द्विराष्ट्र सिद्धांत बनाम नागरिकता


लगातार दो विश्व युद्धों में भागीदारी के चलते आर्थिक रूप से कमजोर पड़े अंग्रेजों ने 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने के मात्र दो वर्षों के भीतर अपनी अधिकतर कॉलोनियों को आजाद कर दिया था। इसी कड़ी में भारत भी अंततः 1947 में आजाद हुआ। इसलिए भारत की आजादी का प्रमुख श्रेय दोनों विश्व युद्धों को जाता है, जिसने ब्रिटिश हुकूमत की कमर तोड़ दी थी, लेकिन ब्रिटिश उपनिवेशवाद की जितनी भी कॉलोनियां थीं, उनमें से भारत की आजादी मानवनिर्मित त्रासदी बना दी गई। मजहब के आधार पर भारत माता के दो टुकड़े कर दिए गए। लाखों लोग मरे, लाखों बेघर हुए, हजारों बहन-बेटियों की अस्मत लुट गई। लाशों के ढेर पर मुसलमानों के लिए अलग देश-इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान बना। मानो हिंदू और मुस्लिम किसी नदी के दो किनारे की तरह हैं, जो आपस में मिल कर नहीं रह सकते ! इसे ही टू नेशन थ्योरी (द्विराष्ट्र सिद्धांत) के नाम से जाना जाता है। इसके बाद झूठे इतिहास लेखन का दौर चला। भारत की आजादी के आसपास जितनी भी अप्रिय घटनाएं हुईं, उन्हें हिंदू महासभा, आरएसएस, वीर सावरकर इत्यादिके मत्थे मढ़ कर उस वक्त की दोनों प्रमुख शक्तियों-कांग्रेस और मुस्लिम लीग-को क्लीन चिट दे दिया गया। ये दोनों शक्तियां प्रभावशाली थी, क्योंकि उनके पास मजहब के आधार पर लोगों का समर्थन प्राप्त था। हिंदू महासभा हाशिये पर और अलग-थलग पड़ा एक गुमनाम संगठन था, जिसके समर्थक अत्यंत ही सीमित थे। देश के 90 प्रतिशत मुसलमान मुस्लिम लीग के साथ थे, लेकिन 95 प्रतिशत हिंदू हिंदू महासभा के साथ न होकर, कांग्रेस पार्टी के साथ थे! टू नेशन थ्योरी सर्वप्रथम सर सैयद अहमद खान ने 1867 में हिंदी-उर्दू विवाद के बाद दिया था जो कालांतर में विभाजन का कारण बना। 1931 में मोहम्मद इकबाल ने इस सिद्धांत की पैरवी करते हुए इलाहाबाद की एक आमसभा में भारत के उत्तरी- पश्चिमी इलाके को मुस्लिम राष्ट्र बनाने की मांग की, लेकिन इस देश के कुछ लोगों की जमात ने 1935 में वीर सावरकर पर इसकी जिम्मेदारी डाल दी।


आंकड़े बताते हैं कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में अल्पसंख्यकों की आबादी में लगातार कमी आई है। पाकिस्तान में 1947 में अल्पसंख्यकों की आबादी 23 प्रतिशत थी, 2011 में यह 3.7 प्रतिशत पर आ गई। बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की आबादी 22 प्रतिशत थी, जो 2011 में 7.8 प्रतिशत हो गई। आखिर कहां गए ये लोग?


दूसरी ओर भारत के मुसलमानों ने जब मजहब के आधार पर और टू नेशन थ्योरी की बुनियाद पर भारत को छोड़ कर पाकिस्तान और बांग्लादेश को अपना मुल्क चुन लिया तो भारत स्वाभाविक रूप से मुसलमानों का देश नहीं होना चाहिए था, लेकिन जिन मुसलमानों ने टू नेशन थ्योरी को नकार कर इस देश में ही रहना पसंद किया, उन्हें भारत ने खुले दिल से स्वीकारा । भारत में रह गए मुसलमान इस देश के नागरिक हैं, ठीक उसी तरह जैसे कोई हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई या पारसी। आंकड़ों के मुताबिक भारत में 1951 में मुस्लिम 9.8 प्रतिशत थे, आज 14.23 प्रतिशत हैं। यह बताता है कि भारत में अल्पसंख्यकों को विकास के लिए बहुसंख्यकों की तुलना अधिक अवसर मिले हैं, लेकिन जिन मुसलमानों ने टू नेशन थ्योरी को स्वीकार कर पाकिस्तान और बांग्लादेश में रहना स्वीकार किया, उनके लिए अब भारत की नागरिकता के सवाल पर हमारे देश में कोई विवाद नहीं होना चाहिए। वे अपने-अपने इस्लामिक मुल्कों में खुश रहें, आगे बढ़ें। 


डॉ. निशांत रंजन