धान की पैदावार बढ़ाने के लिए शोध के जरिए नई संभावनाओं का पता लगाया गया


जितेन्द्र कुमार ठाकुर अपने सहकर्मियों के साथ


नई दिल्ली  : चावल दुनिया भर में मुख्य खाद्य पदार्थों में से एक है, क्योंकि इसमें बहुत अधिक मात्रा में कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है, जो तत्काल ऊर्जा प्रदान करता है। दक्षिण पूर्व एशिया में, जहां दुनिया के दूसरे हिस्सों की तुलना में इसका अधिक सेवन किया जाता है, कुल कैलोरी के 75% हिस्से की पूर्ति इसी से होती है। भारत में धान की खेती बहुत बड़े क्षेत्र में की जाती है। लगभग सभी राज्यों में धान उगायी जाती है हालांकि इसके बावजूद कम उत्पादकता इसकी समस्या है।


भारत और दुनिया की बढ़ती आबादी की मांग को पूरा करने के लिए, धान की उत्पादकता में लगभग 50 प्रतिशत की वृद्धि की आवश्यकता है। प्रति पौधे अनाज के दानों की संख्या और उनके वजन जैसे लक्षण मुख्य रूप से धान की उपज को निर्धारित करते हैं। ऐसे में शोधकर्ताओं और उत्पादकों का मुख्य उद्देश्य अनाज के पुष्ट दानों वाले धान की बेहतर किस्में विकसित करना रहा है, जो ज्यादा उपज और बेहतर पोषण दे सकें।


एक नए अध्ययन में,  नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ प्लांट जीनोम रिसर्च (डीबीटी एनआईपीजीआर), के बायोटेक्नोलॉजी विभाग,  भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईसीएआर-आईएआरआई),  कटक के राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (आईसीएआर-एनआरआरआई), और दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैंपस (यूडीएससी) के शोधकर्ताओं ने धान के जीनोम में एक ऐसे हिस्से की पहचान की है, जिसके माध्यम से पैदावार बढ़ाने की संभावना है।


वैज्ञानिकों ने धान की चार भारतीय किस्मों (एलजीआर, पीबी 1121, सोनसाल और बिंदली) जो बीज आकार/वजन में विपरीत फेनोटाइप दिखाते हैं  कि आनुवांशिक संरचना-जीनोटाइप के जीन को क्रमबद्ध करके उनका अध्ययन किया। इस दौरान उनके जीनोमिक रूपांतरों का विश्लेषण करने के बाद उन्होंने पाया कि भारतीय धान के जर्मप्लाज्मों में अनुमान से कहीं अधिक विविधता है।


वैज्ञानिकों ने इसके बाद अनुक्रम किए गए चार भारतीय जीनोटाइप के साथ दुनिया भर में पाई जाने वाली धान की 3,000  किस्मों के डीएनए का अध्ययन किया। इस अध्ययन में उन्होंने एक लंबे (~ 6 एमबी) जीनोमिक क्षेत्र की पहचान की, जिसमें क्रोमोजोम 5 के केंद्र में एक असामान्य रूप से दबा हुआ न्यूक्लियोटाइड विविधता क्षेत्र था। उन्होंने इसे 'कम विविधता वाला क्षेत्र' या संक्षेप में एलडीआर का नाम दिया।


 इस क्षेत्र के एक गहन बहुआयामी विश्लेषण से पता चला कि इसने चावल की घरेलू किस्में तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, क्योंकि यह धान की अधिकांश जंगली किस्मों में मौजूद नहीं था। आधुनिक खेती से जुड़ी धान की अधिकांश किस्में जैपोनिका और इंडिका जीनोटाइप से संबंधित हैं। उनमें यह विशेषता प्रमुखता से पाई गई है। इसके विपरीत पारंपरिक किस्म के धान में यह विशेषता अपेक्षाकृत कम मात्रा में पाई गई। धान की यह किस्म जंगली किस्म से काफी मिलती जुलती है। अध्ययन से आगे और यह भी पता चला कि एलडीआर क्षेत्र में एक क्यूटीएल (क्वांटिटेटिव ट्रिट लोकस) क्षेत्र होता है जो अनाज के आकार और उसकी वजन की विशेषता के साथ महत्वपूर्ण रूप से जुड़ा होता है।


नया अध्ययन इस मायने में महत्वपूर्ण है कि इसने जीनोम-वाइड एक्सप्लोरेशन के अलावा, इसने एक महत्वपूर्ण और एक लंबे समय तक बने रहे धान के ऐसे जीनोमिक क्षेत्र को उजागर किया है, जो मोलिक्यूलर मार्कर और क्वांटिटेटिव ट्रेड के लिए क्रमिक रूप से तैयार किया गया था। डीबीटी-एनआईपीजीआर के टीम मुखिया जितेंद्र कुमार ठाकुर ने कहा, "हमारा मानना ​​है कि भविष्य में, इस एलडीआर क्षेत्र का उपयोग बीज के आकार के क्यूटीएल सहित विभिन्न लक्षणों को लक्षित करके धान की पैदावार बढ़ाने  के लिए किया जा सकता है।"


शोध करने वाली टीम में स्वरूप के. परिदा, अंगद कुमार, अनुराग डावरे, अरविंद कुमार, विनय कुमार और डीबीटी-एनआईपीजीआर के सुभाशीष मोंडल, दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैंपस के अखिलेश के. त्यागी, आईसीएआर-आईएआरआई के गोपाला कृष्णन एस. और अशोक के. सिंह, तथा आईसीएआर-एनआरआरआई के भास्कर चंद्र पात्रा शामिल थे। उन्होंने द प्लांट जर्नल को अपने अध्ययन की एक रिपोर्ट सौंपी है, जिसे जर्नल की ओर से  प्रकाशन के लिए स्वीकार कर लिया है।