बाजार में मांग पैदा करने में नाकाम आर्थिक पैकेज


डॉ. लखन चौधरी


कोविड-19 महामारी और संकट से उपजी 22 की भीषण आर्थिक सुस्ती से निकलने के लिए सरकार द्वारा 2 लाख करोड़ रुपए के विशेष आर्थिक पैकेज की घोषणा की गई। इस योजना को घोषित हुए तीन माह से अधिक हो चुके हैं, इसके बावजूद यह विशेष आर्थिक पैकेज देश के आंतरिक बाजारों में आवश्यक एवं अपेक्षित मांग पैदा करने में नाकाम ही लग रहा है। पिछले तीन महीने में देश के असंगठित क्षेत्रों में 12-15 करोड़ नौकरियां खत्म हो चुकी हैं। तीन-चार महिनों से लगातार बढ़ती बेरोजगारी, जो इस समय 2 प्रतिशत से ऊपर बनी हुई है, को रोकने के मामले में आर्थिक पैकेज लगभग असफल साबित हो रही है। सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर इतना बड़ा आर्थिक पैकेज अर्थव्यवस्था में मांग पैदा करने में नाकाम क्यों रहा है? इस समय अर्थव्यवस्था की दो सबसे बड़ी समस्या, संकट या चुनौती है। पहली बाजार में मांग उत्पन्न करना और दूसरी बेरोजगारी दर को नियंत्रित करते हुए रोजगार के अवसर बढ़ाना। दोनों ही मोर्चे पर विशेष आर्थिक पैकेज नाकाम दिख रहा है।


बाजार में मांग पैदा करना या मांग उत्पन्न करना वैसे तो पूर्णतरू एक आर्थिक, नीतिगत एवं दीर्घकालिक प्रक्रिया होती है, लेकिन फिर भी सरकारें आवश्यकता अनुसार कुछ तात्कालिक एवं फैरी उपायों की घोषणाएं करके बाजार में अल्पकालिक मांग पैदा कर सकती है। बाजार की इन्हीं अल्पकालिक मांगों को तार्किक नीतिगत निर्णयों के माध्यम से आगे बढ़ाते हुए प्रोत्साहनमूलक सहायकयोजनाओं एवं कार्यक्रमों के द्वारा दीर्घकालिक रूप में तब्दील किया जा सकता है, और इस प्रकार धीरे-धीरे बाजार में मांग पैदा करने में सहायता मिलती है। उत्पादन बढ़ने या बढ़ाये जाने के दो फयदे होते हैं, एक तो उत्पादकों का मुनाफ और दूसरा रोजगार के अवसरों का उत्पन्न होना। रोजगार के अवसरों में वृद्धि होने से समाज एवं अर्थव्यवस्था की कुल क्रयशक्ति बढ़ती हैबाजार में मांग बढ़ती है और उत्पाद बिकने लगने लगते हैं। इस प्रकार निवेश, रोजगार, मांग, बिक्री, लाभ, निवेश की यह आर्थिक प्रक्रिया सरपट दौड़ने लगती है, जिससे बाजार एवं अर्थव्यवस्था में विकास की प्रक्रिया को बल मिलता है। यह एक प्रक्रिया है, लेकिन जब यह प्रक्रिया सामान्य तौर से काम नहीं कर पाती है, तो सरकार को इसके लिए प्रोत्साहनमूलक सहायक गतिविधियों संचालित करनी पड़ती हैं, जिससे बाजार में मांग पैदा हो सके। छत्तीसगढ़ का उदाहरण इस मामले को समझने में सहायक हो सकता है।


छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने किसानों को कर्ज माफ, धान बोनस, बिजली बिल में छूट, जमीन-प्रॉपर्टी की बाजार कीमतों में कटौती आदि विभिन्न उपायों के द्वारा बाजार में मांग को पैदा करने के मामले में बहुत हद तक सफलता दर्ज की, जिसके कारण कोविङ-19 संकट की सुस्ती का असर या प्रभाव छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था में कम ही देखने को मिला। बाजार एवं अर्थव्यवस्थाओं में मांग पैदा करने के विषय में परम्परागत सिद्धांतों और पुरानी प्रतिष्ठित आर्थिक विचारधारा में कहा गया है कि आपूर्ति स्वयं अपना मांग उत्पन्न कर लेती हैश, लेकिन 193 की महामंदी से यह बात असफल सिद्ध हो गई और इस सिद्धांत पर ही सवाल उठने लगे। ऐसे में विकल्प के तौर पर प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जे.एम. कीन्स की नई आर्थिक विचारधारा को व्यापक समर्थन मिला और दुनिया के अधिकांश देशों ने इसे अपनाना शुरू किया था। कीन्स के अनुसार कोई भी अर्थव्यवस्था अपनी सुधार या मरम्मत स्वयं नहीं कर सकती या कहें कि सुस्ती एवं मंदी की स्थिति में स्वयं ऊपर नहीं उठ सकती।


