नागरिकता कानून को खारिज कराना आसान नहीं होगा


नागरिकता संशोधन कानून पर काफी हंगामा मचा है। सुप्रीम कोर्ट में भी दर्जन भर से ज्यादा याचिकाओं में इसे चुनौती दी गई है। बुधवार को इन पर सुनवाई की संभावना है। ऐसे में देखना होगा कि संशोधित कानून क्या कहता है और कोर्ट में कानून की वैधानिकता परखने का क्या मानदंड है? क्या यह कानून उन पर खरा उतारता है? कानून का विश्लेषण करने, तय मानदंड व पूर्व के फैसलों को देखने से लगता है कि कोर्ट में इसे खारिज कराना बहुत आसान नहीं होगा। विशेषज्ञ कहते हैं कि कोर्ट यह देखेगा कि इस कानून से किसके और किस मौलिक अधिकार का हनन हो रहा है।


नागरिकता संशोधन कानून को धर्म के आधार पर भेदभाव करने वाला बताते हुए संविधान की धर्मनिरपेक्षता के मूल ढांचे और अनुच्छेद 14 में दिए गए बराबरी के मौलिक अधिकार का उल्लंघन बताया जा रहा है, लेकिन इस पर सुप्रीम कोर्ट के वकील ज्ञानंत सिंह कहते हैं कि अनुच्छेद 14 तर्कसंगत वर्गीकरण की इजाजत देता है और इस कानून में भी तर्कसंगत वर्गीकरण है। कानून किस उद्देश्य से लाया गया है यह कानून के उद्देश्य में ही स्पष्ट है। इसमें धार्मिक रूप से प्रताड़ित लोगों को नागरिकता देने की बात कही गई है। यह कानून हर तरह के शरणार्थी को नागरिकता देने की बात नहीं कर रहा। धार्मिक रूप से सताए शरणार्थियों और अपने बेहतर जीवन और निवास की सुविधा की आस में आए शरणार्थियों में अंतर है। तर्कसंगत वर्गीकरण के आधार पर ही अल्पसंख्यकों के लिए विशेष व्यवस्था या आरक्षण की अवधारणा टिकी है ।


संसद को नागरिकता पर कानून बनाने का है पूर्ण अधिकार : कानून को चुनौती देने के दो आधार होते हैं। पहला संसद को ऐसा कानून बनाने का अधिकार है कि नहीं और दूसरा कि कानून संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार का हनन तो नहीं करता। मौजूदा मामला देखें तो संविधान का अनच्छेद 11 संसद को नागरिकता के बारे में कानून बनाने का पूर्ण और अबाधित अधिकार देता है।


कोर्ट देखेगा किसके और किस मौलिक अधिकार का हनन हुआ है : अनुच्छेद 32 नागरिकों को मौलिक अधिकार के हनन पर रिट दाखिल करने का अधिकार देता है। यदि पीड़ित स्वयं कोर्ट नहीं आ सकता तो उसकी ओर से कोई और याचिका दायर कर सकता है। ज्ञानंत कहते हैं कि इस मामले में कोर्ट यह देखेगा कि किसके और किस मौलिक अधिकार का हनन हुआ है। जिनके मौलिक अधिकारों के हनन की बात कही जा रही है क्या वे भारतीय नागरिक हैं? किसी विदेशी का नागरिकता पाने का मौलिक अधिकार कैसे हो सकता है? अगर किसी नागरिक की नागरिकता छीनी जा रही हो तो कोर्ट उसमें दखल दे सकता है। ज्ञानंत कहते है कि यह संसद का विवेकाधिकार है कि वह किसे नागरिकता दे और किसे न दे। संविधान के मूल ढांचे के उल्लंघन का तर्क गलत है, क्योंकि यहां संविधान में संशोधन नहीं किया गया है।


विदेशियों को देश में बसने का मौलिक अधिकार नहीं : सप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने हंस मलर ऑफ न्यूनबर्ग बनाम प्रेसीडेंसी जेल कलकत्ता मामले में 1955 में दिए गए फैसले में कहा था कि विदेशियों का मौलिक अधिकार सिर्फ अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार तक ही सीमित हैं। उन्हें अनुच्छेद 19 (1)(ई) के तहत देश में कहीं भी बसने और रहने का मौलिक अधिकार नहीं है। अनुच्छेद 19 में अधिकार सिर्फ भारत के नागरिकों को है। कोर्ट ने कहा था कि भारत सरकार को विदेशियों को बाहर निकालने का असीमित और पूर्ण अधिकार है। संविधान में कोई भी ऐसा प्रावधान नहीं है, जो सरकार के इस अधिकार पर रोक लगाता हो।


संविधान पीठ के इस फैसले पर 1991 में मिस्टर लुइस डे रेड्ट बनाम भारत सरकार के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने फिर मुहर लगाई। 1995 में डेविड जॉन होपकिंग मामले में मद्रास हाई कोर्ट ने उद्धत किया। साथ ही कहा कि भारत सरकार के पास नागरिकता देने से मना करने की असीमित शक्ति है। सरकार बिना कारण बताए नागरिकता देने से मना कर सकती है। विदेशी नागरिक अनच्छेद 14 के तहत भारतीय नागरिकों से बराबरी के अधिकार का दावा नहीं कर सकता।