जरूरत है आम कश्मीरी के मन में विश्वास जगाने की


राष्ट्रपति के एक हस्ताक्षर ने उस ऐतिहासिक भूल को सुधार दिया जिसके बाहाने पाकिस्तान सालों से वहां आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने में सफल होता रहा। लेकिन यह समझ से परे है कि कश्मीर के राजनीतिक दलों के महबूबा मुफ्ती, फारूक अब्दुल्ल सरीखे नेता और कांग्रेस समेत कुछ विपक्ष जो कल तक यह कहता था कि कश्मीर समस्या का हल सैन्य कार्यवाही नहीं है, राजनीतिक है, वे मोदी सरकार की इस राजनीतिक हल को क्यों नहीं पचा पा रहे हैं? शायद इसलिए कि मोदी सरकार के इस कदम से कश्मीर में अब इनकी राजनीति की कोई गुंजाइश नहीं बची है। लेकिन क्या यह सब इतना आसान था? घरेलू मोर्चे पर भले ही मोदी सरकार ने इसके संवैधानिक, कानूनी, राजनीतिक, आंतरिक सुरक्षा और विपक्ष समेत लागभग हर पक्ष को साधकर अपनी कूटनीतिक सफलता का परिचय दिया है। लेकिन अभी इम्तिहान आगे और भी हैं।


पाकिस्तान की घरेलू राजनीति, उसके चुनाव, सब कश्मीर के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। इसलिए नापाक पाकिस्तान इतनी आसानी से हार नहीं मानेगा। चूंकि भारत सरकार के इस कदम से अब कश्मीर पर स्थानीय राजनीति का अंत हो चुका है। प्रशासन की बागडोर पूर्ण रूप से केंद्र के पास होगी। ऐसे में पाकिस्तान के लिए अब करो या मरो की स्थिति उत्पन्न हो गई है। शायद इसलिए उसने अपनी प्रतिक्रिया शुरू कर दी है। उसने भारतीय राजदत अजय बिसारिया को देश छोड़ने को कह दिया है और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का ध्यान इस ओर आकर्षित करने लगा है। हलांकि वैश्विक पटल पर भारत की मौजूदा स्थिति को देखते हए इसकी संभावना कम ही है कि भारत के आंतरिक मामलों में कोई भी देश दखल दे और पाकिस्तान का साथ दे।


बालाकोट स्ट्राइक पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की प्रतिक्रिया इसका प्रमाण है। वैसे भी संयुक्त राष्ट्र ने इसे भारत का आतंरिक मसला बताकर अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है। इसलिए जो लोग इस समय घाटी में सुरक्षा के लिहाज से केंद्र सरकार द्वारा उठाए गए कदमों जैसे अतिरिक्त सैन्य बल की तैनाती, कफ्यू, धारा 144, क्षेत्रीय दलों के नेताओं की नजरबंदी को लोकतंत्र की हत्या या तानाशाहपूर्ण रवैया कह रहे हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान की कोशिश होगी कि किसी भी तरह से घाटी में कश्मीरियों के विद्रोह के नाम पर हिंसा की आग सुलगाई जाए। ताकि वो अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर यह संदेश दे पाए कि भारत कश्मीरी आवाम की आवाज को दबाकर कश्मीर में अन्याय कर रहा है। इसलिए केंद्र सरकार के इन कदमों का विरोध करके विपक्षी दल न सिर्फ पाकिस्तान की मदद कर रहे हैं बल्कि एक आम कश्मीरी के साथ भी अन्याय कर रहे हैं।


विगत 70 सालों ने यह साबित किया है कि धारा 370 वो लौ थी जो कश्मीर के गिने-चुने राजनीतिक रसूख वाले परिवारों के घरों के चिरागों को तो रोशन कर रही थी लेकिन आम कश्मीरी के घरों को आतंकवाद, अशिक्षा और गरीबी की आग से जला रही थी। संविधान की धारा 370 और 35 ए ने कश्मीर में अलगाववाद की आग को कट्टरपंथ और जेहाद के उस दावानल में तब्दील कर दिया था कि पूरा कश्मीर हिंसा की आग से सलग उठा और बरहान वानी जैसा आतंकी वहां के युवाओं का आदर्श बन गया। जब 21वीं सदी के भारत के युवा स्किल इंडिया और मेक इन इंडिया के जरिए उद्यमी बनकर अंतरराष्ट्रीय मंच पर भविष्य के भारत की सफलता के किरदार बनने के लिए तैयार हो रहे थे तो कश्मीर के युवा 500 रुपये के लिए पत्थरबाज बन रहे थे।


सेना के एक सर्वे के हवाले से यह बात सामने आई थी कि आज का पत्थर फेंकने वाला युवक ही कल का आतंकवादी होता है। सरकार के इस कदम का विरोध करने वालों से देश जानना चाहता है कि 370 या 35ए से राज्य के दो चार राजनीतिक परिवारों के अलावा किसी आम कश्मीरी को क्या फायदा मिला? यही कि उनके बच्चों को पढ़ने के लिए अच्छे अवसर नहीं मिले। उन्हें अच्छी चिकित्सा सुविधाएं नहीं मिलीं। हिंसा के कारण वहां का पर्यटन उद्योग पनप नहीं पाया। जो छोटा-मोटा व्यापार था वो भी आए दिन के कफ्यू की भेंट चढ़ जाता था। क्या हम एक आम कश्मीरी की तकलीफ का अंदाज़ा गृहमंत्री के राज्यसभा में इस बयान से लगा सकते हैं कि वो एक सीमेंट की बोरी की कीमत देश के किसी अन्य भाग के नागरिक से 100 रुपये ज्यादा चुकाता है, सिर्फ इसलिए कि वहां केवल कुछ लोगों का रसूख चलता है। क्या हम इस बात से इनकार कर सकते हैं कि अब जब सरकार के इस कदम से राज्य में निवेश होगा, उद्योग लगेंगे, पर्यटन बढ़ेगा, तो रोज़गार के अवसर भी बढ़ेंगे, खुशहाली बढ़ेगी।


इससे वो कश्मीर जो अब तक 370 के नाम पर अनेक राजनीतिक कारणों से अलग-थलग किया जाता रह्म अब देश की मुख्यधारा से आर्थिक रूप से जुड़ सकेगा। इसके अलावा अपने अलग संविधान और अलग झंडे के अस्तित्व के कारण जो कश्मीरी आवाम आजतक भारत से अपना भावनात्मक लगाव नहीं जोड़ पाई, अब भारत के संविधान और तिरंगे को अपना कर उसमें निश्चित रूप से एक मनोवैज्ञानिक परिवर्तन का आगाज होगा। जो धीरे-धीरे उसे भारत के साथ भावनात्मक रूप से जोड़ेगा। बस जरूरत है आम कश्मीरी के उस नैरेटिव को बदलने की, जो बड़ी चालाकी से सालों से उसे मीठे जहर के रूप में दिया जाता रा है। भारत के खिलाफ भड़का कर जो उसे भारत से जुड़ने नहीं देता। जरूरत है आम कश्मीरी के मन में इस फैसले के पार एक नई खुशहाल सुबह के होने का विश्वास जगाने की। उनका विश्वास जीतने की। कूटनीतिक और राजनीतिक लड़ाई तो मोदी सरकार जीत चुकी है। लेकिन उसकी असली चुनौती कश्मीर में सालों से चल रहे इस रणनीतिक युद्ध को जीतने की है।