बच्चों-बुजुर्गों में संवादहीनता की स्थिति -जिम्मेदार कौन ?


       पीढ़ियों का अंतर हमेशा से चला आया है। पुरानी पीढ़ी हर नई पीढ़ी से असंतुष्ट ही रहती आई है, हर पिता अपने पुत्र को नालायक ही मानता आया है। हर बुजुर्ग का यही सोचना है कि अपने समय में वह निहायत लायक, फरमाबरदार और सुयोग्य था। बस आज कल के लड़के-लड़कियां ही बिगड़ गए हैं, भटक गए हैं। गलत रास्ते पर जा रहे हैं। क्या कभी हमने सोचने की कोशिश की है कि क्या वास्तव में ऐसा ही है और यदि ऐसा है भी तो दोषी कौन है?  याद कीजिए और सोचिए कि हमारे मातापिता एवं अन्य बुजुर्ग हमें कितना समय देते थे और आज हम अपने बच्चों को कितना समय दे पाते हैं। जीवन दिन-प्रतिदिन अधिक जटिल होता जा रहा है। भागम भाग मची है। जिन्दगी की रफ्तार तेज और अधिक तेज होती जा रही है। आदमी सरपट दौड़ा जा रहा है। उसे रुकने और सांस लेने की भी फुरसत नहीं है। ऐसे वातावरण में बच्चों का सम्पर्क अपने माता-पिता और विशेषकर पिता से कम से कम होता जा रहा है। संयुक्त परिवार की परम्परा के लोप होने के साथ घर में अन्य बड़े-बूढ़ों के साथ रहने की सम्भावना लगभग नहीं के बराबर ही रहने लगी है।


      एक और कोण से देखें। बहुत पीछे मत जाइये। बस अपने ही बचपन के समय की याद भर लीजिए। अपनी-अपनी मान्यता, आस्था, विश्वास, धारणा के अनुसार उस समय हर घर में भजन पूजन, कथा-वार्ता, हवन-संध्या, व्रत-अनुष्ठान, आरती-कीर्तन, सत्संग आदि कुछ न कुछ अवश्य होता था। विचार-आचार सात्विक होता था। घर में पुस्तकें पत्रिकाएं भी अच्छी ही आती थीं। आज भला हवन-संध्या, भजन-पूजन का समय ही किसके पास है। काम पर जाने की तैयारी में से जो क्षण मिलते भी हैं वे समाचार पत्र, प्रातः के टीवी कार्यक्रमों की भेंट चढ़ जाते हैं। केबल टीवी के नित्य बढ़ते चैनलों ने हमारे समय पर पूरा अधिकार जमा लिया है। मन्दिर, सत्संग-स्थल तक जाने का समय और अवसर निकाल पाना असम्भव ही हो जाता है। पत्र- पत्रिकाएं जो घर में आती हैं वे या तो फिल्मी होती हैं अथवा सनसनी खेज़ मर्डर, डकैती, खून, बलात्कार आदि के विवरण से ओतप्रोत । शाम का समय, छुट्टी का दिन हर परिवार का अब टीवी के सामने ही गुजरता है। टीवी के विभिन्न चैनलों पर क्या परोसा जाता है, यह कहने बताने की आवश्यकता तो नहीं है। इस बंधे बंधाए रूटीन और जीवन क्रम को बदलने की आज कोई कल्पना भी नहीं कर सकता।


         बच्चों पर पारिवारिक संस्कारों और वातावरण का प्रभाव सर्वाधिक पड़ता है। वे जो कुछ घर में अपने माता-पिता को करता देखते हैं, उसी को ग्रहण करते एवं सीखते हैं और उसी को सही भी समझते हैं। ऐसे में यदि मां-बाप ही समय न दे पाएं, उनके आचरण पर निगाह न रख सकें, समय-समय पर उनको सलाह देने, उनका मार्गदर्शन करने का अपना मूल दायित्व न निभाएं तो दोष किसका। त्रासदी यह है कि आज हमारी अपने ही बच्चों के साथ लगभग संवादहीनता की सी स्थिति बनी रहती है। बस हां-हूं और न-नहीं भर से दोनों ओर से काम चला लिया जाता है। बातें तो हम बड़ी बड़ी करते हैं, दूसरों को बाल मनोविज्ञान पर लम्बे-लम्बे भाषण भी देते हैं किन्तु व्यवहारिक स्तर पर अपने निजी परिवेश में हम वह सब भूल जाते हैं। एक बात और हम इन युवक-युवतियों को गैर जिम्मेदार समझते हैं इन पर भरोसा नहीं करते, इन्हें कोई जिम्मेदारी सौंपने का साहस नहीं जुटा पातेयदि किसी को अवसर ही नहीं दिया जाएगा तो वह अपने आपको भरोसे के योग्य साबित कैसे कर पाएगा। इन्हें मौका देकर, जिम्मेवारी सौंपकर तो देखिए।