आज पूरी दुनिया में हेपेटाइटिस-बी, सी और कैंसर जैसी गंभीर बीमारियां बढ़ती जा रही हैं। भारत जैसे विकासशील देश ही नहीं अमेरिका और यूरोपीय देश भी इनकी चपेट में हैं। यह बात सही है कि किसी बीमारी का कोई एक कारण नहीं होता है, कई चीजों के एक होने से कोई बीमारी होती है। लेकिन कुछ मूल कारण होते हैं जो इन रोगों का कारण बनते हैं। कैसर के मूल में जहां तंबाकू, बीड़ी, सिगरेट और गुटखे के सेवन जैसे कारण हैं, वहीं लीवर संबंधी बीमारियों का कारण मद्यपान है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के आकड़ों के अनुसार अल्कोहल की बढ़ती खपत सिर्फ रोग नहीं बल्कि कई अन्य समस्याओं का भी कारण है। शराब की वजह से दो सौ प्रकार के रोग होते हैं तो शराब पीकर वाहन चलाने से वैश्विक स्तर पर दुर्घटनाओं में मौतों की बाढ़ आ गई है। शराब के नशे में धुत होकर हत्या, बलात्कार और लूट जैसे अपराधों की घटनाओं को हम दिन-प्रतिदिन देख-सुन रहे हैं। जाहिर है, लोगों में नशे की बढ़ती प्रवृत्ति समाज में अपराधों का एक बड़ा कारण तो है ही। शराब पीने वालों में हम भारतीय भी पीछे नहीं हैं।
एक आंकड़े के मुताबिक आज भारत के कुल वयस्क लोगों का तीस प्रतिशत शराब पी रहा है जो 2030 तक पचास फीसद होने का अनुमान है। एक अन्य आंकड़े के अनुसार देश में प्रतिवर्ष लीवर के दस लाख नए मरीज आ रहे है। ऐसे में सिर्फ आहै।ये में सिर्फ सकता है। नशे को भारतीय समाज में कभी भी अच्च्या नहीं माना गया। इलाज हमार दशक महापुरुषा न समय-समय पर शराब आर नश क हमारे देश के महापुरुषों ने समय-समय पर शराब और नशे के खिलाफ जागरूकता आभयान चलाया। मषि दयानद से लेकर अधिकाश समाज सुधारका ने शराब और नश का धर्म, जावन आर समाज और समाज के लिए अनुपयोगी बताया। यहां तक कि आजादी का लड़ाई में शराबबदा स्वतत्रता संग्राम सेनानिया आर काग्रेस कार्यकताओं का एक महत्त्वपूर्ण काम था। महात्मा गांधी शराब के बहुत ज्यादा खिलाफ थे। बापू कहते थे-'अंग्रेजों का देश से जाना जितना जरूरी है, उससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण देश में पूर्ण शराबबंदी है। यदि मुझे अड़तालीस घंटे की भी हुकूमत दे दी जाए तो मैं एक साथ बिना मुआवजा दिए शराब की सारी दुकानें बंद करा दंगा।' उनका कहना था कि शराब शरीर और आत्मा दोनों को मार देती है। देश की आजादी के पहले कांग्रेस पार्टी का जो सदस्यता फॉर्म भरा जाता था, उसमें शराब का सेवन न करने का प्रण लेना पड़ता था। उस दौरान व्यक्तिगत तौर पर कोई कांग्रेस नेता भले ही शराब का सेवन करता रहा हो, लेकिन वह शराब के पक्ष में नहीं था। सन 1956 में संसद के दोनों सदनों में पूर्ण शराबबंदी पर बहस हुई। देश में शराबबंदी की मांग को लेकर जस्टिस टेकचंद के नेतृत्व में एक कमेटी बनी। लेकिन आज तक शराबबंदी नहीं हो सकी। आजादी के बाद से ही सरकारें शराब से मिलने वाले राजस्व पर बहुत ज्यादा निर्भर रहने लगीं।
सरकारों का लक्ष्य शराबबंदी नहीं, बल्कि शराब की ज्यादा से ज्यादा दुकानें खोलना हो गया। आज नगर-महानगर लेकर गांव और कस्बों तक में शराब की दुकानें धड़ल्ले से खुल और चल रही हैं। नकली शराब पीकर मरने की खबरें भी आती रहती हैं। यानी नकली शराब का कारोबार तो और भी बड़े पैमाने पर चल रहा है। कछ महीने पहले उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश असम जैसे राज्यों में जहरीली शराब से बड़ी संख्या में लोग मारे गए थे। लेकिन हकीकत यह है कि फिर भी सरकारें चेती नहीं हैं। अब शराब बंदी न करने के पीछे सरकारों का तर्क होता है कि इससे विकास प्रभावित होगा। लेकिन आजादी के तुरंत बाद गांधी और पटेल के राज्य गुजरात में पूर्ण शराब बंदी की घोषणा की गई थी। गुजरात का विकास इतने वर्षों में नहीं प्रभावित हुआ। दरअसल, सरकारों में इतना नैतिक बल ही नहीं रहा कि वे शराब बंदी कर सके।
देश में चाहे किसी भी दल की सरकार रही, किसी ने शराबबंदी पर गंभीरता से विचार नहीं किया। सवाल तो यह है कि यदि शराब के राजस्व से ही विकास संभव था तो गुजरात पर इसका प्रभाव क्यों नहीं पड़ा? एक आंकड़े के अनुसार हम भारतीय प्रतिवर्ष दो लाख करोड़ रुपए की शराब पी रहे हैं। यदि इस पैसे को लोग घरेलू जरूरतों पर खर्च करें तो देश का काफी विकास हो सकता है और सामान खरीदने पर भी सरकार को भरपूर राजस्व मिलता है। विमांस एक बड़ी संस्था है। उसने शराब से मिलने वाले राजस्व और उसके कारण होने वाले नुकसान के अध्ययन में पाया कि शराब से यदि सौ रुपए की आमदनी होती है तो शराबजन्य बीमारियों और अपराधों को रोकने पर सरकारों को एक सौ चौबीस रुपए खर्च करने पड़ते हैं। ऐसी परिस्थिति में शराबबंदी से राजस्व घाटे का तर्क बेहूदा है। जबकि सच्चाई यह है कि शराब पर पाबंदी से लोगों के स्वास्थ्य में सुधार और काम में तेजी होगी। बिहार में नीतीश कमार ने शराबबंदी की है। अभी तक यह देखने में नहीं आया है कि शराबबंदी के कारण बिहार का विकास प्रभावित हो रहा हो।