समाज की दुर्दशा-जिम्मेदार कौन ?


लगता है कि समाज की दुर्दशा चरम स्तर पर है। जैसे आजादी के पहले 100-200 वर्ष पूर्व रही होगी, बस स्वरूप बदल गया है। अन्याय अत्याचार का तरीका बदल गया हैं। लगभग सभी अधिकारी चाहे वो प्राासनिक सेवा में ही क्यों न हो प्रताड़ित हैं, त्रस्त हैं। स्कूलों कॉलेजों में जबरदस्त असमानता का व्यवहार किया जाता रहा हैं। जान-बूझकर अनुत्तीर्ण कर होनहार बच्चों का भविष्य बर्बाद किया जा रहा है।


स्वतंत्रता के बाद आरक्षण से समाज के कुछ प्रतिशत की आर्थिक स्थिति सुधारी है। शिक्षा से जीवन का स्तर सुधरा है। नौकरियों के आरक्षित पद पूर्ण रूपेण भरते नहीं है। बैक लॉग बना रहता है, एक सोची-समझी रणनीति के तहत सम्भावित योग्य उम्मीदवार को करने की कोशिश होती है। सरकार की जो भी नीति रही हो, जिसके द्वारा लगभग प्रत्येक क्षेत्र में निजीकरण हो रहा है, जिसका सबसे ज्यादा प्रभाव आरक्षण पर पड़ा है। उपलब्ध आरक्षित पद भरे जाते नहीं एवं निजीकरण से आरक्षण समाप्त करने के बाद भी, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोग तरक्की कर रहे हैं। शिक्षित होकर जागरूक हो रहे हैं। अतः लोग आरक्षण की समीक्षा की बात करते हैं, क्रीमिलेयर की बात करते हैं, आर्थिक आधार की बात करते हैं। परंतु हमारे लोग अज्ञानता-वश इसका विरोध नही करते हैं। इस विषय पर गोष्ठियाँ चर्चा होनी चाहिए, प्रचार-प्रसार होना चाहिए एवं बताना चाहिए कि आरक्षण कैसे दिया गया। आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है। बाबासाहेब ने कहा था शिक्षित करो, संगठित रहो, संघर्ष करो।


यही एक मूलमंत्र है, जिसको शत-प्रतिशत व्यवहार में लाने से समाज के सभी क्षेत्रो में, चाहे वह आर्थिक हो, राजनैतिक हो या धार्मिक हो, उन्नति ही उन्नति होगी। समाज के लोग इस मूल-मंत्र को रटंत तोते के समान रटते रहते हैं। हरेक बैनर, पोस्टर एवं भाषण में यह मूल-मंत्र अवश्य रहता है, जैसे कोई सजावट की वस्तु हो। बाबा साहेब शिक्षित किसे मानते थे, ऐसे जिसको अपने दुश्मन की जानकारी है एवं वह उससे सजग है। हमने स्कूल/कॉलेज से डिग्रियाँ क्या प्राप्त कर ली, अपने आपको शिक्षित कहने लगे। ऐसे लोग साक्षर होते हैं। जरूरी नही हर साक्षर व्यक्ति शिक्षित भी हो एवं यह भी जरूरी नही कि शिक्षित व्यक्ति साक्षर भी हो। संत गाडगे बाबा साक्षर नही थे, पर शिक्षित थे। लोगों को सफाई एवं शिक्षा का महत्व समझाते थे।


मूल-मंत्र का दूसरा शब्द संगठित रहो। क्या हम संगठित हो रहे हैं? विभिन्न आयोजित कार्यक्रमों में लोग जमा होते हैं। ऐसा आभास होता है कि हम संगठित हो रहे हैं, परंतु ऐसा नहीं है। हम जागरूक होकर कार्यक्रमों में जाने तो लगे हैं, पर इस जागरूकता का फायदा उठाने कई संगठन तैयार हो जाते है एवं प्रत्येक संगठन अपने आपको असली बताता है एवं दूसरे की निंदा करने से नहीं चूकता। तो फिर हम कैसे संगठित हो रहे हैं। हम देखते है कि आये दिन नई-नई राजनैतिक पार्टियां बन रही हैं जो पुराने संगठन की आलोचना करके अपने ही समाज में फूट डालने का काम कर रहे हैं एवं समाज को राजनैतिक स्तर पर कमजोर कर रहे हैं।


