कार्य बोझा में राहत मिले तो महिला-हिंसा भी कम होगी


विश्व स्तर पर यह मांग बढ़ रही है कि महिलाओं व लड़कियों के देखरेख के अमूल्य कार्य की बेहतर पहचान और मूल्यांकन हो। घर-गृहस्थी के अनेक कार्य, बच्चों व बुजुर्गों की देखभाल, बीमार व्यक्तियों की तीमारदारी ऐसी जिम्मेदारियां है जिनमें महिलाओं का अति महत्वपूर्ण योगदान है।यह महिलाओं की एक मूल्यवान देन तो है पर इसका अर्थ यह नहीं है कि इस तरह के कार्य का पूरा बोझ महिलाओं व लड़कियों पर डाल दिया जाए। भारत सहित अनेक देशों के परिवारों में आज यही स्थिति देखी जा रही है कि महिलाओं पर घर-गृहस्थी व देखरेख के कार्यों का बोझ इस हद तक बढ़ी हुई स्थिति में है कि महिलाओं और लड़कियों को अपनी व्यापक प्रगति व समाज में अपनी भागेदारी बढ़ाने के समुचित अवसर नहीं मिल रहे हैं व वे अपनी क्षमताओं व रचनात्मकता का अपेक्षाओं व आकांक्षाओं के अनुकूल विकास भी नहीं कर पा रही हैं। इस अधिक बोझ का एक पक्ष यह है कि प्रचलित सामाजिक मान्यताओं में इसे एक अनिवार्यता मान लिया गया है कि देखरेख के अनेक कार्य महिलाओं व लडकियों को हर हालत में करने ही हैंउनकी मुख्य पहचान इस आधार पर बनती है कि वे इन जिम्मेदारियों को किस हद तक निभा रही हैं। इतना ही नहीं, यदि यह जिम्मेदारी कोई महिला नहीं निभा पाती है तो उसकी तीखी आलोचना व यहां तक कि उसके प्रति हिंसा को भी काफी हद तक सामाजिक स्वीकृति मिल जाती है।


यह अनचित व अन्यायपर्ण तो है. पर। प्रचलित मान्यताओं के आधार पर इसे स्वीकार कर लिया जाता है। यह स्थिति बहुत चिंताजनक है। अतः यह बहुत जरूरी है कि जमीनी स्तर पर अभियान चलाकर इन मान्यताओं को चुनौती दी जाए। पुरुषों की भी इस अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका होगी। उन्हें बढ़ती संख्या में यथासंभव घर-गृहस्थी व देखरेख के कामों में बेहतर भागेदारी करनी चाहिए व साथ में इस कार्य से जडी किसी मानसिक या शारीरिक हिंसा को रोकना चाहिए।हाल ही में ऑक्सफैम इंडिया संस्था द्वारा तैयार किए गए कुछ अध्ययनों व सर्वेक्षणों में इस मुद्दे को असरदार ढंग से उठाया गया है। इस संस्था के 218 परिवार देखरेख सर्वेक्षण में महिलाओं और लड़कियों विरोधी हिंसा और गैर-भुगतान के देखरेख के कार्य में संबंध सामने आया। यह सर्वेक्षण चार राज्यों (बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश व छत्तीसगढ़) में 117 इकाईयों में किया गया। इस सर्वेक्षण में पता चला कि जो महिलाएं पानी व ईंधन की लकड़ी नहीं ला सकी उनमें से 42.2 प्रतिशत को हिंसा सहनी पड़ी। जो महिलाएं पुरुषों के लिए भोजन तैयार नहीं कर सकी उनमें से 41.2 प्रतिशत को पिटाई सहनी पड़ी।