गरीबी बड़ी समस्या है तो,अमीरी का बढ़ना भी समस्या बन रहा है


देश की प्रति व्यक्ति आय मार्च 2019 को समाप्त वित्त वर्ष में 10 प्रतिशत बढ़कर 10,534 रुपये महीना पहुंच जाने का अनुमान है। इससे पहले वित्त वर्ष 2017-18 में मासिक प्रति व्यक्ति आय 9,580 रुपये थी। प्रति व्यक्ति औसत आय का बढ़ना देश की समृद्धि का स्वाभाविक संकेत है। आम आदमी की औसत आय का बढ़ना हो या देश अरबपतियों-करोडपतियों की संख्या का बढ़ना है, इन स्थितियों के बीच ऐयाशी, प्रदर्शन एवं वैभवता के अतिशयोक्तिपूर्ण खर्च की विकृत मानसिकता का पनपना नैतिक एवं चारित्रिक गिरावट कारण भी बन रही है। समस्या दरअसल गरीबी को समाप्त करने की उतनी नहीं, जितनी कि संतुलित समाज रचना को निर्मित करने की है। अमीरी का बढ़ना भी समस्या बन रहा तो गरीबी भी बड़ी समस्या है। यदि समय रहते समुचित कदम नहीं उठाए गए तो विषमता की यह खाई और चैड़ी हो सकती है और उससे राजनैतिक व सामाजिक टकराव की नौबत आ सकती है।


भारत के अमीर और ज्यादा अमीर होते जा रहे हैं, गरीब और ज्यादा गरीब। इस बढ़ती असमानता से उपजी चिंताओं के बीच देश में अरब़पतियों की तादाद तेजी से बढ़ रही है। भारत के लिये विडम्बनापूर्ण है कि यहां गरीब दो वक्त की रोटी और बच्चों की दवाओं के लिए जूझ रहे हैं, वहीं कुछ अमीरों की संपत्ति लगातार बढ़ती जा रही है, उनके वैभव प्रदर्शन हिंसा, अराजकता एवं बिखराव का कारण बन रहे हैं। देश में दसियों नए अरबपति उभरे हैं तो कुछ पुराने अरबपतियों की लुटिया भी डूब गई है। हालांकि अरबपतियों के उभरने की रफ्तार दुनिया में सबसे ज्यादा यहीं है। संपत्ति सलाहकार कंपनी नाइट फ्रैंक की 'द वेल्थ रिपोर्ट 2019' के अनुसार भारत में अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। 2013 में यह 55 थी जो 2018 में बढ़कर 119 हो गई। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक साल में भारत में मिलियनेयर क्लब यानी करोड़पतियों के क्लब में भी 7,300 नए जुुड़े हैं। इस तरह देश में करोड़पतियों की तादाद 3.43 लाख हो चुकी है, जिनके पास सामूहिक रूप से करीब 441 लाख करोड़ रुपये की दौलत है। इस रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि भारत के मात्र नौ अमीरों के पास जितनी संपत्ति है वह देश की आधी आबादी के पास मौजूदा कुल संपत्ति के बराबर है।


सवाल है कि करोड़पतियों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी का राज क्या है? माक्र्स ने एक जगह लिखा है कि आदमी अपनी ईमानदारी की मेहनत से एक टूटी-झोपड़ी के सिवा कुछ नहीं पा सकता। तो क्या करोड़पतियों की संख्या में वृद्धि का आधार बेईमानी है? अगर इसका उत्तर 'हां' है तो विचारणीय यह भी है कि वे अपनी बेईमानी के बावजूद इसकी वैधता कहां से पाते हैं? कहीं इसके पोषक तत्व हमारे सामाजिक परिवेश एवं राजनीतिक में तो नहीं है। इस तरह धन एवं संपदा पर कुछ ही लोगों का कब्जा होना, अनेक समस्याओं का कारक हैं, जिनमें बेरोजगारी, भूख, अभाव जैसी समस्याएं हिंसा, युद्ध एवं आतंकवाद का कारण बनी है। अराजकता, भ्रष्टाचार, अनैतिकता को बढ़ावा मिल रहा है।