अर्थव्यवस्था को सुस्ती एवं मंदी से उबारने के लिए बड़े आर्थिक सुधारों की जरूरत होती है और ये बड़े सुधार केवल सरकार ही कर सकती है।श् इसके लिए कीन्स ने मंदी में तबाह हुई अर्थव्यवस्था में कुल-मांग जिसे उन्होंने श्प्रभावपूर्ण मांगश् कहा, को बढ़ाने पर जोर देने की बात कही थी। इसके लिए सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था में सरकारी निवेश बढ़ाने की आवश्यकता होती है। सरकार नई- नई सामाजिक-आर्थिक नीतियों, कार्यक्रमों एवं योजनाओं के माध्यम से सरकारी खर्च में वृद्धि करते हुए लोगों को काम देकर उनकी आमदनी बढ़ाकर क्रय-शक्ति बढ़ाते हुए बाजार में तरलता एवं मांग उत्पन्न कर सकती है। समाज के निम्न आय समूहों को सीधे आर्थिक सहायता देकर लोगों में नकदी हस्तांतरण के द्वारा बाजार में मांग बढ़ाकर तात्कालिक मंदी को दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए। औद्योगिक और वित्तीय इकाइयों के लिए बड़े आर्थिक पैकेज लेकर आए, जिससे औद्योगिक तालाबंदी को रोका जा सके। इसका सम्मिलित प्रभाव सीधे तौर पर अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ाने में होता है। लोगों की जेब में जब पैसा आता है तो बाजार में मांग उत्पन्न होती है। इस प्रकार अर्थव्यवस्थाएं धीरे-धीरे मंदी से बाहर निकालने लगती हैं, और कुछ समय बाद बाजार एवं अर्थव्यवस्था अपनी रफ्तार पकड़ लेते हैं। देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था यानि बाजार और सरकारी नियंत्रण दोनों तरह की व्यवस्था वाली ढांचे को अपनाने की जरूरत होती है।


देश में बेरोजगारी दर पहले से ही पिछले 45 सालों के सबसे निचले स्तर पर जा चुकी है। इस समय देश में कुल कार्यशील जनसंख्या (कुल आयु कार्यशील जनसंख्या 15-64 वर्ष), कुल जनसंख्या का लगभग 63-65 प्रतिशत है, यानि देश की 87-9 करोड़ जनसंख्या और कहा जा रहा है कि इसमें से लगभग आधी कार्यशील जनसंख्या अपना रोजगार खो चुकी है।औद्योगिक उत्पादन में भी 38-4 प्रतिशत की गिरावट की बात कही जा रही है। कुल मिलाकर इस महामारी के कारण अर्थव्यवस्था में महामंदी की स्थिति उत्पन्न हो गई है, जिसे तत्काल रोकने की आवश्यकता है। विशेषज्ञों के अनुसार राहत पैकेज आपूर्ति क्षेत्र में सुधार मात्र है, जबकि अर्थव्यवस्था में सुधार की जरूरत मांग पक्ष में है। दूसरी बात इस सुधार कार्यक्रम के प्रभाव दीर्घकालीन हैं, जबकि अर्थव्यवस्था को तात्कालिक उपायों एवं सुधारों की आवश्यकता है। पैकेज के 8 लाख करोड़ रुपए की राशि की घोषणा पिछले बजट में और आरबीआई के द्वारा जारी राहत पैकेज की राशि की घोषणा भी पहले की जा चुकी है।


इन सभी पुराने आबंटनों को इसमें जोड़ दिया गया है। कहा जा रहा है कि इसके पहले 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपए आरबीआई से लिए गए और कॉरपोरेट टैक्स में 1 लाख 45 हजार की छूट दी गई थीलगभग इसी तरह की आशंका इस राहत आर्थिक पैकेज से होने की है। पैकेज के ज्यादातर हिस्सों में ऋण की गारंटी पर जोर दिया गया है। लेकिन इस बात को हमें याद रखना चाहिए कि, मंदी या आर्थिक संकट में कोई भी उद्यमी ऋण लेकर व्यापार करने से परहेज करता है। अगर ऋण ले भी लिया और उत्पादन कर भी लिया तो खरीदेगा कौन? तात्पर्य यह है कि ये सुधार केवल आपूर्ति पक्ष, सप्लाई साइड के हैं, जबकि देश में इस समय मुख्य समस्या मांग की कमी की है। लोगों की आय (पैसे) दो हिस्सों में जाती है, पहला खर्च और दूसरा बचत।