद का व्यवहार कृषि क्षेत्र में भी आवश्यक है। राज्य-समाजवाद के सिद्धान्त को डॉ. अम्बेडकर ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता से भी जोड़ा है। वे चाहते थे कि संविधान द्वारा व्यक्तिगत स्वतंत्रता, मौलिक अधिकारों और आर्थिक हितों की गारण्टी दी जाए। पूँजिपतियों की तानाशाही द्वारा निर्धन लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों के हनन का खतरा रहता है; ऐसी स्थिति में राज्य का हस्तक्षेप अति आवश्यक है। स्पष्ट है कि डॉ. अम्बेडकर निजीकरण के विरूद्ध थे। डॉ. आंबेडकर का यह स्पष्ट मत था कि पूंजीवादी अथवा व्यक्तिगत अर्थव्यवस्था देश के औद्योगीकरण में अक्षम है। पूतिपतियों के अधीन उद्योग करने से देश में आर्थिक असमानताएं आएगी।


बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि :


1. मूल एवं बड़े उद्योग जैसे इंजीनियरिंग, इस्पात, खनन, संचार, परिवहन और अन्य उपकरण आदि राज्य के अधीन होंगे जिनका संचालन राज्य द्वारा होगा।


2. जो मूल उद्योग नहीं हैं किन्तु बुनियादी उद्योग हैं, उस पर राज्य का अधिकार होगा और वे राज्य द्वारा स्थापित नियम द्वारा चलाए जायेंगे।


3. बीमा कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण होना चाहिए। इससे न केवल लोगों के आर्थिक हितों की सुरक्षा होती है, बल्कि राज्य का अर्थव्यवस्था भी मज़बूत होता है। बीमा पर राज्य का एकाधिकार होना चाहिए। राज्य प्रत्येक वयस्क नागरिक को जीवन बीमा पॉलिसी लेने पर मज़बूर करे। यह बीमा व्यक्ति के आय के अनुकूल हो जिसे विधान सभाएं निर्धारित करे। राष्ट्रीयकृत बीमा कम्पनी एक प्राइवेट बीमा कम्पनी की अपेक्षा व्यक्तिगत सम्पति की सुरक्षा का उत्तरदायित्व अधिक लेती है। राज्य बीमा कम्पनी कैसी भी परिस्थितियों में धन लौटाने का पूरा दायित्व निभाती है, इसमें व्यक्ति को किसी प्रकार का कोई भय नहीं रहता है। बीमा धन राज्य के पास सुरक्षित रहता है। निजी बीमा कम्पनी अपने भुगतान के लिए भी राज्य के ही संसाधनों को सुरक्षा के रूप में उपयोग करती है। राज्य बीमा कम्पनियों के द्वारा राज्य के पास भी एक निश्चित पूंजी आ जाती है जिसे वह अपने औद्योगिक कार्यों में लगा सकता है। इससे राज्य के जनता को ही फायदा होगाइस प्रकार “बाबा साहेब देश के प्रथम विचारक थे, जिन्होंने भारत में बीमा के राष्ट्रीयकरण का सझाव दिया था” इसी सझाव के आधार पर बीमा पॉलिसी का सरकारीकरण किया गया है। वर्तमान में बीमा सामाजिक अर्थव्यवस्था का अंग बन चुका है। इससे व्यक्ति के आर्थिक विकास की गति को बल मिलता है तथा भविष्य सुरक्षित रहता है। यह बातें डॉ. अम्बेडकर ने उस समय कही, जब लोग बीमा के संबंध में जानते भी नहीं थे।


4. डॉ. अम्बेडकर कृषि का राष्ट्रीयकरण चाहते थे। उनका सुझाव था, कृषि को उद्योग का दर्जा प्राप्त होगा। राज्य कृषि योग्य भूमि को एक निश्चित मानदण्डों के अनुसार फार्मों में विभाजित करेगाये फार्म गांवों के विभिन्न परिवारों से मिल कर बने समूहों को एक काश्तकार के रूप में कुछ शर्तों पर फार्म दिए जायेंगे।


डॉ. विजय कुमार त्रिशरण, झारखंड