विकास हमारे युग का एक मुहावरा और मिथक है और यह अन्य अवधारणाओं की तरह पश्चिम से आयातित है। इसके केंद्र में वह सफलता है, जहां सार्थकता, सादगी एवं नैतिकता की बात करना एक प्रकार का पिछड़ापन समझा जाता है। इसके पीछे कारण है हमारा वह रूझान, जिसमें व्यक्ति और व्यक्ति के बीच फर्क किया जाता है। बाजार इस फर्क को बताता-बढ़ाता है। विकास की सभी परियोजनाओं में आम आदमी की बात की जाती है, लेकिन आम आदमी के नाम पर 'विशिष्ट' लोगों को लाभ पहुंचाया जाता है। अंबानी-अडानी का बढ़ता साम्राज्य इसकी एक बानगी भर है।


मुकेश अंबानी ने जब मुंबई में अपने परिवार के रहने के लिए चार-पांच हजार करोड़ रुपए के लागत से एक घर बनाया तो उन्होंने देश वालों को ठेंगा ही दिखाया था कि मैं जो चाहूं कर सकता हूं। उनमें अगर नैतिकता की ललक होती तो वे सादगी का एक उदाहरण पेश कर सकते थे। पैसे वाले लोग भी परंपरा बना सकते हैं- अच्छी या बुरी। पर उन्हें भोंडेपन का ही पाठ पढ़ाना था। मां को लेकर उनके परिवार में पांच सदस्य हैं। यह पैसे का बेहद बदसूरत एवं घिनौना प्रदर्शन है। पर हमारे यहां इस प्रकार का अशोभन प्रदर्शन बहुत नया है। यह पिछले सत्तर सालों में और अधिक तो बीस-पचीस वर्षों के वैश्वीकरण के बढ़ते प्रभाव मंे बढ़ा है। हम न इधर के रहे न उधर के। तथाकथित नवधनाढ्य लोग पैसे का जो अभद्र एवं भोंडा प्रदर्शन कर रहे हैं, यह अपने को दूसरे की नकल करके सभ्य जताने की लत बहुत पुरानी नहीं है। पहले हमें इतना आत्मविश्वास था कि सभ्यता के पैमाने खुद तय करते थे, धनाढ्य एवं साधन-सम्पन्न होकर भी मूल्यों एवं आदर्शों को जीते थे।


अंग्रेजों के भारत आने से पहले 1818 तक उदयपुर के राजा निजी खर्च के लिए अपने खजाने से एक हजार रुपए महीने लेते थे। वे अपनी मर्जी से कुछ नहीं कर सकते थे। वे नियम और परंपरा से बंधे थे। अंग्रेजों के रेजिडेंट आने के बाद अंग्रेज उनके नाम पर खुद राज करने लगे। लगान कई गुना बढ़ा दिया गया। गोहत्या बढ़ गई और राजा को एक हजार रुपए प्रति माह की जगह कई गुना बढ़ाकर एक हजार रुपए प्रतिदिन दिया जाने लगा। शुरू में राजा को समझ नहीं आया कि वे इतने पैसों का क्या करें। वे दावत वगैरह पर उसे खर्च करने लगे, पर धीरे-धीरे अंग्रेजों के ही सुझाव पर उस पैसे को अपने को 'सभ्य' बनाने पर खर्च करने लगे। ऐयाशी के महल बनवा कर, पेरिस और लंदन जाकर, अंग्रेजी नाच, खाने का ढंग, शराब पीने के तरीके और अंग्रेजी तहजीब में पारंगत होने में, अंग्रेजों को खुश करके उनसे कुछ छोटे-मोटे झूठे खिताब पाने में, ये पैसे खर्च होने लगे। आज के नव-धनाढ्य अंग्रेजों की थोपी तथाकथित आधुनिक एवं सुविधावादी ऐयाश जीवनशैली को जी रहे हैं। विषमता गरीबी को बढ़ा कर ही बढ़ सकती है और साथ ही जब हाथ में एकाएक जरूरत से ज्यादा पैसा आता है तो भोंडापन अपने आप बढ़ता है। इस प्रकार के पैसे और उसके कारण जो चरित्र-निर्माण होता है उससे देश मजबूत नहीं कमजोर होता है। इस प्रकार की बढ़ोतरी को विकास नहीं कहा जा सकता।


