आखिर इस अभिमान का समाधान क्या


आज हम सब जाने क्यों, संस्कारों से दूर होकर भौतिकता के जाल में फंसते जा रहे हैं। भौतिकता का ऐसा बुरा प्रभाव हमारे आचरण और चिंतन पर पड़ता जा रहा है कि हमारे भीतर की सहनशीलता के साथसाथ हमारी विनम्रता भी धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। हमारे भीतर अभिमान का अजगर ऐसे कुंडली मारे बैठा रहता है कि जरा-सा भी कुछ हमारी कल्पना या सोच के विरुद्ध हो जाता है तो अभिमान का अजगर तुरंत फुकार उठता है। बढ़ती हुई रोड-रेज़ की घटनाएं हों या फिर छोटी-छोटी बात पर हुई कहा सुनी की कोई बात हो, अभिमान के अजगर के फुकार भरते ही जाने कब भयंकर हिंसा और आगजनी में बदल जाती है। मेरा अंतर्मन कई बार प्रश्न करता है कि आखिर इस अभिमान का समाधान क्या है? अंतर्मन से ही इस प्रश्न का उत्तर भी मिलता है कि हमें अपनी संस्कति की उन मान्यताओं और जीवन-मूल्यों को फिर से अपने व्यवहार में लाना होगा, जो हमारे पुरखों ने अपनाए थे। मस्तमौला फक्कड़ कबीर की सीख हमें फिर से याद करनी होगी-


कबीर गर्व न कीजिए, काल गहे कर केस।


ना जाने कित मारिहे, क्या घर क्या परदेस।


हमें जीवन की इस शाश्वत सच्चाई को हमेशा याद रखना होगा कि सर्वशक्तिमान तो केवल परमात्मा ही है। हमारी तो सीमाएं हैं। हम सर्वशक्तिमान कभी नहीं हो सकते। आज महाभारत के युद्ध का एक बड़ा ही प्रेरक और मार्मिक प्रसंग पढ़ने को मिला। महाभारत के युद्ध में अर्जुन और कर्ण के बीच घमासान युद्ध चल रहा था। अर्जुन का तीर लगने पर कर्ण का रथ 25-30 हाथ पीछे खिसक जाता था, लेकिन कर्ण के तीर से अर्जुन का रथ सिर्फ 2-3 हाथ ही पीछे जाता था। आश्चर्य यह था कि श्रीकृष्ण कर्ण के वार की तारीफ तो करते थे, किन्तु अर्जुन की तारीफ में कुछ न कहते थे। इससे अर्जुन बड़ा व्यथित हुआ और उसने श्रीकृष्ण से पूछा- हे पार्थ, आप मेरे शक्तिशाली प्रहारों की बजाय कर्ण के कमजोर प्रहारों की तारीफ कर रहे हैं, तो ऐसा क्या कौशल है उसमें? प्रश्न सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराए और बोले-अर्जुन, तुम्हारे रथ की रक्षा के लिए ध्वज पे हनुमान जी, पहियों पे शेषनाग हैं और सारथि रूप में खुद मैं हूं। इसके बावजूद कर्ण के तीरों के प्रहार से अगर तुम्हारा रथ एक हाथ भी खिसकता है तो उसके पराक्रम की तारीफ़ तो बनती है। कहते हैं, युद्ध समाप्त होने के बाद श्रीकृष्ण ने रथ से अर्जुन को पहले उतरने को कहा और बाद में स्वयं उतरे। जैसे ही श्रीकृष्ण रथ से उतरे, उनका रथ स्वतः ही भस्म हो गया। सच यह था कि वह रथ तो कर्ण के प्रहार से कब का भस्म हो चुका था, लेकिन चूंकि स्वयं नारायण उस पर विराजे थे, इसलिए चलता रहा। यह नजारा देखकर अर्जुन का सारा घमंड चूर-चूर हो गया। इस प्रसंग से हमें जो सीख मिलती है, वह यह है कि कभी जीवन में सफलता मिले तो घमंड मत करनाकर्म तुम्हारे हैं, किन्तु आशीष और कृपा तो परमात्मा की है। किसी को परिस्थितिवश कमजोर मत आंकना। हो सकता है उसके बुरे समय में भी वह जो कर रहा हो, वह हमारी क्षमता के भी बाहर हो। हमारा चिंतन आज बदल गया है। हम अपने आपको कर्ता यानी सर्वशक्तिमान मानने लगे हैं। यही वह चिंतन है, जो हमें पतन की ओर ले जा रहा है। हमें तो अगले क्षण का भी पता नहीं है कि अगले क्षण क्या होने वाला है। महाकवि प्रसाद ने कहा है


अपने में भर सब कुछ कैसे, व्यक्ति विकास करेगा?


यह एकांत स्वार्थ है भीषण, अपना नाश करेगा।


सच तो यही है कि स्वार्थ आदमी को पशुवत बना देता है, जबकि परमार्थ आदमी को अमृत बना देता है। यदि भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र आत्मवत सर्वभूतेषु को अगर हम अपने चिंतन का आधार बना लें तो हमारे स्वभाव में स्वतः ही एक विनम्रता का भाव आ जाएगा, जो हमारे भीतर पनपने वाले अभिमान को तिरोहित करता जाएगा। हम भौतिकतावादी चिंतन से बाहर निकलें और स्वयं को परोपकार में लगाएं, क्योंकि सच यही है-


खुद की खातिर जो जिए, स्वार्थी वो कहलाय।


जो औरों का हित करे,वो अमृत हो जाय।


तो आइए, हम सब आज पूरे मन से संकल्प करें कि किसी भी स्थिति में हम अभिमान रूपी शत्रु को अपने ऊपर हावी नहीं होने देंगे। जैन धर्म में तो आचार्यों ने 'धर्म के दस लक्षणों में सर्वोपरि धर्म 'उत्तम क्षमा' को माना है। जिस व्यक्ति के आचरण में 'उत्तम क्षमा' का समावेश हो जाता है, उसको तो मानव का सब से बड़ा शत्रु 'अभिमान' कभी छू तक नहीं सकता। इस प्रसंग में रामचरित मानस' के रचयिता महाकवि तुलसीदास का एक कथन यहां उद्धृत करना चाहता हूं, जो बहुत प्रासंगिक है-


'तनु गुन धन महिमा धरम, तेहि बिनु जेहि अभिमान।


तुलसी जिअत बिडंबना, परिनामहु गत जान।'


अर्थात तन की संदरता. सदगण. धन. सम्मान और धर्म आदि के बिना भी, जिन्हें अभिमान होता है, ऐसे लोगों का जीवन ही दुविधाओं से भरा होता है, जिसका परिणाम बुरा ही होता है। निश्चय ही हमें अपने जीवन को सरलता और सहजता से जीने के लिए 'अभिमान' रूपी महाशत्रु से बचना होगा और विनम्रता को जीवन में अपनाना होगा।


अशोक पाल