प्रदूषण नियंत्रण और गंगा का जीवन


गंगा का पानी प्रदूषित होने के मसले पर जब से चिंताएं सामने आने लगीं, तब से अब तक उसे प्रदूषण मुक्त बनाने के नाजारोरोड़ रुपए बहा दिए गए हैं। लेकिन पिछले तीन दशक से ज्यादा समय से यह क्रम लगातार जारी रहने के बाद भी हालत यह है कि कुछ अंतराल के बाद इस समस्या के और ज्यादा गहराने की ही खबरें आती रहती हैं। गंगा की न केवल सफाई का सवाल आज भी मुंह बाए खड़ा है, बल्कि उसके लिए बहाए जाने वाले इतने पैसे कहां और कैसे खर्च किए गए और उसका क्या नतीजा सामने आया, इसके बारे में शायद कोई हिसाब भी नहीं है। अंदाजा इसी से लगाया जा स से लगाया जा सकता है कि आज भी केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) को इस मसले पर निर्देश जारी करने पड़ बड़े(सीपीसीबी रहे हैं। शुक्रवार को गंगा में अपशिष्ट और औद्योगिक कचरा प्रवाहित होने पर कड़ा संज्ञान लेते हुए सीपीसीबी ने चार राज्यों के प्रदूषण बोर्डों को निर्देश दिया है कि वे पर्यावरणीय मानदंडों का पालन नहीं करने वाली इकाइयों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करें और जरूरत पड़ने पर उन्हें बंद भी करेंसीपीसीबी ने उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार के प्दूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्षों को पंद्रह दिनों के भीतर निरीक्षण की रिपोर्ट पेश करने को कहा है। जाहिर है, गंगा को स्वच्छ बनाने के मकसद से शुरू की गई 'नमामि गंगे' से लेकर अतीत की तमाम योजनाओं का हासिल अब भी यही है कि इस नदी में प्रदूषण फैलाने वालों पर पूरी तरह काबू नहीं पाया जा सका है।


सवाल है कि जिस नदी को देश के जनजीवन और पर्यावरण के लिए इतना जरूरी घोषित किया गया है, उसे स्वच्छ रखने के प्रति समाज से लेकर सरकारी महकमों तक की लापरवाही को निर्बाध क्यों छोड़ दिया गया था! बुरी तरह प्रदूषित हो गई गंगा की सफाई के लिए चलाए गए अभियानों की हकीकत भी तब सामने आती रहती है, जब सुप्रीम कोर्ट की ओर से सरकार को फटकार लगाई जाती है या फिर प्रदूषण नियंत्रण एजेंसियां राज्य सरकारों को इस दिशा में ठोस कदम उठाने का निर्देश देती हैंआखिर किन वजहों से आज भी शहरों के नालों के जरिए अपशिष्ट नालों के जरिए अपशिष्ट बहाए जाते हैं या फिर औद्योगिक इकाइयों को गंगा में कचरा प्रवाहित करने की अघोषित छूट मिली हुई है? क्या इस स्थिति के बने रहते हुए यह उम्मीद की जा सकती है कि गंगा का पानी प्रदूषित होते जाने को रोका जा सकेगा? खुद सीपीसीबी के हाल के एक अध्ययन के मुताबिक उत्तर प्रदेश से लेकर पश्चिम बंगाल तक गिनती की कुछ जगहों को छोड़ दिया जाए तो गंगा नदी का पानी पीने लायक तो दूर, नहाने लायक भी नहीं रह गया है।


नदी में 'कोलीफॉर्म जीवाणु का स्तर इतना बढ़ गया है कि वह मनुष्य की सेहत के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। यह हालत तब है जब गंगा की सफाई पर पहले की योजनाओं में खर्च राशि के बाद 2014 से 2018 तक इसी मद में साढ़े पांच हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की रकम जारी की गई और उसमें लगभग चार हजार करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं। इस मसले पर राष्ट्रीय हरित पंचाट से लेकर अलग-अलग अदालतों ने समय-समय पर सरकार और संबंधित महकमों की लापरवाही पर सवाल उठाया है। लेकिन यह समझना मुश्किल है कि जिस गंगा की शुद्धता और पवित्रता के हवाले से राजनीति भी की जाती रही है, उसे स्वच्छ बनाने के तमाम अभियानों की हकीकत इस कदर अफसोसनाक क्यों है! गंगा को स्वच्छ बनाने का दम भरने वाली सरकारों के दावों के बरक्स उनकी इच्छाशक्ति इतनी कमजोर क्यों दिखती है।