यह दुनिया की मंदी का असर है


केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा अप्रैल से जून की तिमाही की विकास दर के आंकड़े प्रकाशित किए गए। इनके अनुसार इस तिमाही में पिछले छह वर्षों में सबसे कम जीडीपी ग्रोथ यानी पांच प्रतिशत दर्ज की गई है। पहले से ही चल रही आर्थिक मंदी की खबरों के चलते इन आंकड़ों के कारण आर्थिक जगत की चिंता स्वाभाविक है। पर हमें समझना होगा कि अर्थव्यवस्था के इस प्रकार के सामूहिक आंकड़ों से उसके हालात का सही जायजा नहीं लिया जा सकता। अर्थव्यवस्था के तीन प्रमुख क्षेत्र ऐसे हैं, जिनमें सात प्रतिशत से ज्यादा ग्रोथ हुई है। ये क्षत्र हैं- इलेक्ट्रिसिटी गैस ऐंड वाटर सप्लाई और अन्य सेवाएं (8.6 प्रतिशत) व्यापार, होटल, ट्रांसपोर्ट, संचार और ब्रॉडकास्टिंग (71 प्रतिशत) पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, प्रतिरक्षा और अन्य सेवाएं (8.5 प्रतिशत)। कृषि में ग्रोथ दो प्रतिशत, खनन में 2.7 प्रतिशत और विनिर्माण में 0.2 प्रतिशत हुई है। कंस्ट्रक्शन में ग्रोथ 5.7 प्रतिशत और वित्तीय सेवाओं, रियल एस्टेट व प्रोफेशनल सेवाओं में 5.9 प्रतिशत आंकी गई है।


पिछली तिमाही में जिस तरह से ऑटोमोबाइल क्षेत्र में मांग में भारी गिरावट देखी गई थी, उसके चलते जीडीपी ग्रोथ के ये आंकड़े बहुत आश्चर्यजनक नहीं हैं। असली प्रश्न यह है कि ये आंकड़े क्या किसी गहरी मंदी की ओर बढ़ने के संकेत कर रहे हैं? अंतरराष्रीय सलाहकार फर्म गोल्डमैन सैक का कहना है कि यह धीमापन जल्द समाप्त हो जाएगा। एशियाई विकास बैंक ने भी रिजर्व बैंक द्वारा अधिशेष हस्तांतरित किए जाने से भारतीय अर्थव्यवस्था को गति मिलने के संकेत दिए हैं। पिछले कुछ महीनों से पूरी दुनिया में धीमापन आया है। अमेरिका में जहां इस वर्ष की पहली तिमाही में विकास दर 31 प्रतिशत थी, वही दूसरी तिमाही में यह 21 प्रतिशत दर्ज की गई। यूरोपीय संघ में भी पहली तिमाही की ग्रोथ 0.4 प्रतिशत थी, जो दूसरी तिमाही में घटकर 0.2 प्रतिशत रह गई। चीन की सरकार ने भी जो आंकड़े दिए हैं, उसके अनुसार वां की विकास दर पहली तिमाही की 6.4 प्रतिशत से घटकर दूसरी तिमाही में 6.2 प्रतिशत रह गई। आज विश्व के सभी देश आर्थिक रूप से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और एक देश की मंदी शेष मुल्कों को प्रभावित करती है। ऐसे में, पिछले कुछ समय से चल रही वैश्विक मंदी का असर भारत पर पड़ना स्वाभाविक है। पिछले कुछ समय से तेल की बढ़ती कीमतों के कारण भी अर्थव्यवस्थाओं की गति धीमी हुई है। अर्थव्यवस्था की गति के कई मापदंड होते हैं। उनमें से एक है, उपभोक्ता वस्तुओं की मांग। यदि उपभोक्ता वस्तुओं की बड़ी कंपनियों के आंकड़े देखें, तो हिन्दुस्तान लीवर की बिक्री में पिछली तिमाही (अप्रैल-जून) में सात प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई, मेरिको में पांच प्रतिशत, डाबर इंडिया में 11 प्रतिशत, कॉलगेट में चार प्रतिशत और नेस्ले की बिक्री में 11 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। इसी तिमाही में बिग बाजार की बिक्री में आठ प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई, तो गृहस्थों के बैंक ऋणा में 16.6 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर्ज हुई है।


एयर कंडिशनरों की मांग में पांच प्रतिशत, वाशिंग मशीन में तीन प्रतिशत और रेफिजरेटरों की बिक्री में 11 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है। जाहिर है, उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री के लिहाज से अर्थव्यवस्था में धीमेपन के लक्षण नहीं दिखाई देते। तो फिर ऐसा क्या हुआ कि विकास दर के धीमे पड़ने की कहानियां छपने लगीं? हुआ यूं कि इसी बीच ऑटोमोबाइल क्षेत्र में मांग में भारी कमी दर्जहई। व्यावसायिक और निजी, दोनों प्रकार के वाहनों की मांग में कमी आई है। यात्री वाहनों की मांग हालांकि 2018 से ही कम होती जा रही थी, लेकिन अप्रैल-जून तिमाही के हर महीने ही यह कमी दर्ज हुई। व्यावसायिक वाहनों की मांग जो जनवरी-मार्च की तिमाही में स्थिर थी, अप्रैल में छह प्रतिशत, मई में 10 प्रतिशत और जून में 12.3 प्रतिशत वार्षिक की दर से घटी। तिपहिया और दोपहिया वाहनों की स्थिति भी लगभग ऐसी ही थी। हलांकि हमें समझना होगा कि जहां निर्यात में मंदी अंतरराष्ट्रीय कारणों से होती है, ऑटोमोबाइल की मांग में कमी घरेलू कारणों से है।