मूल-मंत्र का अंतिम शब्द “संघर्ष करो” । जब सही तरह से शिक्षित नही हुए, हमें पता ही नही कि हमारा दुश्मन कौन है एवं वह क्या-क्या चालें चल रहा है। तब संगठित क्या होंगे और जब संगठितहीन तो संधर्ष कैसे करेगे। रोज अखबारों में अत्याचारों की खबरें आती हैं। क्या हमने कभी उन घटनाओं के खिलाफ कभी मोर्चा निकाला, प्रशासन को कार्यवाही करने के लिए मजबूर किया? नहीं। सिर्फ समाचार पढ़कर/सुनकर रह गये। ज्यादा से ज्यादा वाट्सएप पर फारवर्ड कर दिया। सिर्फ एक घटना रोहित वेमुला की, जिसमें छात्र संगठित होकर संघर्ष करते नजर आये, परंतु छात्रों के साथ आम आदमी शामिल नहीं हुआ। जब जक हम इन घटनाओं में दूसरे की घटना कहकर चुप बैठे रहेंगे, घटनाएं बढती ही जायेंगी।


हम देश में कई संगठन देखते हैं। प्रत्येक संगठन के लोग एक ही वर्ग के होते हैं। प्रत्येक संगठन के पीछे एक धार्मिक भावना होती है। तभी संगठन मजबूत होता है एवं समय आने पर संघर्ष करता हैं। हम देखते है कि गाँवो में दो-चार घर मुस्लिम समुदाय के होते है, जो आराम से रहते हैं। क्योंकि अन्य समुदाय को पता है कि पूरा मुस्लिम समुदाय उनके पीछे खड़ा है, परन्तु अनुसूचित जाति/जनजाति के साथ ऐसा नहीं । आये दिन अत्याचार बढ़ते ही जा रहे है क्योंकि आपके पीछे कोई खड़ा नही हैं। आप संगठित नही है। बाबा साहेब ने 14 अक्टबर 1956 को दीक्षा लेते समय कहा था कि मैंने तुम्हारा संबंध दुनिया को बौद्ध समाज से जोड़ दिया हैं।


ज्यादातर लोगो को समाज की दुर्दशा पर चर्चा करते सुना होगा। कोई नेताओं को जिम्मेदार मानता है, कोई धम्म प्रचारको को तो कोई बड़े-बड़े अधिकारियों को जिम्मेदार बताता है। सुनने में आता है कि अष्टि किारी लोग समाज से कट जाते हैं। किसी भी प्रकार का सहयोग नही करते। दुसरों को जिम्मेदार ठहराना बड़ा आसान हैं। कभी हमने यह चिंतन किया है कि मेरा समाज के उत्थान के प्रति क्या योगदान हैं? मैंने क्या किया एवं क्या कर रहा हूं? मैने कभी बाबा साहेब की विचार धारा से समाज को जागृत करने के लिए कभी कोई कार्यक्रम आयोजित किये? मैं अपने समाज में जाकर बैठा! क्या मैं बाबा साहेब के बताये मार्ग पर चल रहा हूं? जैसा बाबा साहेब ने कहा था कि अपनी आय का 20वां हिस्सा समाज के कल्याण में लगाओं, क्या हम अपना आर्थिक सहयोग निरंतर दे रहे हैं? यदि इन सब प्रश्नों का उत्तर “ना” है तो समाज की दुर्दशा के लिए सबसे पहले मैं जिम्मेदार हूं, कोई अन्य हो या नहीं।


देवेन्द्र सिंह, के.लो.नि.वि.