हमारी संवेदनाएं भोथरी होती जा रही है। बड़ी से बड़ी घटनाएं हमारे सामने से यों ही गुजर जाती हैं। आज आए दिन भ्रष्टाचार और लोकतांत्रिक मूल्यों के हनन का समाचार मिलता रहता है। उस पर हमारी प्रतिक्रिया निराशाजनक होती है। हमें हमारे पड़ोस के लोगों से बात किए बिना महीनों गुजर जाते हैं। कहते हैं कि मानव में कुछ स्थायी भाव होते हैं। साहचर्य एवं सह-जीवन का भाव उसमें एक है। आज हमने उसका स्थानापन्न ढूंढ लिया है। इंटरनेट के सोशल नेटवर्किंग साइटों पर वे लोग ज्यादा सक्रिय दिखते हैं जो वास्तविक जीवन में आमतौर पर लोगों से घुलमिल नहीं पाए। बाजार से ज्यादा मानव प्रकृति की समझ शायद किसी को नहीं होती है। बाजार इसका दोहन करता है। सोशल नेटवर्किंग साइटें समाज का विकल्प नहीं हो सकती हैं, लेकिन बाजार इसे विकल्प के रूप में पेश करता है। यह विकल्पहीनता की स्थिति है जो हमारे सोचने-समझने की शक्ति को कुंद कर रही है, रिश्ते चरमरा रहे हैं, आदर्श एवं मूल्य बिखर रहे हैं।


सोशल मीडिया एवं टीवी-सिनेमा की भव्यता से प्रभावित हुए बिना आप नहीं रह सकते। ऐसा लगता है जैसे किसी स्वप्न-लोक में हों। मगर प्रसारित चित्र हमारे समाज की सच्चाई नहीं होते। दृश्य माध्यमों पर हमारी वास्तविक समस्याओं-किसानों की आत्महत्या, महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी को नहीं दिखाया जाता। सवाल है, जब केवल भव्यताएं हम तक पहुंचती रहेंगी तो हमें सपने देखने की जरूरत क्या है? सपनों का संबंध तो अभाव से होता है। अभाव के लिए भाव का होना जरूरी है, जो आज बाजार और उसकी शक्तियों द्वारा निष्क्रिय बनाया जा रहा है। मानस का रूपांतरण यहीं से शुरू होता है। रूपांतरित मानस यथार्थबोध खोता जा रहा है। उसे वास्तविक और आभासी दुनिया में फर्क समझ में नहीं आ रहा है, जो न केवल गरीब और अमीर के बीच खाई लगातार चैड़ी कर रहा है बल्कि इस बढ़ती खाई की त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थिति गैगरेप, बलात्कार, नारी अस्मिता को नौंचने की भयावहता तक लेजा रहा है। वास्तव में यह स्थिति है कि करोड़ों लोगों को भरपेट खाने को नहीं मिलता। वे अभाव एवं परेशानियों में जीवन निर्वाह करते हैं। वह तो मरने के लिये भी स्वतंत्र नहीं है और गरीबी भोगते हुए जिन्दा रहने के लिये अभिशप्त है, दूसरी धन का अपव्यय एवं भौंडा प्रदर्शन बढ़ता जा रहा है। इन जटिल हालातों में सवाल है कि अमीरों के इस बढ़ते खजाने एवं उनके अतिशयोक्तिपूर्ण खर्चों पर किसको और क्यों खुश होना चाहिए? ऐसी कौनसी ताकते है जो अमीरों को शक्तिशाली बना रही है। गरीबी को मिटाने का दावा करने वाली सरकारें कहीं अमीरों को तो नहीं बढ़ा रही है?


ललित गर्ग