मानसून में हर साल दुनिया भर में मलेरिया के लगभग बाईस करोड़ मामले सामने आते हैं। कंपकंपी, ठंड लगना और तेज बुखार मलेरिया के लक्षण हैं। अगर मलेरिया का सही इलाज न हो तो समस्या गंभीर रूप धारण कर लेती है। चिंता की बात यह है कि मलेरिया से लड़ने के लिए इस्तेमाल होने वाली जरूरी दवाएं बेअसर हो रही हैं। मलेरिया के परजीवी इन दवाओं को लेकर प्रतिरोधक हो गए हैं। यानी अब इन दवाओं का भी उन पर असर नहीं हो रह्य। कंबोडिया से लेकर लाओस, थाईलैंड और वियतनाम में अधिकतर मरीजों पर मलेरिया में दी जाने वाली प्राथमिक दवाएं असर नहीं कर रही हैं। खासकर कंबोडिया में इन दवाओं के बेअसर होने के सबसे ज्यादा मामले सामने आए हैं अगर दक्षिण एशियाई देश भारत की बात करें तो साल 2017 में आई 'वल्ड मलेरिया' रिपोर्ट के मुताबिक भारत में मलेरिया के मामलों में चौबीस फीसद तक कमी आई है। दुनिया कुल मलेरिया मरीजों के सत्तर फीसद मामले ग्यारह देशों में पाए जाते हैं जिनमें भारत भी शामिल है। पिछले साल भारत में मलेरिया के मामलों में चौबीस फीसद की कमी आई और इसके साथ ही भारत अब मलेरिया की मार वाले शीर्ष तीन देशों में शुमार नहीं है। हालांकि अब भी भारत की कुल आबादी के चौरानवे फीसद लोगों पर मलेरिया का खतरा बना हुआ है।
आजकल मच्छरों की ऐसी प्रजातियां पैदा हो गई हैं जिन पर जहरीले रसायनों का भी जल्दी असर नहीं होता है। इसलिए मच्छरों के काटने से होने वाली बीमारियों के प्रकोप से भारत की बहुत बड़ी आबादी त्रस्त है। मलेरिया, डेंगू, मस्तिष्क ज्वर (इसेफेलाइटिस), चिकनगुनिया और फाइलेरिया जैसी बीमारियां मच्छरों के काटने से ही होती हैं। हर साल लाखों लोग मलेरिया की चपेट में आते हैं और हजारों डेंगू से दम तोड़ देते हैं। कुछ राज्यों में मस्तिष्क ज्वर से भी बड़ी संख्या में लोग मारे जाते हैं। डेंगू और चिकनगुनिया एडिस मच्छरों के काटने से फैलते हैं। यह मच्छर काले और सफेद रंग का होता है और कूलर, बर्तन या टंकी में जमा साफ ठहरे हुए पानी में पनपता है। मस्तिष्क ज्वर फैलाने वाला क्युलेक्स विश्नई मच्छर धान के खेतों में पनपता है। धान के खेतों में बच्चों को जाने से रोक कर इस बीमारी का काफी हद तक बचाव किया जा सकता है। मलेरिया फैलाने वाला एनाफिलीज भी टकियों, गड्ढों में जमे पानी में प्रजनन करता है। इसलिए साफ-सफाई में ही इन रोगों से बचा जा सकता है।
दरअसल, मच्छरों का खात्मा करके ही इन रोगों से पूरी तरह बचा जा सकता है। लेकिन हमारे शहरों की नगर पालिकाओं को साफ-सफाई और कीटनाशकों के छिड़काव का जो जरूरी काम करना चाहिए वह भी वे समय से नहीं करती हैं। सरकार चेतती ही तब है जब रोग महामारी बन जाता है। एक बड़ी समस्या यह भी है कि इन जानलेवा बीमारियों से निपटने के लिए पश्चिम के बड़े विकसित देश तैयार इसलिए नहीं हैं क्योंकि ये बीमारियां वहां नहीं होती हैं। इसलिए इन पर नियंत्रण अथवा किसी औषधि के अनुसंधान और विकास का कोई विशेष कार्य वहां नहीं हुआ। लेकिन अमेरिका अब अपने सैनिकों की रक्षा के लिए मलेरिया पर अनुसंधान कर रहा है। उसके नौसेना अनुसंधान संस्थान ने नई डीएनए टीका प्रौद्योगिकी विकसित की है। 1998 में सफल परीक्षणों के बाद हाफ मैन ने कहा 'हमने मलेरिया की बीमारी को उदाहरण के रूप में रख कर नई प्रौद्योगिकी का परीक्षण किया क्योंकि यह बीमारी हमारे जवानों के लिए सबसे खतरनाक संक्रामक रोग है। मलेरिया के इलाज में इस्तेमाल की जा रही एक दवा क्लोरोक्विन का विकास भारत और वाल्टर रीड सेवा शोध संस्थान के साझा प्रयासों से ही हुआ है। पर दशकों के प्रयास के बावजूद वैज्ञानिक ऐसा टीका ईजाद नहीं कर पाए हैं जो प्रभावी हो।